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Wednesday 30 September 2020

नगरपालिका की नीलामी को न्यायालय की ना !


'कॉटन सिटी लाइव' ने  उठाया  था मामला

आखिरकार न्यायालय ने नगरपालिका द्वारा की जा रही बहुचर्चित नीलामी पर वाद के निस्तारण तक स्थगन आदेश जारी कर दिया है. बीकानेर रोड पर स्थित करोड़ों रुपए मूल्य की इस व्यवसायिक जमीन को आवासीय के रूप में बेचने के गड़बड़झाले को सर्वप्रथम कॉटनसिटी लाइव पोर्टल पर उजागर किया गया था जिसके बाद शहर के जागरूक लोगों ने नीलामी रुकवाने के लिए न्यायालय की शरण ली थी.

यही लोकतंत्र की खूबसूरती है जनाब ! सत्ता कितनी भी ताकतवर हो, अपने मंसूबे पूरे करने के लिए लाख छल छंद रचे मगर संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका का हथोड़ा एक बार तो बड़े-बड़े सत्ताधारियों का गुरूर तोड़ देता है.

गौरतलब है कि पालिका द्वारा बड़े जोर-शोर से शहर में इन कीमती भूखंडों की नीलामी हेतु मुनादी करवाई गई थी. लेकिन समाचार पत्रों में नीलामी सूचना प्रकाशित होते ही कॉटनसिटी लाइव पोर्टल पर 25 अगस्त को इस गड़बड़झाले को उजागर किया गया था


बाजार के ठीक बीच में स्थित व्यावसायिक भूमि को आवासीय के रूप में बेचने की योजना किसी भी दृष्टि से शहर हित में नहीं थी लेकिन पालिका प्रशासन तो अपनी मनमानी पर तुला था. अब न्यायालय द्वारा इस नीलामी को वाद के निस्तारण होने तक रोकने के आदेश जारी कर दिए गए हैं. स्पष्ट है कि प्रथम दृष्टया: नगरपालिका द्वारा प्रस्तावित नीलामी अवैध थी. 

पालिका के पूर्व अध्यक्ष बनवारी मेघवाल और एडवोकेट पूनम शर्मा की संयुक्त याचिका पर न्यायालय द्वारा यह स्थाई स्थगन आदेश जारी किया गया है. इससे पूर्व पालिका द्वारा नीलामी के लिए निर्धारित दिन 21 सितंबर को न्यायालय ने बोली से कुछ घंटे पूर्व 28 सितंबर तक अंतरिम स्थगन आदेश जारी किया था जिससे उस दिन नीलामी नहीं हो पाई थी. 28 सितंबर को न्यायालय में बहस होने के बाद फैसला 30 सितंबर तक सुरक्षित रख लिया गया था. अब कोर्ट द्वारा वाद के निस्तारण तक स्थगन आदेश देने से मामला पूरी तरह न्यायिक प्रक्रिया में चला गया है.

दरअसल नीलामी का यह मामला शुरू से ही संदेह के घेरे में आ गया था जब पालिका द्वारा बाजार के बीच में स्थित विशुद्ध रूप से व्यवसायिक भूमि को आवासीय बता कर बेचने की योजना बनाई गई थी. पालिका प्रशासन का तर्क है कि यह जमीन मास्टर प्लान में आवासीय दर्शाई गई है इसलिए मजबूरी वश उसे आवासीय बेचा जा रहा है. लेकिन पालिका के तर्क किसी के गले नहीं उतरते. इस मामले में दिए गए आदेशानुसार पालिका खुद मास्टर प्लान की अवहेलना करती दिख रही है.

लेकिन साहब हठ तो हठ है. फिर राज हठ के क्या कहने ! सब कुछ जानते हुए भी जब पालिका प्रशासन अपनी फजीहत करवाने पर तुला हो तो उसे कौन रोक सकता है. सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर पालिका को यह जमीन बेचने की इतनी जल्दी क्यों है ? 



