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Friday, 28 May 2021

कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे !

प्रस्तावित कार्यालय, जिसे विरोध के चलते शुरू नहीं किया जा सका 

- बजट घोषणा मुताबिक़ सादुल शहर में खुल रहा है दूसरा डीटीओ कार्यालय 


- राजनीतिक शून्यता के चलते सूरतगढ़ की संभावना हुई धराशायी


- सूरतगढ़ समेत कई तहसीलों का क्षेत्राधिकार बदलने की आशंका

( एक्सक्लूसिव स्टोरी)

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की बजट घोषणा के मुताबिक श्रीगंगानगर जिले में दूसरा डीटीओ कार्यालय सादुलशहर तहसील में खुलने जा रहा है. ताजा सूत्रों के मुताबिक जिले की कुछ तहसीलों को सादुलशहर कार्यालय के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत लाया जा सकता है. जल्द ही इस आशय का नोटिफिकेशन जारी होने वाला है. इन तहसीलों में सूरतगढ़ को भी शामिल करने की बात की जा रही है. यदि ऐसा किया जाता है तो वाकई इस क्षेत्र का दुर्भाग्य होगा. जिले की अन्य तहसीलाें काे सादुलशहर डीटीओ ऑफिस से जाेड़ने पर लोगों की परेशानियां खत्म होने की बजाय बढ़ जाएगी. 
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा की गई बजट घोषणा

सूरतगढ़ के सपने हुए धराशाई

सरकार के इस फैसले के कारण सूरतगढ़ में चल रहे डीटीओ कार्यालय के विस्तार और नया कोड मिलने की संभावनाएं एकबारगी तो धराशाई हो गई हैं. इसे जनप्रतिनिधियों की लापरवाही और राजनीतिक शून्यता का परिणाम ही कहा जाना चाहिए. कुछ समय पूर्व नेशनल हाईवे का सहायक अभियंता कार्यालय भी चुपचाप सूरतगढ़ से बीकानेर अंतरित हो गया था. इस लिहाज से यह दूसरा बड़ा मामला है जिसमें जनप्रतिनिधियों की चुप्पी इलाके के विकास पर भारी पड़ी है.

24 फरवरी को हुई बजट घोषणा में सरकार के इस निर्णय से अफसराें के साथ-साथ आमजन को भी हैरानी हुई थी क्योंकि यह सर्वविदित तथ्य है कि भौगोलिक दृष्टि से डीटीओ ऑफिस और नये कोड के लिए सूरतगढ़ और अनूपगढ़ ही सर्वथा उपयुक्त तहसीलें हैं. 

एक नजर तथ्यों पर डालें

हालांकि प्रशासन ने लोगों की सुविधा काे ध्यान में रखते हुए अनूपगढ़ में नया डीटीओ ऑफिस खाेलने का प्रस्ताव भेजा बताते हैं. इसके लिए परिवहन विभाग से तथ्यात्मक रिपोर्ट भी मांगी गई थी. लेकिन राजनीतिक कारणों के चलते राज्य सरकार ने इस प्रस्ताव काे खारिज करते हुए सादुलशहर में डीटीओ ऑफिस खाेलने की बजट घाेषणा कर डाली.

गौरतलब है कि श्रीगंगानगर जिला मुख्यालय से सबसे दूरस्थ क्षेत्र रावला व 365 हेड हैं. जिनकी दूरी 180 से 200 किमी. है. यहां के लोगों को डीटीओ में छोटे-छोटे कामों के लिए पूरा एक दिन खत्म करना पड़ता है. यदि यही डीटीओ कार्यालय अनूपगढ़ या सूरतगढ़ में खुलता तो जनसाधारण के लिए राहत की बात होती. श्रीगंगानगर जिला मुख्यालय से रावला 160 किमी, घड़साना 140, अनूपगढ़ 125 किमी, श्रीविजयनगर 90, रायसिंहनगर 70 व सूरतगढ़ 72 किमी दूर है. जरा सोचिए यदि इन तहसील क्षेत्राें काे सादुलशहर डीटीओ ऑफिस के अधीन किया जाता है ताे आमजन के लिए कितनी बड़ी परेशानी खड़ी हो जाएगी.

