(हिंदी पत्रकारिता दिवस के बहाने)
कैसे कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो तालाब का पानी बदल दो
अब कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं.
नैतिक पतन के इस सार्वभौमिक दौर में हमारे शब्दकोशों में दो शब्द ऐसे नज़र आते हैं जिनकी गरिमा शायद सबसे ज्यादा गिरी है. पहला 'नेता' और दूसरा 'पत्रकार'. शासन प्रणाली की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण कहे जाने वाले इन्ही दो शब्दों के इर्द-गिर्द सत्ता की धूरी घूमती है. दोनों खुद को लोकतंत्र की चारपाई के दो पाये बताते हैं लेकिन विडंबना देखिए, दोनों के लिए आज तक कहीं कोई योग्यता निर्धारित नहीं की गई है जबकि चपरासी के पद की भी न्यूनतम योग्यता शासन द्वारा तय है. हमारे देश में नेताजी बनने के लिए सफेद कुर्ता पायजामा बहुत है तो वहीं पत्रकार के लिए एक पैन और डायरी, ज्यादा हुआ तो कैमरा फोन. और अगर आपको सोशल मीडिया पर पत्रकारिता करनी है तो सिवाय मोबाइल के कुछ भी नहीं चाहिए. कोई कंटेंट नहीं, कोई समाचार नहीं, बस किसी भी घटना को लेकर विषय विशेषज्ञ की तरह पेलना शुरू कर दीजिए. लोग उस पर भी लाइक और कमेंट करने लगेंगे. हालात ऐसे हो गए हैं कि आप कुछ भी परोसें जनता उसमें समाचारों की गंभीरता और सत्यता टटोलने लगेगी. आज का दौर देखते हुए मुझे तो हास-परिहास का कमोबेश यही परिदृश्य नजर आता है.
हिंदी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर आज हमारे शब्दकोश के इसी दूसरे शब्द, यानी पत्रकार पर बात करते हैं. 30 मई 1826 को विशुद्ध पत्रकारिता के मिशन भाव से हिंदी साप्ताहिक 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन शुरू हुआ था. यह समाचार पत्र आर्थिक संकट के कारण भले ही लंबे समय न चल पाया हो लेकिन उसके संघर्ष भरे योगदान को नकारा नहीं जा सकता. विषम परिस्थितियों के बावजूद जुगल किशोर शुक्ल ने हाथ से चलने वाली ट्रेडल मशीन पर हिंदी का यह पहला अखबार छाप कर ब्रिटिश दासता के विरुद्ध पत्रकारिता का बिगुल बजाया था. उस वक्त सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन में नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए वचनबद्ध पत्रकारिता का ऐसा प्रादुर्भाव हुआ था जिसमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे समर्पित पत्रकारों ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला कर रख दी थी. वैचारिक संप्रेषण का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम अखबार ही था जिसने भारतवर्ष के कोने कोने में आजादी की अलख जगाई थी. स्वतंत्रता आंदोलन में समर्पित पत्रकारों ने जन भावनाओं को मुखरित करने और सरकारी षडयंत्रों का भंडाफोड़ करने में अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी. यहां तक कि पत्रकारिता आंदोलन की महत्ता को देखते हुए खुद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने अखबारों में लिखना शुरु कर दिया था.