खैर इस पूरे प्रकरण में एडवोकेट पूनम शर्मा और पूर्व पालिकाध्यक्ष बनवारी मेघवाल ने विपक्ष की भूमिका निभाकर नीलामी को रुकवा दिया है. इसके लिए वे पुन: बधाई के पात्र हैं. पालिकाध्यक्ष ओमप्रकाश कालवा और पालिका मंडल को अदालत के इस निर्णय से सबक लेना चाहिए. इस मामले में हुई फजीहत से सीख लेकर वे अपने भावी निर्णयों को सुधार सकते हैं.


Tuesday 22 September 2020

क्या आप पड़ौस के घर से कभी सब्जी मांग कर लाए हैं !

पगडंडियों के दिन (13)  

हमारी विरासत


'मासीजी, सब्जी के बणाई है ?'


'आलू शिमला मिर्च है, पा दयां !'


अंगीठी पर रोटियां सेकती कुंती मासी बोली.


'दे दयो, आलू ज्यादा घाल्या.' बिना किसी हिचक और शर्म के मैंने अपनी कटोरी को मासी के हाथों में थमा दिया. मासी ने सब्जी से कटोरी भर दी. ज्यों ही मैं आंगन में मंज्जे पर बैठे रोटी जीम रहे मासड़ तारा सिंह के पास से गुजरा.


'ओ, टोनी, तेरी मां ने की चाड़या है अज ?'


'मासोजी, बड़ी बणाई है, मन्नै तो कोनी भावै...'


'यार कमाल है, बड़ियां नीं भांदी तैन्नू ! जा मेरे वास्ते फड़ी ल्या छेती जिही.'


'ल्यायो मासोजी....' और मैं दौड़ता हुआ घर जाकर मासड़ तारा सिंह के लिए बड़ी की तरीदार सब्जी ले आता जिस पर मां ननीहाल से आया हुआ दो चम्मच देसी घी डाल देती. उस वक्त सब्जी मांगने में जरा सी भी शंका या शर्म नहीं आती थी. पता नहीं क्यों ?


मगर आज, कल्पना कीजिए आपके घर मनपसंद सब्जी नहीं बनी है तो क्या आपके बच्चे कटोरी लेकर पड़ोसी के घर सब्जी मांगने जा सकते हैं ?


आप में से अधिकांश का उत्तर होगा.


'सब्जी......! हमारे बच्चे तो कभी प्लास पेचकस भी मांगना पड़ जाए, तो पड़ोसी के घर जाने से कतराते हैं. हम तो खुद ही पडौसियों के घर नहीं जा पाते हैं.'

लेकिन छोटे पर्दे के आगमन से पहले ऐसा वक्त नहीं था. 70-80 के दशक में मोहल्ले भर के घरों से सब्जी मांग कर लाने का भी एक हसीन दौर था. आज आपको घर में बनी सब्जी से ही काम चलाना पड़ता है जबकि उन दिनों ठरके के साथ हम पड़ोसियों के घर कटोरी ले कर जा धमकते थे. दिनभर की धमाचौकड़ी के बाद जब शाम को घर में घुसते तो मां की डांट-डपट भोजन का हिस्सा हुआ करती थी. 'मा री गाळ, घी री नाळ' कहावत का अर्थ हमने बखूबी समझ लिया था. इसलिए ज्यादा गौर नहीं करते थे. हां, यदि रसोई में सब्जी मनपसंद नहीं बनी होती तो हमारा बालमन भुनभुनाकर विद्रोह कर देता.


इस पर मां बेझिझक कहती- 'जा, कुंती मासी के घर से सब्जी ले आ, उसने शायद आलू बनाए हैं.'
और हम कटोरी उठाकर बिना किसी शर्म के कुंती मासी के घर से सब्जी की कटोरी भरवा लाते. ऐसा नहीं कि सब्जी मांगना सिर्फ हमारा काम था बल्कि कुंती मासी, सक्सेना आंटी, गेजो मासी, संजय, राणी, सुनीता आदि की कटोरियां प्राय: हमारे घर से सब्जी या दाल की भरकर जाती थी. मां की बनाई हुई गट्टे की सब्जी और मूली के पराठें मोहल्ले में प्रसिद्ध थे. इस चक्कर में हमारे घर में पड़ोसियों की कटोरियांं और अन्य बर्तन पड़े रहते थे. यकीनन हमारे बर्तन भी उनके घर की शोभा बढ़ाते होंगे.