जिला मुख्यालय स्थित डीटीओ ऑफिस से सादुलशहर मात्र 30 किमी दूर एक काेने पर बसा हुआ है. इसके एक तरफ पंजाब की सीमा लगती है ताे दूसरी तरफ हनुमानगढ़ जिले की. अन्य तहसील क्षेत्रों के लाेगाें काे यहां पहुुंचने के लिए श्रीगंगानगर जिला मुख्यालय हाेकर ही जाना पड़ता है. जिले में दूरस्थ स्थित किसी भी तहसील की सीमा सादुलशहर को नहीं छूती.

सादुलशहर का निर्णय ही अविवेकपूर्ण 

बजट घोषणा के मुताबिक सादुलशहर में नया डीटीओ कार्यालय खुलना तय है. अब यदि सरकार जन विरोध को देखते हुए इस कार्यालय का क्षेत्राधिकार केवल सादुलशहर तहसील ही सीमित रखती है राजस्व की दृष्टि से सरकार को कोई विशेष फायदा नहीं मिलने वाला. सिर्फ एक तहसील के लिए डीटीओ कार्यालय संचालित होना किसी भी दृष्टि से बुद्धिमानी का निर्णय नहीं कहा जा सकता. यदि यही कार्यालय अनूपगढ़ अथवा सूरतगढ़ में खुलता तो आधे से अधिक जिले को राहत मिलती.

सरकार के इस अविवेकपूर्ण निर्णय के खिलाफ जनप्रतिनिधियों को जागने की जरूरत है. राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर क्षेत्र के नेताओं को सामूहिक रूप से सरकार के इस अविवेकपूर्ण निर्णय में बदलाव की मांग करनी चाहिए. समय रहते यदि ऐसे फैसलों को नहीं बदला जाता है तो आमजन में घोर निराशा फैलेगी. 


Tuesday, 25 May 2021

फिक्र कैसी, नरेन्द्र भाई है ना !


 (मानस के राजहंस)
नरेंद्र चाहर ! एक ऐसा नाम, जो सूरतगढ़ ही नहीं बल्कि आसपास के इलाके में चिकित्सा मित्र के रूप में जाना जाता है. हमेशा मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ मिलने वाले मृदुभाषी नरेंद्र चाहर अपने कर्तव्य के प्रति इतने समर्पित हैं कि आधी रात को आप उन्हें फोन कर लीजिए वे आपके लिए हमेशा तैयार मिलेंगे. दरअसल, नर्सिंग के पेशे से जुड़े लोगों में जिन मानवीय गुणों की अपेक्षा की जाती है उनसे कहीं बढ़कर योग्य है नरेंद्र भाई !

सूरतगढ़ में नेत्रदान की मुहिम को जगाने और उसे विस्तार देने के लिए नरेंद्र चाहर का नाम सबसे ऊपर आता है. शुरुआती दिनों में नेत्रदान के लिए लोगों को प्रेरित करना बड़ी बात थी लेकिन मृत्योपरान्त नेत्र उत्सर्जित करना और उन्हें नियत समय के भीतर जिम्मेदारी के साथ जगदंबा अंध विद्यालय एवं चिकित्सालय, श्रीगंगानगर तक पहुंचाना वाकई जिम्मेदारी का काम होता है. नरेंद्र चाहर ने बरसों तक इस महत्वपूर्ण दायित्व को निभाया है ताकि नेत्रहीन लोग भी यह सुंदर दुनिया देख सकें. इस पुनीत कार्य के लिए उनकी भरपूर सराहना हुई है.

