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Tuesday 5 May 2020

पब्लिक ड्रिंक बनने की राह पर है शराब

कमज़र्फ को साकी जाम न दे, तौहीन होगी मय़खाने की
वो पी लेगा  फिर बहकेगा,  शामत  आएगी  पैमाने की. 

शराब ! मस्त और कभी-कभी अस्त-व्यस्त बना देने वाले इस पेय पदार्थ के बारे में वैदिक काल से लेकर आज तक इतना कुछ लिखा गया है कि यदि शब्द पानी का रूप धर लें तो पृथ्वी पर  विशाल मयसागर दिखाई देगा. देव, गंधर्व, किन्नर, नर, नाग, ऋषि-मुनि, कवि, साहित्यकार और वैज्ञानिकों ने अलग-अलग ढंग से मद्य की व्याख्या की है. त्रेता युग की वाल्मीकि रामायण में राक्षसों द्वारा मद्यपान कर ऋषियों को परेशान करने का जिक्र आता है तो देवलोक की राजसभाओं में सोमरस पान आवभगत की एक अनिवार्य परंपरा के रूप में देखने को मिलती है. महाभारत में भी दुर्योधन पांडवों के मामा मद्रराज शल्य का सुरा के साथ शानदार स्वागत कर उसे अपने पक्ष में युद्ध करने के लिए वचनबद्ध कर लेता है. कलयुग के तो कहने ही क्या ! व्यापारियों, उद्योगपतियों और राजनीतिज्ञों ने तो इस नशीले पानी से जाने कितने हित साधे हैं और आज भी उनके लिए व्यापारिक समझौतों और चुनावी जंग जीतने का यह अचूक हथियार है. भारत में तो इस दिव्यास्त्र के सम्मुख कांग्रेस, भाजपा सहित सभी राजनीतिक दल अपने-अपने घोषणापत्रों को बगल में दबाकर नतमस्तक हो जाते हैं और आशीर्वाद मांगते हैं.
इस मदमस्त पानी ने 'सुरा' से लेकर 'शराब' तक का सफर हर युग में बड़ी शान से तय किया है. सिर पर चढ़ कर बोलने की हिमाकत करने वाली यह मदिरा होठों के जरिए सीधे दिल में उतरती रही है. अमीर इसे 'वाइन' और 'हार्ड ड्रिंक' कहकर सम्मान देता है तो वहीं आम आदमी के लिए यह सिर्फ 'दारू' है. 'जिसमें मिला दो, उसी रंग जैसी...' का भाव रखने वाली यह मदिरा जब इतनी महत्वपूर्ण है तो फिर इस पर लगी बंदिशें सवाल खड़ा करती हैं.

लॉकडाउन-2 के बाद मिली थोड़ी सी राहत के माहौल में शराब के लिए पूरे देश में जिस कदर मारामारी दिखाई दी है उससे यह लगता है कि अब शराब पर नियंत्रण के लिए बनाए गए सारे कानूनों की समीक्षा होनी चाहिए. लंबी-लंबी कतारों में लगे लोग शराब पाने के लिए जिस हद तक जूझ रहे हैं वह संकेत है कि मदिरा अब 'पब्लिक ड्रिंक' बनने की दिशा में कदम बढ़ा चुकी है. जब देश में शराब पीने-पिलाने वालों की होड़ लगी हो और सत्ता अपने खजाने के लिए सोने की इस मुर्गी का हर अंडा समय से पहले निकालने की जुगत में हो, तब नियम कायदों को बदल लेना चाहिए. मैं तो यहां तक उदारवादी रवैया अपनाने की बात सोचता हूं कि सरकार शराब को आवश्यक वस्तु अधिनियम में शामिल करने की दिशा में कदम बढ़ाए. इस सोच के पीछे महत्वपूर्ण तर्क यह है कि जब मदिरापान में लोग इस कदर आदि हो चुके हों कि बिना शराब के उन्हें जीवन मौत से बदतर लगता हो तो सरकार का फर्ज बनता है कि अपनी प्रजा का ख्याल रखें. और यहां तो पीने वाली प्रजा अपने प्रिय पेय के लिए सरकार का खजाना भी मुंह मांगे दामों पर भरने के लिए आतुर है. विश्व संकट की घड़ी में भी शराब सारे जातिगत समीकरणों और बंधनों को तोड़ती हुई अपना वर्चस्व कायम रखे हुए है. तभी तो मधुशाला के द्वितीय भाग में हरिवंश राय बच्चन ने बहुत पहले लिख दिया था-

सब मिट जाएं, बना रहेगा सुंदर साकी, यम काला
सूखें सब रस, बने रहेंगे किंतु हलाहल औ' हाला
धूमधाम औ' चहल पहल के, स्थान सभी सुनसान बनें
जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला.

