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Thursday 18 June 2020

सामाजिक अंतर्द्वंद्व के खिलाफ जारी है जंग !

सामाजिक अंतर्द्वंद के खिलाफ जारी है जंग !

(रेडियो नाटक कृति) --दीनदयाल शर्मा
समीक्षा-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

नाटक साहित्य की एक अनूठी विधा है जिसमें संवाद शैली के साथ श्रव्य और दृश्य दोनों विद्यमान रहते हैं. इस विधा की लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि दर्शक बड़ी जल्दी खुद को नाटक के पात्रों से जुड़ा हुआ महसूस करता है. जहां तक रेडियो नाटकों की बात है, यह रंगमंच से थोड़ा भिन्न है. इस विधा में नाटक के प्रस्तोता को केवल श्रव्य माध्यम से दृश्य रचने पड़ते हैं. नाटककार के समक्ष यह चुनौती होती है कि वह श्रवण माध्यम से ही दर्शकों के समक्ष पूरा दृश्य प्रस्तुत करे. शायद यही कारण है कि अतिरिक्त ऊर्जा और गहन चिंतन की मांग रखने वाली इस साहित्यिक विधा पर अपेक्षाकृत कम रचनाकारों ने काम किया है.

बाल साहित्य के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले वरिष्ठ रचनाकार दीनदयाल शर्मा लंबे समय से रेडियो नाटक विधा पर गंभीरता से काम कर रहे हैं. 2017 में प्रकाशित उनकी रेडियो नाटक कृति 'जंग जारी है' में शामिल सभी नाटक उनकी साहित्यिक पकड़ और समर्पित रचनाकर्म की साख भरते हैं. इस पुस्तक में सम्मिलित नाटकों में दृश्य और श्रव्य तत्वों को बेहद शानदार ढंग से गूंथा गया है. इसी खूबी के चलते इन नाटकों का आकाशवाणी से मंचन भी हो चुका है जिसे श्रोताओं की भरपूर सराहना मिली है.

दीनदयाल शर्मा द्वारा लिखे गए इन रेडियो नाटकों में मानवीय संबंधों का बड़ी सूक्ष्मता से विवेचन किया गया है. संकलन का प्रत्येक नाटक मानवीय स्वभाव और वैचारिक भिन्नता को प्रगट करता हुआ आगे बढ़ता है. रिश्तों की बारीकियों को शब्दों में पिरोना कठिन कार्य है. संवाद शैली में तो यह कठिनता और बढ़ जाती है क्योंकि पाठक, दर्शक और श्रोता नाटक के संवादों में वास्तविक जिंदगी को तलाशने लगते हैं. संकलन का पहला नाटक 'घर की रोशनी' समाज में लड़कियों के प्रति विभेदकारी मानसिकता को उजागर करता है. इस नाटक में नाटककार बड़े ही रोचक ढंग से संवादों को बढ़ाते हुए ऐसी सामाजिक मानसिकता को बदलने में कामयाब हो जाता है.

इसी प्रकार समाज में बुजुर्गों की दशा को चित्रित करता नाटक 'रिश्तों का मोल' लिखा गया है जहां आधुनिकता में रंगे हुए बेटे बहू अपने जन्मदाताओं के साथ बुरा बर्ताव करते हैं. इस नाटक में रामदेई नामक सास का पात्र हमारे आसपास बखूबी देखा जा सकता है. एक रेडियो नाटककार की सफलता यही है कि श्रोताओं को उसके पात्र काल्पनिक न लगें.

'पगली' इस संकलन का सुप्रसिद्ध नाटक है जिसके रेडियो मंचन को बेहद सराहा गया है. इस नाटक में स्त्री की दुर्दशा का बखूबी चित्रण किया गया है. सौतेली मां के दुर्व्यवहार से एक अच्छी भली लड़की अंततः पागलपन का शिकार हो जाती है. अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ एक छोटी बच्ची का विवाह कितना भयावह परिणाम देता है, यह इस नाटक से उजागर होता है. पाठक हो या श्रोता, इस नाटक के साथ बहते चले जाते हैं. दीनदयाल शर्मा की खूबी है कि वह आसपास के सामाजिक परिदृश्य को अपने संवादों में पूरी गंभीरता से उभारते हैं. 'अंधेरे की तस्वीर' नाटक में उनके द्वारा एचआईवी एड्स के खतरे को प्रस्तुत किया गया है. अत्यंत संवेदनशील विषय पर लिखा गया यह यह नाटक पाठकों पर अपनी विशिष्ट छाप छोड़ता है.

समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि बोधि प्रकाशन से प्रकाशित रेडियो नाटक कृति 'जंग जारी है' समकालीन साहित्यिक रचनाओं में विशिष्ट शैली के कारण अलग मुकाम रखती है. कविता और कहानी के दौर में दीनदयाल शर्मा अपने रेडियो नाटकों से श्रोताओं को बांधने में सफल हुए हैं. यह सफलता उनके रचनाकर्म के दायित्व को और बढ़ा देती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि पाठकों को और बेहतर कसावट के साथ नए रेडियो नाटक पढ़ने और सुनने को मिलेंगे.

Friday 12 June 2020

देखो देखो देखो, बाइस्कोप देखो !

पगडंडियों के दिन (11)

'ई है मुम्बई नगरिया, तू देख बबुआ/सोने चांदी की नगरिया, तू देख बबुआ...' ये गाना जब कानों में पड़ता तो गली मोहल्ले के बच्चे दौड़कर बाहर आ जाते. उनके पीछे मां और दादियों को तो आना ही पड़ता.

जी हां ! बाइस्कोप. यानी गुजरे जमाने का सिनेमा. अब सिनेमाघर तो चल कर सब जगह जा नहीं सकता लेकिन बाइस्कोप के क्या कहने ! वो तो गली मोहल्लों से होता हुआ बच्चों के सपनों तक पहुंचने का दम रखता था. जरा इसकी प्रसिद्धि का अंदाजा तो लगाइए. लकड़ी का रंगीन बक्सा सिर पर उठाए बाइस्कोप वाला जब गली में प्रवेश करता तो एक हलचल सी मच जाती. घरों के दरवाजे खुलने लगते और मोहल्ले में नीम के पेड़ के नीचे देखते ही देखते छोटे-मोटे सिनेमाघर सा माहौल बन जाता. 'देखो, देखो बाइस्कोप देखो/ तीन फुट का धोबी देखो/बारह मन की धोबन देखो' गुनगुनाता हुआ बाइस्कोप वाला आवाजेंं देता.

बाइस्कोप वाले अक्सर यूपी और बिहार से आया करते थे जो तीज, त्योहार और मेलों में घूम कर अपनी आजीविका कमाते थे. ऑफ सीजन में ये लोग कमाने के लिए गांवों और कस्बों की गलियों में पहुंच जाते. मोहल्ले में आकर बाइस्कोप वाला खुली जगह पर लकड़ी की बंद पेटी को तिपाई वाले स्टैंड पर टिका देता. उसके बाद पेटी के ऊपर लगे छोटे स्पीकर से फिल्म 'दुश्मन' का गीत शुरू हो जाता -

'दिल्ली का कुतुब मीनार देखो
मुंबई शहर की बहार देखो
ये आगरे का है ताजमहल
घर बैठे सारा संसार देखो
पईसा फेंको, तमाशा देखो...'


मुंबई फिल्म जगत की सुपरस्टार जोड़ी राजेश खन्ना और मुमताज पर फिल्माए गए इस गीत को सुनने के बाद बच्चों में बाइस्कोप देखने की होड़ लग जाती. इस सिनेमा की टिकट बहुत सस्ती थी. मात्र 15 पैसे ! बाइस्कोप वाला जानता था कि खुल्ले पैसों के चक्कर में दादी सौदेबाजी करेगी. फिर एक रूपये में सात बच्चों के साथ बहू को भी बाइस्कोप दिखा देगी. लेकिन उसके पास हामी भरने के अलावा कोई चारा नहीं होता. वैसे भी कला, संगीत और संस्कृति से जुड़ा हुआ व्यक्ति सौदेबाजी में माहिर कहां होता है !