पत्रकारिता के इस गौरवपूर्ण अतीत की गाथा ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी देश को बहुत से गंभीर, विचारवान, निडर और लेखनी में ताकत रखने वाले पत्रकार दिए हैं जिन्होंने अपने समाचारों और विश्लेषण के जरिए सरकारों को आईना दिखाया है. लेकिन पिछले तीन दशकों से निरंतर पत्रकारिता के मूल्यों और स्तर में गिरावट देखी गई है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आगमन के बाद तो स्थिति और बदतर हुई है. पत्रकारिता के मूल उद्देश्यों से भटक कर अब अधिकांश पत्रकार सिर्फ बेतुकी और निर्रथक बहसों में उलझ कर रह गए हैं. उन्हें पता ही नहीं है कि देश की राजनीति उनको मोहरा बनाकर अपने हित साधने में लगी हुई है. इस काम में सरकार के पोषक पूंजीपति मीडिया जगत की हस्तियां बन कर पत्रकारों के मुंह में अपने शब्द डाल रहे हैं. राज्यसभा में जाने का लालच और अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के चलते इन पूंजीपतियों ने पत्रकारिता को गर्त में ले जाने का काम किया है. ऐसे राजनीतिक षड्यंत्रों के चलते ही आज के दौर का पत्रकार एक साथ कई खेमों में बंटा हुआ नजर आता है. राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक गुटों में बंटने के बाद उसके पास ना तो घटनाओं के विश्लेषण और चिंतन का वक्त बचा है ना ही वह इस लफड़े में पड़ना चाहता है. सच पूछिए तो पत्रकार की बजाय अब वह कथावाचक की भूमिका में आ गया है जिसे रटे रटाए शब्दों को पढ़ते हुए जनता को गुमराह करने की कोशिश करनी है. कमोबेश यह स्थिति इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में एक जैसी नजर आती है. पत्रकारिता के मूल्यों को ध्यान में रखकर लिखने वाले सच्चे पत्रकारों के लिए यह अत्यंत दु:खद स्थिति है.
पत्रकारिता में लंबे समय से काम करते हुए मुझे यह एहसास हुआ है कि इन गिने चुने पत्रकारों की बात छोड़ दें तो प्रेस की गरिमा घटाने में सबसे बड़ा योगदान खुद पत्रकारों ने दिया है. जिनका काम शासन व्यवस्था पर पैनी नजर रखने और आम आदमी की आवाज को मुखर कर सच उजागर करने का था उनमें से अधिकांश की कलम और शाब्दिक ताकत को स्वार्थ जनित राजनीति अपने चंगुल में ले चुकी है. समझौतापरक भ्रष्ट आचरण ने पीत पत्रकारिता को अपने कुकर्मों में शामिल कर लिया है जिसके चलते आज का पत्रकार समाचारों की बजाय घटनाओं को तरजीह देता है. ये कलम के जंगबाज अपने साथी पत्रकारों से पहले समाचार फेंकने की होड़ में कई बार खुद की फजीहत करवाने से भी नहीं घबराते. यह फार्मूला पत्रकारिता के स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर समान रूप से लागू होता है. पत्रकारिता का दम भरने वाले अनेक स्थानीय पत्रकार तो अपने व्यक्तिगत हित साधने के लिए पालिकाध्यक्षों और विधायकों की चापलूसी में लगे रहते हैं या फिर ब्लैकमेलिंग के इरादे से ओछी घटनाओं को समाचारों का रूप देने की कोशिश करते हैं. उन्हें घटनाओं की गंभीरता और विश्लेषण से कोई मतलब नहीं होता. जबकि पत्रकार द्वारा परोसा गया हर समाचार हमारी सामाजिक सोच को दिशा प्रदान करने में अहम भूमिका निभाता है.
फिर ऐसे दौर में पत्रकारिता कैसे बचेगी ! यह सवाल उठता तो जरूर है लेकिन प्रेस से जुड़ा हुआ कोई व्यक्ति इसका उत्तर नहीं देना चाहता. खुद की तरफ उंगली उठाना हम कहां सीख पाए हैं. प्रेस के संदर्भ में तो हम पहले ही सैद्धांतिक और आदर्शवाद की बातों से ऊब चुके हैं इसलिए उनका कोई औचित्य नहीं है.
हां, इतना जरूर है कि आज भी देश की जनता कुछ कम ही सही, लेकिन नेताओं से अधिक मीडिया पर भरोसा करती है. जिनकी कलम में ताकत है, जो विश्लेषण के साथ समाचारों को प्रस्तुत करते हैं, सामाजिक मूल्यों के प्रति अपनी संवेदना बचाए हुए हैं, सिर्फ उन्ही पत्रकारों में ही उम्मीद की एक किरण बचती है. अन्यथा पतन के इस दौर में एक बार फिर दुष्यंत को याद करते हुए कहना पड़ता है -
.... अब नई तहजीब के पेशे नज़र
हम आदमी को भूनकर खाने लगे हैं.
-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
अध्यक्ष-प्रेस क्लब, सूरतगढ़
कैसे कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो तालाब का पानी बदल दो
अब कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं.