सूरतगढ़ में जब रक्तदान की विधिवत शुरुआत हुई थी उस समय श्री चिरंजीलाल गर्ग और उनकी टीम ने सिटीजन चैंबर्स नामक संस्था में शानदार काम किया था. उनके प्रयासों को गति देने के लिए भी नरेंद्र चाहर को नींव के पत्थर के रूप में देखा जाता है जिन्होंने महावीर इंटरनेशनल के जरिए इस सेवाभावी काम को जन-जन तक पहुंचाया. महावीर इंटरनेशनल की सूरतगढ़ शाखा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में जिस टीम का हाथ रहा है उसके सेंटर फारवर्ड नरेंद्र चाहर ही कहे जा सकते हैं. हालांकि कुछ समय पूर्व नरेंद्र महावीर इंटरनेशनल छोड़ चुके हैं लेकिन इसके बावजूद उनके समर्पित सेवा कार्य निरंतर जारी हैं.

उन्होंने शहर की श्री गौशाला में भी अपनी सेवाएं दी है. गौशाला की व्यवस्थाएं बेहतर बन सकें, इसके लिए वे आज भी प्रयासरत हैं. 

प्रचार प्रसार और सोशल मीडिया से दूर रहने वाले नरेंद्र सही मायनों में अपने नाम को चरितार्थ कर रहे हैं. संस्थागत छल-छंदों और निरर्थक चलती राजनीतिक बहस से दूर नरेंद्र शहर के प्रतिष्ठित बंसल नर्सिंग होम में लंबे समय से अपनी सेवाएं दे रहे हैं. वे हमेशा की तरह आज भी ऊर्जावान हैं और मानव मात्र की सेवा के लिए हर वक्त तैयार हैं. उनकी इस निष्ठा को देखकर एक शेर याद आता है -

वो जहां भी जाएगा, रोशनी फैलाएगा 
किसी चिराग का अपना कोई मकां नहीं होता.

लगे रहो मेरे प्यारे नरेंद्र भाई, ताकि दुनिया और सुंदर बन सके !
-रूंख

Friday, 21 May 2021

अनिल ! सूरतगढ़ को तुम पर नाज़ है.

 (मानस के राजहंस)


अनिल गोदारा ! एक चिर परिचित सा चेहरा, जो आपको राजकीय चिकित्सालय में अक्सर मिल ही जाता है. यूं तो अनिल यहां नर्सिंग ऑफिसर के तौर पर कार्यरत हैं और इन दिनों उप कारागार, सूरतगढ़ में सेवाएं दे रहे हैं लेकिन उनकी खूबी यह है कि ड्यूटी ऑवर्स के बाद भी उनकी सेवाएं जारी रहती है. जेल में नियुक्ति के बाद अनिल वहां की चिकित्सा व्यवस्थाओं में सुधार के लिए भी निरंतर प्रयास कर रहे हैं. उनके इन प्रयासों के सकारात्मक परिणाम भी मिलने लगे हैं.

कोरोना संकटकाल में राजकीय चिकित्सालय का पूरा नर्सिंग स्टाफ व्यवस्था बनाने के लिए जूझ रहा है. डॉक्टर्स के साथ दिन रात भाग-दौड़ करते हुए इन कोरोना वारियर्स में भी थकान और निराशा के भाव कभी-कभी दिख जाते हैं लेकिन टीम का मनोबल कमजोर ना पड़े, इसमें अनिल गोदारा की महती भूमिका रहती हैं. अपनी उपस्थिति मात्र से ही सब का हौसला बढ़ा देने वाले अनिल गोदारा सकारात्मक सोच के साथ समस्याओं का हल निकालने में विश्वास रखते हैं. बात चिकित्सकों की हो या अपने सहकर्मियों की, अनिल हमेशा मदद के लिए तैयार रहते हैं. यहां तक कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की हौसला अफजाई में भी पीछे नहीं रहते. अपने साथियों के हितों के लिए उच्चाधिकारियों से भिड़ जाना अनिल की नेतृत्व क्षमता को दर्शाता है.