बाइस्कोप वाले लकड़ी के बक्से में चारों तरफ पांच-सात गोल छेद रहते जिनमें बच्चे अपनी आंखें गड़ा लेते. बाहर के प्रकाश को रोकने के लिए दोनों हाथों को आंखों और पेटी के छेद से सटा लिया जाता. अब बाइस्कोप के अंदर का शानदार नजारा दिखाई देता. बल्ब की रोशनी के बीच क़ुतुब मीनार, ताज महल लाल किला, इंडिया गेट और न जाने कौन-कौन से चित्र दिखाई देते. बाइस्कोप के ऊपर बज रहा संगीत और देखी जा रही तस्वीरें एक साथ ऐसा दृश्य प्रस्तुत करती मानो फिल्म चल रही हो. बीच-बीच में उन दिनों के चर्चित कलाकारों के चित्र और फिल्मी दृश्य भी दिखाए जाते. इसे चलाने के लिए बाइस्कोप वाला पेटी के ऊपर लगी एक चकरी को हाथ से घूमाता रहता. लगभग तीन-चार मिनट की फिल्म कब पूरी हो जाती, पता ही नहीं चलता. बाइस्कोप से आंखें हटते ही एक बार तो चुंधिया जाती परन्तु सुखद अंधेरे से जीवंत प्रकाश की ओर लौटने का यह सुहाना सफर कई दिनों तक दिलो-दिमाग पर छाया रहता.

आज जब एक क्लिक के साथ ही अमेज़न प्राइम और नेटफ्लिक्स जैसी कंपनियां चंद मिनटों में तीन घंटे की पूरी फिल्म आपके मोबाइल की स्क्रीन पर उपलब्ध करवा देती हैं तो बीते जमाने के बाइस्कोप की क्या बिसात ! हां इतना जरूर है कि अब फिल्म देखते समय वो तन्मयता नहीं आती जो बाइस्कोप के चार इंच वाले गोल घेरे में स्थिर चित्रों को देखते हुए आती थी. आखिर आगे बढ़ने की कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ती है.

-रूंख


Monday 8 June 2020

विद्युत बिलों में राहत दे सरकार

(जनहित का मुद्दा)

भारतीय किसान सभा ने विद्युत बिलों में राहत देने का गंभीर मुद्दा उठाकर प्रदेश की जनता का ध्यान आकृष्ट किया है. सभा के कार्यकर्ताओं द्वारा प्रदेश भर में धरना प्रदर्शन आयोजित किए गए हैं और घरेलू व कृषि विद्युत बिलों को माफ किए जाने की मांग को लेकर सरकार को ज्ञापन सौंपे गए हैं. प्रत्यक्ष रूप से आम आदमी को प्रभावित करने वाला यह गंभीर मुद्दा कोरोना संकटकाल में राहत पहुंचाने की दिशा में अहम भूमिका निभा सकता है लेकिन विडंबना यह है कि जनहित के इस मुद्दे पर सत्ता और विपक्ष के नेताओं की जुबान पर ताले पड़े हुए हैं. प्रदेश से लेकर स्थानीय स्तर तक कांग्रेस और भाजपा के किसी भी जनप्रतिनिधि या अन्य नेताओं ने बिजली के बिलों ने राहत देने की मांग नहीं उठाई है. नेताओं का यह दोहरा चरित्र जनता की नजरों से छिपा हुआ नहीं है.

कोरोना संकट में आम आदमी पर विद्युत बिलों के रूप में दोहरी मार पड़ी है. एक ओर जहां लॉक डाउन के चलते ढाई माह से लोग घरों में बंद थे वहीं दूसरी ओर दुकानदारी और काम धंधे चौपट होने के कारण रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है. ऐसे में निम्न और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए तो बिजली का बिल भरना गंभीर समस्या बन गया है. हालांकि सरकार ने इन बिलों की भुगतान की समयावधि बढ़ाने की घोषणा की है लेकिन संकट की गंभीरता को देखते हुए यह राहत कुछ भी नहीं है. ढाई माह से घर बैठे लोगों के पास राशन लाने के पैसे नहीं है ऐसे में विद्युत बिलों का भुगतान कैसे करें ? ऊपर से सरकार ने 31मई के बाद होने वाले बिलों के भुगतान पर 2% अधिभार लगाने की घोषणा कर इस संकट को और बढ़ा दिया है.