उस दौर में सिर्फ सब्जियों का आदान-प्रदान ही नहीं था बल्कि छोटे-मोटे दु:ख सुख भी लोग आपस में बांट लिया करते थे. गुजरे हुए दिनों को याद कर मां कहती है कि उन दिनों जब विवाह शादियां हुआ करती थी तो पडौस की महिलाएं एक दूसरे के कपड़े तक मांग कर पहन जाया करती थी. एक बार फलानाराम की पत्नी मेरी झूमकी और जेठाराम ताईजी का घाघरा मांग कर ले गई थी. झुमकी तो दो-चार दिनों बाद उसने लौटा दी थी लेकिन ताई जी का घाघरा विवाह में गुम कर आई. 


मैंने पूछा- 'फिर ताई जी ने क्या किया ?'
'क्या करती ! तेरे ताऊजी से चार गालियां खाई...' मां ने हंसते हुए बताया.


दरअसल, आज दिन पड़ोसियों और हमारे घर की दीवारें बहुत ऊंची हो चुकी हैं. हमने इन दीवारों में अपनी अपणायत और हेत जिंदा चिनवा दिया है. आज हमारे पास घर तो पक्के और आलीशान हैं लेकिन दिल बहुत छोटे हो गए हैं. कड़वी सच्चाई यह है कि हम ओढ़ी हुई रंगहीन आधुनिकता के चक्कर में अपने मोहल्ले के घरों से कोई चीज मांग कर लाना अपनी तौहीन समझते हैं. साग सब्जी की तो सोचिए ही मत, छोटी मोटी चीजें भी अगर पड़ोसियों से मांगी जाएं तो हमारी इज्जत घट जाती है. दुख:द बात यह भी है कि यही मानसिकता हमने अपने बच्चों के दिलों में भी पैदा कर दी है जिसके दुष्परिणाम यकीनन उन्हें झेलने होंगे और वे झेल भी रहे हैं.

आइए, अपने पड़ोसी के घर जाना शुरू करें. शायद प्रेम और प्यार का वही दौर हम लौटा ला सकें तो....!


-रूंख

Monday 21 September 2020

तो आखिर रुक ही गई नीलामी !


- करोड़ों की व्यवसायिक जमीन को आवासीय भूखंडों के रूप में बेचने का गड़बड़झाला
- न्यायिक हस्तक्षेप से सूरतगढ़ नगरपालिका की नीलामी रोकने के आदेश.


यह लोकतंत्र की खूबसूरती है साहब ! सत्ता कितनी भी ताकतवर हो, अपने मंसूबे पूरे करने के लिए कितने ही छल छंद रचे, जनता को बेवकूफ समझ कर उसकी आंखों में धूल झोंकने के लाख जतन करे, जरूरी नहीं कि उसे कामयाबी मिले. संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका का हथोड़ा एक बार तो बड़े-बड़े सत्ताधारियों का गुरूर तोड़ देता है. 


ऐसा ही कुछ सूरतगढ़ नगरपालिका की आज होने वाली बहुचर्चित भूखंड नीलामी के साथ हुआ है. दोपहर तक पालिका द्वारा बड़े जोर-शोर से शहर में इन कीमती भूखंडों की नीलामी हेतु लाउडस्पीकर पर मुनादी की जा रही थी लेकिन ऐन वक्त पर बाजार के बीच स्थित करोड़ों की व्यावसायिक जमीन को आवासीय भूखंडों के रूप में बेचने के मामले में न्यायालय द्वारा इस नीलामी को रोकने के आदेश जारी किए गए. पालिका के पूर्व अध्यक्ष बनवारी मेघवाल और एडवोकेट पूनम शर्मा की संयुक्त याचिका पर न्यायालय द्वारा यह स्थगन आदेश जारी किया गया है. न्यायालय द्वारा 28 सितंबर तक नीलामी पर रोक लगाई गई है. वादी पक्ष की ओर से खुद एडवोकेट पूनम शर्मा और एडवोकेट सुभाष विश्नोई ने पैरवी की.





लेकिन साहब हठ तो हठ है. फिर राज हठ के क्या कहने ! सब कुछ जानते हुए भी जब पालिका प्रशासन अपनी फजीहत करवाने पर तुला हो तो उसे कौन रोक सकता है. सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर पालिका को यह जमीन बेचने की इतनी जल्दी क्यों है ?

