कीर्तिगान
दोराहे पर खड़े देश में
विषधर के वेश मे
जहां सत्ता की
दो मुंही जीभ
लपलपाती हो
दलों का दलदल
प्रजा को निगलने
उगलने पर उतारू हो.
धर्म राग की घंटध्वनि से
मनुष्यों को जहरामृत
बांटा जा रहा हो
अपनी जमात के हाजरियों को
उनकी जमात के नाजरियों से
छांटा जा रहा हो.
जहां हांफता हुआ जन-गण
सिर गिनाने की होड़ में
धड़ के सहारे
कोसों पसरी भीड़ में खड़ा हो
और इसी बीच
उसकी थाली से
गायब हुआ आलू-प्याज
राजपथ पर बिछा पड़ा हो.
जहां धर्मोन्माद के
सिंहासन नीचे दबे हों
रामले भाम्बी सरीखे
निरपराध बुद्ध
जहां फरूकती ध्वजाएं
हर घड़ी घोषित कर रही हों
अघोषित युद्ध.
जहां बेरोजगारी का दंश झेलते
नौजवानों को
छप्पन इंची सीना
न होने का मलाल हो
परीक्षा के चक्रव्यूह में फंसे
युवाओं के पास
दूषित व्यवस्था के प्रति
सवाल ही सवाल हो.
जहां विश्वविद्यालयों में
डंडे बजाती पुलिस
आंसूओं को गोलों में लपेट
सबक फेंक रही हो
गुटों में सुलगती युवाशक्ति पर
राजनीति अपनी रोटियां सेंक रही हो.
जहां ओस की बूंदों सी चहकती
मासूम बेटियों के पर
सरेराह भेडिये कुतर गए हों
अपराधियों के मन से
दंड के भय उतर गए हों.
जहां वर्षों से तख्ते पर पड़ा
फांसी का फंदा
रोज खुद को टांगता हो
और न्याय
कटघरे में खड़ा होकर
खुद न्याय मांगता हो.
जहां सत्ता ने मीडिया को
शब्दों के तय एजेंडे के साथ
अभिव्यक्ति की आजादी सौंप दी हो
और बिकाऊ मीडिया ने
समय को सिक्कों में बेचकर
जनता की पीठ में
छुरी घोंप दी हो.
जहां खेतों का पानी
आंखों से लहू बनकर बहे
और अन्नदाता
खुद अपने कंठ मोसता हो
दिहाड़ी की आस में
तगारी सिर उठाए
भूखा प्यासा कामगर
जिंदगी को कोसता हो.
ऐसे में
मेरी कविता
कैसे गा सकती है
प्रशस्ति गान
कैसे कर सकती है
किसी प्रेमिका के अधरों का पान
कैसे ढो सकती है
सत्ता के पुरस्कारों का बोझ
कैसे खिलखिला सकती है
कवि सम्मेलनों के
मसनद सजे मंचों पे रोज.
कैसे कर सकती है
अकादमियों की
दीमक चाटती
पोथियों का अनुवाद
कैसे कर सकती है
नपुंसक बन
सत्ता सुख भोगते
लिक्खाड़ों से संवाद.
नहीं, नहीं, नहीं,
ऐसा होने से पहले
मेरी कविता को
चिरनिद्रा में सोना है
या फिर
त्रस्त जियाजूण से जूझते
जन के पक्ष में
सड़क पर खड़े होना है.
उसे हर घड़ी
इंकलाबी सैलाब के साथ
देश को कांधे पर ढोना है
मेरी कविता जानती है
बेखौफ शब्दों के समक्ष
राजमद में बहका हुआ
हर राजा बौना है.
मुझे पता है
व्यवस्था के खिलाफ मुखर होते
संघर्ष के इस समरांगण में
मेरे शब्दों को
लड़ते हुए खेत होना है
कविता हो या जीवन
अंततः सबको रेत होना है.