प्रदेश में आम आदमी की खस्ता हालत को देखते हुए कांग्रेस सरकार का यह नैतिक दायित्व है कि इन परिस्थितियों में वह यथासंभव जनता की मदद करे. लॉकडाउन अवधि के घरेलू विद्युत बिलों को यदि माफ किया जाता है तो यह सरकार कि बहुत बड़ा कदम होगा जिससे समाज के हर वर्ग को बिना किसी भेदभाव के राहत मिल सकेगी.

यहां उल्लेखनीय है कि कोरोना संकटकाल में प्रदेश सरकार द्वारा निम्नवर्ग के लिए तो अनेक प्रकार की राहत उपलब्ध करवाई गई हैं वहीं मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए किसी प्रकार की सरकारी मदद नहीं है. उन्हें कोरोना संकट की घड़ी में जूझने के लिए खुद के हाल पर इस ढंग से छोड़ दिया गया है मानो कि वे करोड़पति हों. जबकि वास्तविकता यह है कि इन परिवारों में निरंतर बढ़ रही आर्थिक परेशानियों के चलते अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो गई है. ऐसी स्थिति मे संकट से जूझते इन परिवारों को यदि विद्युत बिलों में राहत मिले तो वह संजीवनी के समान होगा. कमोबेश यही हालत प्रदेश के किसान की है. उसके कृषि कनेक्शनों के बिलों में भी राहत दिया जाना बेहद जरूरी है.

इससे पहले की लोग इस मांग को लेकर सड़कों पर उतरें, सरकार को गंभीरता दिखाते हुए इस मामले पर तुरंत जनकल्याणकारी निर्णय लेना चाहिए.

डॉ.हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

Thursday 4 June 2020

बारात आ गई क्या !

पगडंडियों के दिन (10)

बारात आ गई क्या ! शादी-विवाह के दिनों में यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण हुआ करता था लेकिन बदले हुए वक्त में इसकी रंगत भी धूमिल पड़ चुकी है. देहात की बात छोड़ दें तो शहरीकरण के दौर में अब घर के सदस्यों और गिने-चुने परिजनों के अलावा किसी को उत्सुकता नहीं होती कि बारात आई या नहीं. कभी-कभी तो हालत यह होती है कि घोड़ी पर चढ़ा दूल्हा बेचारा पीछे मुड़कर देखता है तो घर परिवार के पांच दस लोगों के अलावा वहां कोई नहीं होता. कमबख्त सारे बाराती उससे पहले ही विवाह स्थल पर पहुंचकर दावतें उड़ाने में जुटे रहते हैं. मैरिज पैलेस संस्कृति ने बारात स्वागत और आवभगत के मायने ही बदल दिए हैं. अब घराती और बाराती में फर्क मिट चुका है. बाजारवाद के चलते हालात यहां तक बदल चुके हैं कि बारात स्वागतकर्ताओं का स्थान भी वेलकम गर्ल्स ने ले लिया है.

एक वक्त था जब पूरे गली, मोहल्ले और विवाह में आए सभी मेहमानों की दिलचस्पी बारात आगमन में रहती थी. नाचते झूमते बारातियों की रौनक से गली ही नहीं, पूरा शहर झूम उठता था. बारात पहुंचने से पहले क्या मजाल, कि खाना शुरू हो जाए. पुराने संस्कारी लोग तो लड़की के विवाह में बान देने अवश्य जाते थे लेकिन वहां खाना नहीं खाते थे. उन दिनों लड़कियों को सांझी विरासत माना जाता था और बारात का स्वागत पूरे नगर का दायित्व. लेकिन परंपराओं और संस्कारों में बदलाव की बयार ने सब अस्त-व्यस्त कर दिया है.

70 - 80 के दशक में मध्यमवर्गीय परिवारों की शादियों को याद कीजिए. विवाह प्रबंधन की पूरी जिम्मेदारी घर परिवार और मित्र बंधु ही मिलकर उठाया करते थे. उन दिनों मैरिज पैलेस और इवेंट मैनेजमेंट कंपनीज तो थी नहीं, लिहाजा बारातों को स्कूल, धर्मशाला या किसी मंदिर में बने भवनों में ही ठहराया जाता था. गली में ही शामियाना लगाकर बारात स्वागत की सभी रस्में निभाई जाती थी. इस खातिरदारी में परिवार के मित्र, बंधु और मोहल्ले के लोग ही मिलजुल कर काम किया करते थे.

