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Wednesday 6 October 2021

चूल्हे को संवारने की सांस्कृतिक परंपरा है 'धौळक'


'बीनणी, धौळक दे ली के !'


घर के आंगन में जब सासूजी की आवाज गूंजती तो नई बहू को 'धौळक' याद आती और बेसाख्ता उसके मुंह से निकल जाता 'अल्लै....'


 भूल जाना हर बहू का स्वभाव है. वैवाहिक जीवन के आरंभिक काल में तो बहुएं अक्सर घर की साधारण परंपराओं को भूल जाती हैं जिससे उन्हें बहुत कुछ सुनने को मिलता है.


'धौळक' हमारी राजस्थानी संस्कृति की विरासत थी जो अब लगभग लुप्त हो चुकी है. मिट्टी वाले चूल्हों और सिगड़ी के दौर में 'धौल़क' का डिब्बा या बर्तन हर घर में हुआ करता था. इस पात्र में सफेद चिकनी मिट्टी का घोल रहता था जो धौळक कहलाती थी. इसी घोल में डूबे हुए एक कपड़े से चूल्हे को पोता जाता था. चूल्हे की बाहरी और भीतरी दीवारों के साथ-साथ उसके आसपास भी धौळक दी जाती थी.

धौळक सूखने के बाद उसकी आभा देखने लायक होती. धुएं से काले हुए चूल्हे को धौळक से नया रूप मिल जाता और रसोई साफ सुथरी दिखने लगती. सफेद मिट्टी से पुते चूल्हे के पिछले भाग में पड़ी लोहे की काली फूंकणी और चिमटे की खूबसूरती बढ़ जाती. यही धौळक धुएं से काली पड़ी मिट्टी की हांडियों और पीतल की देगचियों के तले पर पोत दी जाती. इससे रसोई में बर्तनों की शोभा की दुगनी हो जाती. जिन घरों में कोयले वाली 
बोरसी या सिगड़ी का प्रयोग होता था वहां सिगड़ी को भी धौळक देने का रिवाज था.

पगडंडियों के दिनों में धौळक रसोई की नित्य साफ-सफाई का एक जरूरी संस्कार था. बिना धौळक दिए चूल्हे पर रोटी बनाने वाली महिला को फूहड़ माना जाता था. घर की बुजुर्ग महिलाएं यह संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी बहुओं को सौंपती थी. रसोई और चूल्हे को साफ-स्वच्छ रखने की सीख राजस्थानी संस्कृति की विरासत है.

आज जब गैस और बिजली के ऑटोमेटेड इंडक्शन चूल्हे उपयोग में लाए जा रहे हैं तो धौळक बीते दिनों की दास्तान हो चुकी है. फिर भी कभी कभार गांव देहात में जब कभी चूल्हे पर सिकी रोटियों की खुशबू महकती है तो अनायास ही स्मृतियों के आंगन में धौळक पुता चूल्हा उदासी की मुस्कुराहट बिखेरता उभर ही जाता है.

-रूंख

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