जब शराब की महत्ता इतनी अधिक है तो फिर क्या कारण हैं कि भारतीय समाज में इस मादक पेय पदार्थ को सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं है. संकट के दौर में भले ही सुरापान करने वाले लोग शर्म का चोगा उतार लाइन में जा लगे हो, लेकिन आज भी वे ठेके से खरीदी गई बोतल या थैली को छिपाकर ले जाने का जतन करते हैं. यह स्थिति बड़े और छोटे लोगों पर समान रूप से लागू होती है. ब्रांडेड शराब कंपनियों द्वारा अपने उत्पाद को बेहद शानदार बोतल और कार्टन में पैक किया जाता है जिसे दो घड़ी देखने का मन न पीने वाले का  भी  करता है.लेकिन वाइन शॉप से उसे भी पुराने अखबार में ढांपकर लाने की कोशिश रहती है कि कहीं कोई देख न ले. अमेरिकी और यूरोपीय देशों में ऐसी स्थिति नहीं है क्योंकि वहां शराब सेवन को सामाजिक मान्यता है. भारत में शराब ठेके से भले ही छिपाकर लाई जाती हो लेकिन पीने के बाद सब उसे उगाने की भरसक कोशिश करते हैं. क्या राजा क्या रंक ! दो घूंट अंदर जाने के बाद सबके चेहरों का रंग उतर जाता है. यह मनुष्य का विवेक हर लेती है और शायद यही कारण है कि भारतीय समाज में शराब और शराबी को हेय दृष्टि से देखा जाता है. इसके बावजूद शराब पीने वालों के मुंह चढ़कर बोलती है और उन्हें बस मधुशाला  में लिखा यह छंद याद रहता है -

पाप अगर पीना समदोषी, तो तीनों साकी- बाला
नित्य पिलाने वाला प्याला, पी जानेवाली हाला
साथ इन्हें भी ले चल मेरे, न्याय यही बतलाता है
कैद जहां मैं हूं की जाए, कैद वहीं पर मधुशाला.

अब, जबकि कोरोना संकट ने समूचे विश्व को आशंकाओं के घेरे में डाल दिया है. 'पता नहीं, क्या होने वाला है' के अज्ञात भय ने सुराप्रेमियों की लोकलाज का तो हरण कर ही लिया है साथ ही साथ सरकारों के पोत भी उघाड़ दिए हैं. शराब की बिक्री से अपने खजाने भरने वाली सरकारें शराबी से कम कहां है,जिसे पीने की इस कदर तलब रहती है कि पूछो मत ! लॉकडाउन खुलने की जितनी उत्कंठा शराबियों को नहीं होगी उससे कहीं अधिक प्रदेश की सरकारें बेताब थी कि शराब बिक्री जल्द से जल्द शुरू हो. कुछ विधायकों ने तो सरेआम बाकायदा सरकारों से शराब की बिक्री आवश्यक वस्तु की तरह करने की मांग भी कर दी थी. जब देश के विकास का आधार और गरीब की रोटी का निवाला शराब बिक्री पर टिका हो तो सरकार को  उदार मन से शराब के लिए नए कानून बनाने की ओर सोचना चाहिए. नए कानून में यदि शराब की बिक्री सुलभ कर दी जाए तो सुरापान करने वाले छोटे-बड़े सभी लोगों को भारी राहत मिलेगी. भले ही सूफी लोगों को थोड़ी बहुत परेशानी हो. पर बड़े एक बड़े वर्ग को राहत देने के लिए इतना तो चलता है.  और हां, सरकार का खजाना तो हर व्यवस्था में निरंतर बढ़ता ही रहेगा, क्योंकि देश में पीने पिलाने वालों की कमी कहां है !

                                                                 -रूंख

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