ट्रॉमा सेंटर में चल रहे कोविड केयर वार्ड में इन दिनों रोगियों का जमावड़ा रहता है. वैक्सीनेशन और रजिस्ट्रेशन का काम भी लगातार चलता है. इन सबके बीच दुर्घटनाओं के मामले भी आते रहते हैं. कार्य की इतनी व्यस्तता के बावजूद अनिल वरिष्ठ चिकित्सकों के मार्गदर्शन में अपने नर्सिंग साथियों के साथ व्यवस्थाओं को बखूबी संभालते हैं. रोगियों के ऑक्सीजन से लेकर एंबुलेंस व्यवस्थाओं तक की देखरेख में अनिल निस्वार्थ भाव से सहयोग करते हैं.

यदि आपको राजकीय चिकित्सालय में चिकित्सा संबंधी किसी भी प्रकार की दिक्कत आ रही हो, तो आपको घबराने की जरूरत नहीं है. आप अपने स्तर पर समस्या को यदि नहीं सुलझा पा रहे हो तो अनिल गोदारा को ढूंढिए. यदि यह शख्स वहां हुआ तो यकीन जानिए आपकी समस्या का बेहतर समाधान उपलब्ध होगा. किसी कारणवश यदि अनिल मौके पर नहीं है तो आप फोन कर लीजिए. आपको महसूस होगा कि आपने सही नंबर डायल किया है. आखिर सूरतगढ़ को यूं ही तो नाज़ नहीं है अनिल गोदारा पर !

लगे रहो मेरे दोस्त ताकि ये उदास सी दुनिया सुंदर बन सके.

Tuesday, 18 May 2021

बमों से कब तक खैर मनाइएगा !

-  लगातार मिल रहे हैं जिंदा बम


- मूकदर्शक हैं पुलिस और प्रशासन

- अग्निकांड के 20 साल बाद भी नहीं थम रहा सिलसिला

(खास रपट)
डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित श्रीगंगानगर जिले की सूरतगढ़ तहसील में सेना के जिंदा बमों के मिलने का सिलसिला जारी है. पिछले एक सप्ताह में ही इंदिरा गांधी नहर के समीप अलग-अलग स्थानों पर दस जिंदा बम लावारिस हालत में पड़े मिले हैं. प्रथम दृष्टया ये बम काफी पुराने लगते हैं लेकिन इसके बावजूद यह पूरा मामला अत्यंत गंभीर है और सेना के साथ-साथ हमारी प्रशासनिक व्यवस्थाओं पर बड़े सवाल खड़े करता है. 

कल्पना कीजिए कि इंदिरा गांधी नहर में मिले ये बम यदि जल के बहाव के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में चले जाते और वहां किसी भी रासायनिक प्रक्रिया अथवा अन्य कारणों से इनमें विस्फोट होता तो जान माल का कितना बड़ा नुकसान होता. ऐसे जाने कितने बम आसपास के क्षेत्र में दबे पड़े हैं, पुलिस और प्रशासन को इसकी कोई जानकारी नहीं है. जबकि गोला बारूद के मामले में ऐसी लापरवाही कई बार बहुत भारी पड़ती है. 

इस इलाके में पूर्व में भी अनेक स्थानों पर इस प्रकार के जिंदा बम मिलते रहे हैं. पिछले कुछ सालों से रेलवे लाइन और राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 62 के आसपास इन बमों के मिलने का सिलसिला लगातार जारी है. कभी खेतों में, तो कभी नहरों में मिलने वाले इन बमों के संबंध पुलिस और सेना इतना करती है कि इन्हें मौके पर जाकर डिफ्यूज करवा देती है. संबंधित थाने के रोजनामचे में इसकी एक रपट दर्ज होती है. जिसके आधार पर पुलिस सेना को सूचना दिए जाने और बम डिफ्यूज होने का विवरण अपने रिकॉर्ड में दर्ज कर लेती है. बस किस्सा खत्म....! 

सेना अपने स्तर पर इन बमों के संबंध में जो कार्यवाही करती है, उसकी जानकारी मीडिया तक पहुंच ही नहीं पाती. सवाल यह उठता है कि आखिर ये जिंदा बम आते कहां से है ! 