विवाह से लगभग 10 दिन पहले फर्रियां बनाने का काम शुरु होता. रंगीन कागज की तिकोनी फर्रियां बहुत खूबसूरत होती थी. बाजार में कटिंग की हुई फर्रियां मिलती थी जिन्हें लेई लगाकर मजबूत सूतली पर थोड़ी थोड़ी दूरी पर चिपका दिया जाता. फर्री बनाने का काम किसी अनुभवी की देखरेख में मोहल्ले के लड़के ही किया करते. शादी वाले घर और गली को फर्रियों को से सजा दिया जाता. फर्रियां संकेत चिन्ह थी कि यहां कोई मांगलिक उत्सव होने वाला है. आप कहेंगे विद्युत बल्ब की लड़ियां फिर कब लगती थी ! लड़ियों की सजावट तो शादी से एक या दो दिन पहले की जाती थी. विद्युत सजावट का यह खर्चा उठाना सबके वश की बात भी नहीं थी उन दिनों !

विवाह में टेंट से सामान लाना भी बड़ा काम होता था. इसके लिए गृह स्वामी द्वारा बाकायदा मोहल्ले के अनुभवी आदमी की ड्यूटी लगाई जाती जो मेरे जैसे दो तीन नौसिखिए लड़कों के साथ टेंट हाउस से सामान गिनवाकर लाता. विवाहोपरांत इस सामान को वापिस भेजने में ज्यादा परेशानी होती. बर्तनों को गिनने में दो-चार गिलास, कटोरी, प्लेट या जग का कम होना स्वाभाविक सी बात थी लेकिन उन्हें ढूंढने में खासा मशक्कत करनी पड़ती. यदि एक आध कुर्सी और गद्दे घट जाते तो गृह स्वामी द्वारा सेवादारों की खिंचाई भी कर दी जाती जिसका कोई बुरा माने तो मानता रहे. कई बार बर्तन और गद्दे मंदिरों और गुरुद्वारों से भी लाए जाते थे. यह चलन तो अभी भी कई जगह देखने को मिलता है.

बारात के खाने के लिए शामियाना लगाकर उसे सुसज्जित करने की जिम्मेदारी गली के लड़कों की ही होती. शामियाने के आगे लंबी गैलरी और प्रवेश द्वार बनाया जाता जिसकी विशेष सजावट की जाती थी. लकड़ी के बुरादे को अलग-अलग रंगों में भिगोकर एक मिश्रण तैयार किया जाता जो देखने में बड़ा शानदार होता. पारंपरिक चित्रकला शैली के जानकार उस बुरादे से प्रवेश द्वार और शामियाने तक जाने वाली गैलरी के भीतर रंगोली कला से ऐसी साज सज्जा करते कि बाराती भी प्रवेश करने से पहले उसका अवलोकन करते. खुले मन से सजावट करने वाले कलाकारों की भरपूर सराहना होती.

वेटर्स का चलन उन दिनों न के बराबर था. टेंट के भीतर झाड़ू लगाने से लेकर मेजपोश बिछाने तक का काम मित्र-बंधुओं द्वारा ही किया जाता था. सब्जियां लाने, सलाद काटने और प्लेटो में सजाने का काम भी गली के लड़के ही किया करते थे. यदि हलवाई आदेश करता तो दाल भी पिसवा कर लानी पड़ती. चूंकि खाने में उस समय तक बुफे सिस्टम नहीं आया था इसलिए बारातियों को कुर्सी मेजों पर बिठाकर ही पूरी मान मनुहार के साथ खाना खिलाया जाता था. खाना परोसने का काम भी मोहल्ले के जिम्मेदार लड़के और घर के रिश्तेदार ही किया करते थे. क्या मजाल आवभगत में कोई कमी रह जाए. दूल्हे और उसके दोस्तों के लिए अलग से टेबल लगाकर खास व्यवस्था होती थी जिसकी देखरेख स्वागत दल के विशेष लोग करते थे. आज यह स्थान वेटर्स के हेड द्वारा हड़प लिया गया है जो टिप के इंतजार में औपचारिकता को पहने रखता है.