दोराहे पर खड़े देश में
विषधर के वेश मे
जहां सत्ता की
दो मुंही जीभ
लपलपाती हो
दलों का दलदल
प्रजा को निगलने
उगलने पर उतारू हो.
धर्म राग की घंटध्वनि से
मनुष्यों को जहरामृत
बांटा जा रहा हो
अपनी जमात के हाजरियों को
उनकी जमात के नाजरियों से
छांटा जा रहा हो.
जहां हांफता हुआ जन-गण
सिर गिनाने की होड़ में
धड़ के सहारे
कोसों पसरी भीड़ में खड़ा हो
और इसी बीच
उसकी थाली से
गायब हुआ आलू-प्याज
राजपथ पर बिछा पड़ा हो.
जहां धर्मोन्माद के
सिंहासन नीचे दबे हों
रामले भाम्बी सरीखे
निरपराध बुद्ध
जहां फरूकती ध्वजाएं
हर घड़ी घोषित कर रही हों
अघोषित युद्ध.
जहां बेरोजगारी का दंश झेलते
नौजवानों को
छप्पन इंची सीना
न होने का मलाल हो
परीक्षा के चक्रव्यूह में फंसे
युवाओं के पास
दूषित व्यवस्था के प्रति
सवाल ही सवाल हो.
जहां विश्वविद्यालयों में
डंडे बजाती पुलिस
आंसूओं को गोलों में लपेट
सबक फेंक रही हो
गुटों में सुलगती युवाशक्ति पर
राजनीति अपनी रोटियां सेंक रही हो.
जहां ओस की बूंदों सी चहकती
मासूम बेटियों के पर
सरेराह भेडिये कुतर गए हों
अपराधियों के मन से
दंड के भय उतर गए हों.
जहां वर्षों से तख्ते पर पड़ा
फांसी का फंदा
रोज खुद को टांगता हो
और न्याय
कटघरे में खड़ा होकर
खुद न्याय मांगता हो.
जहां सत्ता ने मीडिया को
शब्दों के तय एजेंडे के साथ
अभिव्यक्ति की आजादी सौंप दी हो
और बिकाऊ मीडिया ने
समय को सिक्कों में बेचकर
जनता की पीठ में
छुरी घोंप दी हो.
जहां खेतों का पानी
आंखों से लहू बनकर बहे
और अन्नदाता
खुद अपने कंठ मोसता हो
दिहाड़ी की आस में
तगारी सिर उठाए
भूखा प्यासा कामगर
जिंदगी को कोसता हो.
ऐसे में
मेरी कविता
कैसे गा सकती है
प्रशस्ति गान
कैसे कर सकती है
किसी प्रेमिका के अधरों का पान
कैसे ढो सकती है
सत्ता के पुरस्कारों का बोझ
कैसे खिलखिला सकती है
कवि सम्मेलनों के
मसनद सजे मंचों पे रोज.
कैसे कर सकती है
अकादमियों की
दीमक चाटती
पोथियों का अनुवाद
कैसे कर सकती है
नपुंसक बन
सत्ता सुख भोगते
लिक्खाड़ों से संवाद.
नहीं, नहीं, नहीं,
ऐसा होने से पहले
मेरी कविता को
चिरनिद्रा में सोना है
या फिर
त्रस्त जियाजूण से जूझते
जन के पक्ष में
सड़क पर खड़े होना है.
उसे हर घड़ी
इंकलाबी सैलाब के साथ
देश को कांधे पर ढोना है
मेरी कविता जानती है
बेखौफ शब्दों के समक्ष
राजमद में बहका हुआ
हर राजा बौना है.
मुझे पता है
व्यवस्था के खिलाफ मुखर होते
संघर्ष के इस समरांगण में
मेरे शब्दों को
लड़ते हुए खेत होना है
कविता हो या जीवन
अंततः सबको रेत होना है.
-रूंख
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