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शहतूत मेरे दोस्त !

 


पगडंडियों के दिन (1) - रूंख भायला

चलो 'रूंख भायला' की पहचान का एक सिरा पकड़ने की कोशिश करते हैं.

... 1980 के आसपास का समय रहा होगा. रेलवे मेडिकल कॉलोनी, हनुमानगढ़ जंक्शन में एक पेड़ हुआ करता था शहतूत का. रेलवे में ड्राईवर गुलाम नबी जी कादरी इस मोहल्ले में रहते थे. उनके क्वार्टर के पिछवाड़े में लगे इस दरख्त में क्या खूब काले-काले शहतूत लगते थे. तीसरी कक्षा में रहा होऊंगा, जब उसे पहली बार देखा था. उन दिनों ढब्बू स्कूल में पढ़ता था तब एक सहपाठी के घर गया था. उसने बड़े गर्व से अपने मोहल्ले का वह पेड़ दिखाया था और वहीं नीचे गिरे हुए मीठे शहतूत खिलाए थे. शायद वही दिन रहा होगा जब पहली बार मुझे 'रूंख भायला' होने का अहसास हुआ. बाल मन ने जब पेड़ पर लगे शहतूत देखे तो ललचाया. काश, मेरा घर भी इसी शहतूत के पास होता. पर मैं तो इस पेड़ से लगभग 3 किलोमीटर दूर लोको कॉलोनी में रहता था जो गांधीनगर से सटी हुई थी.

लोको काॅलोनी


सच पूछिए तो लोको के बाशिंदे उन दिनों मेडिकल कॉलोनी के सामने दोयम दर्जे के गिने जाते थे. इसका भी सीधा कारण था कि लोको में ज्यादातर फिटर, खलासी, फायरमैन और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के क्वार्टर्स थे जबकि मेडिकल कॉलोनी में ड्राइवर, टीटी,गार्ड्स और अन्य उच्चाधिकारियों का निवास था. लोको कॉलोनी में सुबह और शाम गलियों का नजारा देखने लायक होता था जब हर घर के आगे सिगड़ियों का धुआं उठता था. सर्द मौसम की शाम में सीगड़ियों से उठती लपटें गलियों की खूबसूरती बढ़ा देती . सबकी अपनी-अपनी आग थी, कोयला था, पानी था. उन दिनों रेलवे इंजन कोयले से चला करते थे और रेलवे के कोयले पर रेलवे से पहले लोको कॉलोनी का हक हुआ करता था. लोको शेड में बने 'डग' से कॉलोनी के लोग कट्टे भर-भर कर कोयला घर लाया करते थे. आरपीएफ और जीआरपी थानों की नजर में रेलवे कर्मियों द्वारा ले जाया जा रहा यह कोयला चोरी की श्रेणी में ही नहीं आता था. रेलवे के थाने, रेलवे का कोयला और रेलवे के लोग, भला चोरी कहां हुई !

गांधीनगर में सिंधियों के घर थे जिनकी औरतें चावलों के खीचिये बनाया करती थी. उस समय एक पीपे कोयले से आधा किलो खीचियेे खरीदे जा सकते थे जिनकी होम डिलीवरी सिंधी परिवारों की महिलाएं कॉलोनी में खुद आकर कर दिया करती थी. कालोनी की औरतें अक्सर एक घर के आगे जमा होकर या तो सब्जी काटती हुई दिखती या कभी स्वेटर बुनती हुई. गलियों में लगे सार्वजनिक नल पर सुबह शाम बाल्टियों के साथ बातों के जमावड़े लगे रहते. हर घर की अपनी दास्तान, हर गली का अपना ठसका. इन सबके बीच चौबीसों घंटे ड्यूटी पर आने जाने वाले चाचाजी और ताऊजी अक्सर गली में टिफिन और बैग उठाए दिख जाते. उन दिनों के लोको में 'अंकल और आंटी सरीखे रिश्ते कम ही हुआ करते थे.

... छठी कक्षा आते-आते संयोग कुछ ऐसा हुआ कि मैं उस शहतूत के पेड़ का पड़ोसी बन बैठा. पिताजी का ड्राइवर पद पर प्रमोशन हो गया था और शायद भगवान ने भी मेरी प्रार्थना सुन ली थी. तभी तो शहतूत के पास वाला क्वार्टर हमें अलॉट हो गया था. अब मैं भी कुछ अकड़ने लगा था. शहतूत जो मेरे पास था. मौसम आते ही पेड़ फिर से शहतूतों से लकदक हो गया था. इस बार पेड़ ने अपनी कुछ डालियां नये पड़ोसी के घर में भी झुका ली थी. बाल-मन एक बार फिर हर्षाया कि पेड़ ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया है. अब दिन भर पेड़ और मैं खूब बतियाते. उसकी डालियों के झुरमुट में बैठकर दोस्तों के साथ खूब शहतूत खाता. पेड़ और पड़ोसी अपने जो थे. कभी-कभी भरी दुपहरी में दूसरे मोहल्लों के बच्चे भी उस पेड़ के इर्द-गिर्द जमा हो जाते. जब वे पत्थर मार कर शहतूत तोड़ रह होते तो अक्सर एक-आध पत्थर हमारे या गुलाम नबी ताऊ जी की खिड़की पर आकर लगता. तब मम्मी या ताई जी चिल्लाते हुए पेड़ के नीचे आते और सारे बच्चों को डांट कर भगा देते लेकिन शहतूत ने कभी किसी को जाने के लिए भी नहीं कहा. उसने सभी बच्चों को बिना किसी भेदभाव के काले-काले और मीठे शहतूत देने करने की अपनी आदत कभी नहीं बदली. सच मानिए, उस पेड़ दोस्त के साथ बिताया वह समय बड़ा ही अच्छा था.

...फिर दिन बदले. बचपन और किशोरावस्था लांघकर मैं युवाओं की जमात में शामिल हो गया. मगर शहतूत का वह पेड़ अब भी मेरी हर अच्छी-बुरी बात में शरीक रहता. सड़क पर पसरी उस की घनी छांव के नीचे मैं अपने दोस्तों के साथ घंटों बतियाता रहता. शहतूत वहीं का वहीं था और मैं मंजिल दर मंजिल आगे बढ़ता गया. पिताजी रिटायर हुए और क्वार्टर छोड़ कर हम सेक्टर नंबर 12 में अपने घर में शिफ्ट हो गए. दुनियावी ji भीड़ में खोता हुआ मैं कभी-कभी उस पेड़ को देखने जाया करता था लेकिन धीरे-धीरे वह आदत भी छूट गई. अब मैं पूरी तरह से सामाजिक प्राणी बन गया था और शहतूत की स्मृतियां भी लगभग विस्मृत हो चुकी थी.

लेकिनआज लगभग 20 वर्ष बाद उसी पुराने दोस्त को देखने की इच्छा जागी है। पता नहीं क्यों ? एक डर भी है. समय की आरी आजकल बंदरों ने थामी है. क्या पता, मेरे दोस्त की गर्दन.......आओ, मेरे पेड़ दोस्त की सलामती की दुआ करें. -रूंख (डायरी के अधखुले पन्नेे -2014)

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