आजकल तो विवाह समारोह शाम को शुरू होकर आधी रात तक निपट जाता है जबकि उस दौर में अगले दिन सुबह तक की खातिरदारी करवाने के बाद ही बारातें रवाना होती थी. स्वागत और सत्कार की परंपराएं विलुप्त होने से आज हम खुद को खाली सा महसूस करते हैं. मशीनी युग ने हमारी संवेदनाओं को औपचारिकताओं में बदल कर रख दिया है जिसका कोई समाधान नहीं है. गुजरे हुए वक्त को लाया नहीं जा सकता सिर्फ यादों में गुनगुनाया जा सकता है.
-रूंख

Wednesday 3 June 2020

राजेश के बिना नहीं हो सकता पोस्टमार्टम

मानस के राजहंस (2)

नियति कभी-कभी कुछ ऐसे काम सौंपती है जिसे करने के लिए जल्दी से कोई हामी नहीं भरता. लेकिन सामान्य से दिखने वाले ये काम इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि इन के न होने से एक बार तो सारी व्यवस्थाएं और सारे काम अटक जाते हैं.

 ऐसा ही एक महत्वपूर्ण काम राजेश वाल्मीकि कर रहे हैं. जी हां, राजेश राजकीय चिकित्सालय, सूरतगढ़ में पिछले 15 सालों से पोस्टमार्टम के समय डॉक्टरों के निर्देशानुसार लाशों की चीरा-फाड़ी का काम करते हैं. यदि राजेश नहीं है तो चिकित्सालय में अक्सर पोस्टमार्टम का काम अटक ही जाता है.

मोर्चरी में जब भी दुर्घटना या अकाल मृत्यु होने पर लाश पहुंचती है तो स्वाभाविक है परिजनों सहित अन्य लोगों की भी वहां भीड़ एकत्रित हो जाती है. दु:ख और शोक की ऐसी घड़ी में सब अपनी-अपनी संवेदनाएं व्यक्त करते हैं. कैसे हुआ, क्या हुआ, जैसे सवालों के बीच सबके चेहरों पर मौत का सन्नाटा पसरा होता है. लेकिन इन सबके बीच निर्विकार भाव से राजेश को अपना काम करना ही पड़ता है.

चूंकि कानूनन ऐसी मौतों के मामले में पोस्टमार्टम होना जरूरी है, इसलिए विधिवत मेडिकल बोर्ड बनाया जाता है जिसमें वरिष्ठ चिकित्सक शामिल रहते हैं. इन्हीं डॉक्टर्स की देखरेख में लाशों की चीरा-फाड़ी होती है. अक्सर यह काम चिकित्सालय के वरिष्ठ सफाईकर्मियों द्वारा किया जाता है.

राजेश लंबे समय से मोर्चरी में काम कर रहे हैं. वे कहते हैं मेरे मन में भी मृतकों के परिजनों के प्रति शोक संवेदनाएं उमड़ती है लेकिन उसके बावजूद मुझे अपना काम करना होता है. कभी-कभी तो मोर्चरी में 10-12 दिन पुरानी सडांध मारती सड़ी- गली लाशें भी आ जाती है. ऐसे वहां खड़ा रहना भी दूभर हो जाता है. लेकिन काम तो काम है. बहुत बार ऐसा भी होता है कि राजेश चिकित्सालय में नहीं है तो पोस्टमार्टम में देरी होना स्वाभाविक है. चूंकि उस वक्त माहौल ऐसा रहता है कि सबको पोस्टमार्टम की जल्दी लगी रहती है, ऐसे में मृतक के परिजन और अन्य लोग राजेश को देरी के लिए लताड़़ते भी हैं और उससे उलझ भी पड़ते हैं.

अब राजेश तो राजेश है, उसके सीने में भी दिल है. बकौल राजेश आदमी की लाश से चीरा-फाड़ी शुरू करने से पहले उसे भी अपने दिमाग को स्थिर करने के लिए कुछ समय तो चाहिए. आखिर वह भी आदमी है. 

राजेश हमारी दुनिया में मानस के राजहंस सरीखे हैं. संकट और शोक की घड़ी में हमें उनकी जरूरत है बस इतनी सी बात समझने की है.सेल्यूट मेरे दोस्त राजेश, लगे रहो कि यह दुनिया सुंदर बनी रहे.
-रूंख

सावधान ! पुलिस के नाम पर ब्लैकमेल करने का नया गोरखधंधा

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