माना कि पालिका की आर्थिक हालात ठीक नहीं है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि घर का कीमती सामान बेचना शुरू कर दिया जाए. पालिकाध्यक्ष ओमप्रकाश कालवा पूर्व में शिक्षक रहे हैं और एक अनुभवी व्यापारी भी हैं लेकिन उसके बावजूद पालिका की आय के वैकल्पिक साधन तलाशने की बजाय कीमती संपत्तियों के बेचान का मार्ग अपना रहे हैं, जो कतई उचित नहीं कहा जा सकता. और यदि बेचना इतना जरूरी ही है तो कम से कम उसका मूल्य तो पूरा वसूलें.

खैर इस प्रकरण में एडवोकेट पूनम शर्मा और पूर्व पालिकाध्यक्ष बनवारी मेघवाल ने विपक्ष की भूमिका निभाकर एकबारगी नीलामी को रुकवा दिया है. इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं लेकिन विपक्षी पार्षदों और भाजपा के विधायक रामप्रताप कासनिया की क्या कहें ! उन्हें तो जैसे सांप ही सूंघ गया है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष जब अपनी भूमिका निभाने से गुरेज करने लगता है तो सत्ता पक्ष का निरंकुश होना स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति में जनता जनार्दन से निकलने वाली साधारण आवाजें ही कभी-कभी सत्ता की लगाम कस देती है. और बहुचर्चित नीलामी प्रकरण में आज यही हुआ है.

न्यायिक आदेेेश की प्रति





Friday 18 September 2020

'भाण्डे कली करालो, भाण्डे...'


पगडंडियों के दिन (12)

हमारी विरासत

'दुनिया पीतल दी...' गीत पर भले ही सारा जमाना थिरक लिया हो लेकिन बेबी डॉल को शायद पता ही नहीं, कि एक जमाना था जब इसी 'पीतल' को अपनी कला से चमकाने वाले हुनरमंद लोग भी दुनिया में हुआ करते थे. वो पगडंडियों का जमाना था. इंसान के पैर जमीन पर टिके थे. हवा में उड़ने की फितरत तो हमने इस दौर में ही सीखी है. लेकिन वक्त कब किसी का हुआ है साहब ! जैसे आज बेबी डॉल का नशा उतरा हुआ मालूम पड़ता है ठीक वैसे ही मतलबी जमाने ने पीतल चमकाने वाले कारीगरों को भी जमींदोज़ कर दिया है. तभी तो आज दूर-दूर तक कोई आवाज सुनाई नहीं देती-


'भाण्डडडे कली करा लो भाण्डडडे.., परातां दे पौड़ लवा लो, कली करा लो कली.....!'

मगर उन दिनों बर्तन कली करने वाले कारीगरों की बड़ी पूछ हुआ करती थी जब अधिकांश मध्यमवर्गीय घरों में पीतल या कांसे के बर्तन थे. स्टील के बर्तन आने से पहले टोकणी, लोटा, देगची, कड़ाही, पतीले, कोली, बाटी, गिलास, थालियां, यहां तक कि चमचे भी पीतल के हुआ करते थे. ऐसे बर्तनों को मांजने के बाद इनकी चमक देखने लायक होती थी. दिक्कत सिर्फ एक ही थी कि इन बर्तनों में धात्विक प्रतिक्रिया के कारण मसालेदार और खट्टी चीज़ें ज्यादा समय तक नहीं टिक पाती थी. इस समस्या का समाधान सिर्फ कली वालों के पास था. वे इन बर्तनों की अंदरूनी सतह पर कली और रांगे का एक पतला लेप लगा देते थे जो धात्विक प्रतिक्रिया को रोकता था. चांदी सी चमकदार कली का लेप लगाने के बाद बर्तन अंदर से चमचमा उठते थे.