- दुष्यंत कुमार
नैतिक पतन के इस सार्वभौमिक दौर में हमारे शब्दकोशों में दो शब्द ऐसे नज़र आते हैं जिनकी गरिमा शायद सबसे ज्यादा गिरी है. पहला 'नेता' और दूसरा 'पत्रकार'. शासन प्रणाली की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण कहे जाने वाले इन्ही दो शब्दों के इर्द-गिर्द सत्ता की धूरी घूमती है. दोनों खुद को लोकतंत्र की चारपाई के दो पाये बताते हैं लेकिन विडंबना देखिए, दोनों के लिए आज तक कहीं कोई योग्यता निर्धारित नहीं की गई है जबकि चपरासी के पद की भी न्यूनतम योग्यता शासन द्वारा तय है. हमारे देश में नेताजी बनने के लिए सफेद कुर्ता पायजामा बहुत है तो वहीं पत्रकार के लिए एक पैन और डायरी, ज्यादा हुआ तो कैमरा फोन. और अगर आपको सोशल मीडिया पर पत्रकारिता करनी है तो सिवाय मोबाइल के कुछ भी नहीं चाहिए. कोई कंटेंट नहीं, कोई समाचार नहीं, बस किसी भी घटना को लेकर विषय विशेषज्ञ की तरह पेलना शुरू कर दीजिए. लोग उस पर भी लाइक और कमेंट करने लगेंगे. हालात ऐसे हो गए हैं कि आप कुछ भी परोसें जनता उसमें समाचारों की गंभीरता और सत्यता टटोलने लगेगी. आज का दौर देखते हुए मुझे तो हास-परिहास का कमोबेश यही परिदृश्य नजर आता है.
हिंदी पत्रकारिता दिवस के अवसर पर आज हमारे शब्दकोश के इसी दूसरे शब्द, यानी पत्रकार पर बात करते हैं. 30 मई 1826 को विशुद्ध पत्रकारिता के मिशन भाव से हिंदी साप्ताहिक 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन शुरू हुआ था. यह समाचार पत्र आर्थिक संकट के कारण भले ही लंबे समय न चल पाया हो लेकिन उसके संघर्ष भरे योगदान को नकारा नहीं जा सकता. विषम परिस्थितियों के बावजूद जुगल किशोर शुक्ल ने हाथ से चलने वाली ट्रेडल मशीन पर हिंदी का यह पहला अखबार छाप कर ब्रिटिश दासता के विरुद्ध पत्रकारिता का बिगुल बजाया था. उस वक्त सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन में नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए वचनबद्ध पत्रकारिता का ऐसा प्रादुर्भाव हुआ था जिसमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे समर्पित पत्रकारों ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला कर रख दी थी. वैचारिक संप्रेषण का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम अखबार ही था जिसने भारतवर्ष के कोने कोने में आजादी की अलख जगाई थी. स्वतंत्रता आंदोलन में समर्पित पत्रकारों ने जन भावनाओं को मुखरित करने और सरकारी षडयंत्रों का भंडाफोड़ करने में अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी. यहां तक कि पत्रकारिता आंदोलन की महत्ता को देखते हुए खुद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने अखबारों में लिखना शुरु कर दिया था.