बर्तन कली करने वाले कारीगरों की अनूठी शान

गली के नुक्कड़ पर लगे शहतूत तले जब कली करने वाला भाई अपनी साइकिल खड़ी कर कैरियर पर बंधी अंगीठी और कोयले की बोरी उतारता तो मोहल्ले के घरों के दरवाजे उसकी आवाज सुन धीरे-धीरे खुलने लगते. वह बड़े दिलकश अंदाज में मुनादी करता-


'नवें बणाके हत्थ फड़ा दयां
भाण्डे दयो पुराणे
मोयां दे विच जान पा दयां
करां सजाखे काणे
'भाण्डडडे कली करा लो भाण्डडडे.....!'


लकड़ी के कोयलों को छोटी सी गोल अंगीठी में सुलगा कर वह मशीनी पंखे से उसे हवा देता तो भट्टी में अंगारे दहकने लगते. मदारी की भांति उसके झोले से संडासी, हथोड़ा, प्लास, नौसादर की डिबिया, रांगा, कली के तार.... और भी न जाने क्या क्या, बाहर निकलने लगते. मैली सी चादर और ढेरों सुराख वाली फटी कमीज पहने कलीवाला भाई होंठों में बीड़ी दबाकर उकडूं बैठ जाता और अपना काम शुरू कर देता. 
बीच-बीच में मोहल्ले की औरतों से मोल भाव भी चलता रहता.


'दो भाण्डे, इक रपय्या'


ठीक है. पर भाई, इसके ज्यादा बता रहे हो !'


'बिब्बी, देग दा मूं वेख ! पूरा इक रपय्या लग्गू. मरजी है तुहाडी.' 


'कळी चोखी करी रे भाई. लारली बिरियां तेरो ई कोई भाई आयो हो, जमां रांगो थेथड़ ग्यो. दो मईना ई को चाली नीं !'


बिब्बी, कम दी गरंटी होऊ, मेरे कोळे बोतया टपटपाई है नीं. साफ कम करीदा है, रोटी हक दी खाइदी है...'



अपने काम में मस्त कली वाला ऐसी बातों पर कान धरता ही नहीं था. वह बर्तन को संडासी से पकड़ भट्टी पर गर्म करता और उसमें कली की तार का एक सिरा रगड़ता जो पिघलकर चमकदार गोल बूंद में बदल जाती. इसके बाद वह नौसादर पाउडर डालता तो गर्म बर्तन से तेज धुआं उठता. कली वाला भाई बड़ी फुर्ती से एक पुराने कपड़े को संडासी से पकड़ उस बर्तन में पड़ी कली को चारों ओर फैला देता. कली के चमकदार लेप से बर्तन की अंदरूनी सतह चमक जाती और गर्म बर्तन छन्न से पानी में.....लो हो गई कली !


इन कली करने वालों की अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पंजाबी लोक संगीत में 'रंगीले जट्ट' द्वारा गाया गया गीत 'भांडे कली करा लो...' कभी गलियों में ठीक वैसे ही गूंजा करता था जैसे बेबी डॉल ने दुनिया को पीतल की बताकर धूम मचा दी थी. 


अब न पीतल के बर्तन हैं न कली करने वाले लोग. हमने झूठी चमकदार शान का लबादा ओढ़कर पीतल के बर्तनों को या तो कबाड़ में बेच दिया है या फिर किसी बोरी में बंद कर कहीं लटाण पर पटक रखा है. कभी घर की शान कहे जाने वाले पीतल के बर्तनों में आज हम मेहमानवाजी करने की सोच भी नहीं सकते. और कली वाले, वे जाने कहां गुम हुए, जमाने को खबर ही नहीं. छोटे कारीगरों को दर्ज करने के लिए इतिहास के पास पन्ने कहां होते हैं !


सच पूछिए तो हमें फुर्सत ही नहीं है अपने विरसे को संभालने की. विकास की अंधी दौड़ में अहसानफरामोश होकर हम खुद को ही नहीं संभाल पा रहे हैं तो औरों की बिसात ही क्या !
-रूंख

Thursday 3 September 2020

विधायकों और सांसदों को खुला पत्र

आदरणीय विधायकों और सांसदों, सादर अभिवादन. आज आप सबको चौक चौराहे पर साधारणजन की ओर से संबोधित करने का विशेष प्रयोजन है.


उस दिन को याद कीजिए जब आपने पहली बार अपने भीतर नेतृत्व क्षमता का गुण खोजा था और राजनीति में उतरने का फैसला किया था. हो सकता है कुछ लोगों को यह सब विरासत में मिला हो लेकिन फिर भी आप सब ने उस वक्त समाजसेवा के साथ खुद को जननेता के रूप में स्थापित करने के सपने तो अवश्य देखे होंगे. उन सपनों को पूरा करने के लिए आपने जीवन यात्रा में कड़ी मेहनत के साथ जबरदस्त संघर्ष भी किया होगा. बहुतों का तो आंदोलनों, भूख हड़ताल, पुलिस की मार और जेल की यातनाओं से भी सामना हुआ होगा. षड्यंत्रों भरी राजनीति में आप कदम-कदम पर जाने कितने छल-छंदों और कुटिल समझौतों से जूझे होंगे. संक्षेप में कहूं तो कुम्हार की निहाई में तप कर जैसे मिट्टी का एक कच्चा घड़ा शीतल जल देने वाले पात्र में बदल जाता है, यकीनन वैसा ही कुछ आपके जीवन में भी घटित हुआ है. इन्हीं अच्छे बुरे अनुभवों के चलते कई लोगों को तो केंद्र और राज्यों के विभिन्न मंत्रालयों को संभालने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ है.

लेकिन क्या मंत्री, सांसद और विधायक बनना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है ! भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में, जहां महज 20% वोट पाने वाला प्रत्याशी जनप्रतिनिधि बन जाता हो, जहां चार हजार से अधिक विधायकों और लगभग आठ सौ सांसदों की भीड़ हो, उनमें आपका कद कैसा है, यह बड़ा सवाल है. आप संघर्ष के शुरुआती दिनों को याद कीजिए. आप तो लोकप्रिय और सर्व सम्मत नेता बनना चाहते थे. परंतु सच कहना, क्या आप बन पाए ! हकीकत तो यह है कि आप में से अधिकांश लोग नेतागिरी की वीआईपी जमात में भटक कर रह गए हैं. बड़ी सी गाड़ी और गनमैन के चक्कर में आपकी नेतृत्व क्षमता सुप्त हो गई और आज घड़ी ज्यादातर जनप्रतिनिधि पिछलग्गू व्यापारी की भूमिका में आ गए हैं. सच तो ये है कि 'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास' की तर्ज पर आप सत्ता के सुख में अपने सपनों को ही भूल बैठे हैं.

राजनीतिक गलियारों में अक्सर कहा जाता है कि देश में जेपी के बाद कोई जननायक नहीं बन पाया. दरअसल, इतिहास के पन्ने बहुत कीमती होते हैं उनमें जननेता के रूप में दर्ज होने के लिए आपको लीक से हटकर चलना पड़ता है. लेकिन विडंबना यह है कि जेपी से अगली पीढ़ी के अधिकांश नेताओं में नैतिक पतन का एक नया दौर शुरू हुआ जो आज तक बदस्तूर जारी है. प्रजातांत्रिक राजनीति में भ्रष्ट आचरण और आपराधिक लिप्तता सदैव आत्मघाती होती है, यह जानते हुए भी हमारे बहुत से माननीय इस दलदल में आकंठ डूब गए हैं. साम, दाम, दंड, भेद की राजनीति से वे भले ही चुनाव जीत जाते हों, लेकिन लोकप्रिय नेता होने का दम नहीं भर सकते. नि:स्वार्थ भाव से जनता के साथ खड़े होने वाले नेताओं को ही इतिहास तरज़ीह देता है वरना आजादी के बाद कितने ही जनप्रतिनिधि आए और क्षणिक चमक दिखाकर लुप्त हो गए. उनमें से कितने लोग जनता के दिलों में जगह बना पाए, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है.

मुद्दे की बात यह है कि कई बार कुदरत ऐसी विषम परिस्थितियां पैदा कर देती है जब नेतृत्व कर रहे मनुष्यों के समक्ष खुद को साबित करने की चुनौती उठ खड़ी होती है. सही मायने में ऐसी चुनौतियां सूझवान के समक्ष अवसर और कायर के लिए आफत होती हैं. संकट की ऐसी विकट घड़ी में राजनीति की बिसात पर कमजोर मोहरे स्वार्थ लिप्सा में फंस कर दम तोड़ देते हैं जबकि कुछ लोग अपने सर्वस्व योगदान से मानव जाति को आपदा से निकाल ही लाते हैं. इतिहास ऐसे मनुष्यों को ही अपने सुनहरे पन्नों पर दर्ज करता है. 