पत्रकारिता के इस गौरवपूर्ण अतीत की गाथा ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी देश को बहुत से गंभीर, विचारवान, निडर और लेखनी में ताकत रखने वाले पत्रकार दिए हैं जिन्होंने अपने समाचारों और विश्लेषण के जरिए सरकारों को आईना दिखाया है. लेकिन पिछले तीन दशकों से निरंतर पत्रकारिता के मूल्यों और स्तर में गिरावट देखी गई है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आगमन के बाद तो स्थिति और बदतर हुई है. पत्रकारिता के मूल उद्देश्यों से भटक कर अब अधिकांश पत्रकार सिर्फ बेतुकी और निर्रथक बहसों में उलझ कर रह गए हैं. उन्हें पता ही नहीं है कि देश की राजनीति उनको मोहरा बनाकर अपने हित साधने में लगी हुई है. इस काम में सरकार के पोषक पूंजीपति मीडिया जगत की हस्तियां बन कर पत्रकारों के मुंह में अपने शब्द डाल रहे हैं. राज्यसभा में जाने का लालच और अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के चलते इन पूंजीपतियों ने पत्रकारिता को गर्त में ले जाने का काम किया है. ऐसे राजनीतिक षड्यंत्रों के चलते ही आज के दौर का पत्रकार एक साथ कई खेमों में बंटा हुआ नजर आता है. राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक गुटों में बंटने के बाद उसके पास ना तो घटनाओं के विश्लेषण और चिंतन का वक्त बचा है ना ही वह इस लफड़े में पड़ना चाहता है. सच पूछिए तो पत्रकार की बजाय अब वह कथावाचक की भूमिका में आ गया है जिसे रटे रटाए शब्दों को पढ़ते हुए जनता को गुमराह करने की कोशिश करनी है. कमोबेश यह स्थिति इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में एक जैसी नजर आती है. पत्रकारिता के मूल्यों को ध्यान में रखकर लिखने वाले सच्चे पत्रकारों के लिए यह अत्यंत दु:खद स्थिति है.
पत्रकारिता में लंबे समय से काम करते हुए मुझे यह एहसास हुआ है कि इन गिने चुने पत्रकारों की बात छोड़ दें तो प्रेस की गरिमा घटाने में सबसे बड़ा योगदान खुद पत्रकारों ने दिया है. जिनका काम शासन व्यवस्था पर पैनी नजर रखने और आम आदमी की आवाज को मुखर कर सच उजागर करने का था उनमें से अधिकांश की कलम और शाब्दिक ताकत को स्वार्थ जनित राजनीति अपने चंगुल में ले चुकी है. समझौतापरक भ्रष्ट आचरण ने पीत पत्रकारिता को अपने कुकर्मों में शामिल कर लिया है जिसके चलते आज का पत्रकार समाचारों की बजाय घटनाओं को तरजीह देता है. ये कलम के जंगबाज अपने साथी पत्रकारों से पहले समाचार फेंकने की होड़ में कई बार खुद की फजीहत करवाने से भी नहीं घबराते. यह फार्मूला पत्रकारिता के स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर समान रूप से लागू होता है. पत्रकारिता का दम भरने वाले अनेक स्थानीय पत्रकार तो अपने व्यक्तिगत हित साधने के लिए पालिकाध्यक्षों और विधायकों की चापलूसी में लगे रहते हैं या फिर ब्लैकमेलिंग के इरादे से ओछी घटनाओं को समाचारों का रूप देने की कोशिश करते हैं. उन्हें घटनाओं की गंभीरता और विश्लेषण से कोई मतलब नहीं होता. जबकि पत्रकार द्वारा परोसा गया हर समाचार हमारी सामाजिक सोच को दिशा प्रदान करने में अहम भूमिका निभाता है.
फिर ऐसे दौर में पत्रकारिता कैसे बचेगी ! यह सवाल उठता तो जरूर है लेकिन प्रेस से जुड़ा हुआ कोई व्यक्ति इसका उत्तर नहीं देना चाहता. खुद की तरफ उंगली उठाना हम कहां सीख पाए हैं. प्रेस के संदर्भ में तो हम पहले ही सैद्धांतिक और आदर्शवाद की बातों से ऊब चुके हैं इसलिए उनका कोई औचित्य नहीं है.
हां, इतना जरूर है कि आज भी देश की जनता कुछ कम ही सही, लेकिन नेताओं से अधिक मीडिया पर भरोसा करती है. जिनकी कलम में ताकत है, जो विश्लेषण के साथ समाचारों को प्रस्तुत करते हैं, सामाजिक मूल्यों के प्रति अपनी संवेदना बचाए हुए हैं, सिर्फ उन्ही पत्रकारों में ही उम्मीद की एक किरण बचती है. अन्यथा पतन के इस दौर में एक बार फिर दुष्यंत को याद करते हुए कहना पड़ता है -
.... अब नई तहजीब के पेशे नज़र
हम आदमी को भूनकर खाने लगे हैं.
-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
अध्यक्ष-प्रेस क्लब, सूरतगढ़
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