कोविड के संक्रमणकाल में ऐसी ही परिस्थितियां दुनियाभर में उत्पन्न हुई हैं. 
हमारे देश में भी आशंका और निराशा का भाव गहराता जा रहा है. लाखों लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है जिसके चलते रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है. एक बड़े वर्ग के काम धंधे चौपट होने के कारण हमारी अर्थव्यवस्था भी डगमगा गई है और खतरे के संकेत दे रही है. 

ये सब आप से छिपा हुआ नहीं है. तो फिर उठिए और अपनी कमर कस लीजिए. आप में से अपवाद स्वरूप शायद ही कोई विधायक या सांसद होंगे जो अपने परिवार में करोड़ों की सम्पत्ति के मालिक न हो. संकट की इस घड़ी में संवेदनाओं को महसूस करते हुए आप इस सम्पदा का थोड़ा सा हिस्सा भी जनकल्याण में लगा सकें तो आप इतिहास पुरुष साबित होंगे. यदि इसमें कोई गुरेज हो तो इतना सहयोग अवश्य कीजिए कि अपनी जनसेवाओं के बदले सरकार से मिलने वाले समस्त वेतन और भत्तों का न्यूनतम दो वर्षों के लिए परित्याग कर दीजिए. यह ठीक वैसा ही है जिस ढंग से देश के आम आदमी ने सब्सिडी को छोड़ने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं. सरकारी सुविधाओं और अपनी सुरक्षा का तामझाम निजी खर्चे पर व्यवस्थित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कीजिए. 

आपको बताना चाहता हूं कि आपका यह सामूहिक परित्याग देश की अर्थव्यवस्था में कितना बड़ा योगदान दे सकता है :-
( स्रोत- आरटीआई, सरकारी दस्तावेज)

545 लोकसभा सदस्य @ 71.00 लाख
250 राज्यसभा सदस्य @ 44.00 लाख
4120 विधायक @ औसत 25.00 लाख

प्रति वर्ष के हिसाब से यह राशि 1524.75 करोड़ रूपये बनती है. सुरक्षा व्यवस्था पर खर्च होने वाली राशि इससे अलग है. यदि इसे भी औसतन जोड़ लिया जाए तो सोचिए 2 सालों में आप देश की अर्थव्यवस्था में 5000 करोड़ से अधिक का योगदान दे सकते हैं. आज देश का हर नागरिक अपने खर्चों में कटौती करने की कोशिश कर रहा है. आगे आकर अपने सहयोग की घोषणा कर उसका हौसला बढ़ाइए. आपको याद होगा कि जनसेवा का मार्ग आपने स्वेच्छा से चुना था. उसके लिए वेतन और भत्ते पाने जैसी कोई शर्त नहीं थी. 

इस देश को बचाने के लिए साधारणजन की इतनी सी गुजारिश स्वीकार कर लीजिए. लोकतंत्र पर बोझ बनने की बजाय उसे संवारने का काम कीजिए. यदि देश बचेगा तो राजनीति बचेगी. याद रखिए कि प्राकृतिक आपदाएं पार्टी, धर्म और जात नहीं देखती. कुदरत का कहर अमीरी और गरीबी में फर्क नहीं करता. हां, मनुष्य अगर चाहे तो अपनी सूझबूझ से बहुत बड़ा फर्क ला सकता है.

अपने शुरुआती सपने को याद करते हुए जननेता बनने की तरफ कदम बढ़ाइए. इतिहास आपकी प्रतीक्षा कर रहा है....

सादर

डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
94140-90492
kapurisar@gmail.com

सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और साहित्यकार मधु आचार्य के जन्मदिवस पर एक यादगार शाम का आयोजन

कभी तो आसमान से चांद उतरे ज़ाम हो जाए  तुम्हारा नाम की भी एक सुहानी शाम हो जाए.... सोमवार की शाम कुछ ऐसी ही यादगार रही. अवसर था जाने-माने रंग...

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