दरअसल, पुलिस और सेना दोनों ही ऐसे मामलों को सन 2001 में बीरधवाल आयुध डिपो में लगी भीषण आग से जोड़कर देखती है. उनकी मानें तो ये वही बम हैं जो उस अग्निकांड के प्रभाव से उछलकर दूर-दूर तक जा गिरे थे.

यदि वाकई ऐसा है तो मामला और गंभीर हो जाता है. जो जिंदा बम आज मिल रहे हैं, वे आयुध डिपो के स्टॉक रजिस्टर 2001 में दर्ज बम स्टॉक का हिस्सा है, इसके बारे में पुलिस-प्रशासन को कोई पुख्ता जानकारी नहीं है और सेना इस तरह की कोई रिपोर्ट जारी नहीं करती. खुफिया एजेंसियां ऐसे मामलों में सक्रिय होती जरूर है लेकिन वे क्या रिपोर्ट देती हैं, सरकारी स्तर पर इसका खुलासा कभी भी नहीं किया गया है.

मूकदर्शक बना है पुलिस-प्रशासन

सैन्य दृष्टि से सूरतगढ़ भारत का एक महत्वपूर्ण केंद्र है जहां सेना की छावनी और वायु सेना का भूमिगत हवाई अड्डा है. सूरतगढ़ से ही सटी हुई महाजन फील्ड फायरिंग रेंज है जहां बोफोर्स तोपों की ट्रेनिंग होती रही है. ऐसे मामलों में सेना, पुलिस और प्रशासन को चाहिए कि ऐसे मामलों के स्थाई निस्तारण का प्रयास हो. अभी न जाने कितने जिंदा बम इस क्षेत्र में जमींदोज है जो कभी भी संकट खड़ा कर सकते हैं. उन बमों को खोजना और उन्हें डिफ्यूज करना अत्यंत आवश्यक है लेकिन सेना के साथ-साथ पुलिस और प्रशासन भी मूकदर्शक बने हुए हैं.

जिला कलेक्टर जाकिर हुसैन से जब इस संबंध में बातचीत की गई तो उन्होंने इसे गंभीर मामला बताया. उनका कहना था कि इस मामले में सेना के अधिकारियों से विस्तृत बातचीत की जाएगी और यदि जरूरत हुई तो एक बार फिर पूरे क्षेत्र में सर्च अभियान चलाया जाएगा. 

जिंदा बमों के इस मामले में स्थानीय प्रशासन को चुस्ती दिखाने की जरूरत है. इन दिनों में इंदिरा गांधी नहर में बंदी चल रही है और कोरोना लॉकडाउन के चलते आवागमन भी कम है. ऐसे समय में उन्हें सेना के साथ मिलकर आयुध डिपो के आसपास के इलाके में सघन खोज अभियान चलाना चाहिए. यह प्रयास में केवल जमींदोज हुए बमों के खतरों को दूर करेगा बल्कि आए दिन मिलने वाले बमों के मामलों में पुलिस की परेशानियों को भी घटा देगा.

क्या था बीरधवाल आयुध डिपो अग्निकांड

लगभग 20 साल पूर्व सन् 2001 में राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 62 पर स्थित बिरधवाल आयुध डिपो में एक भयानक अग्निकांड हुआ था. इस अग्निकांड में बड़ी संख्या में सेना का गोला बारूद नष्ट हो गया था. यहां तक कि सूरतगढ़ शहर और आसपास के इलाकों को खाली करवाने का भी अलर्ट जारी हो गया था. लेकिन खुशकिस्मती यह रही कि भीषण आग पर बड़ी जल्दी काबू पा लिया गया था. इस घटना के बाद सेना ने इलाके भर में बिखरे जिंदा एवं मृत बमों को एकत्रित करने के लिए सेना खोज अभियान भी चलाया था. 

लेकिन इलाके में मिलने वाले जिंदा बम इस खोज अभियान की पोल खोल रहे हैं. यदि आयुध डिपो के स्टॉक रजिस्टर का भौतिक सत्यापन ठीक ढंग से हुआ होता तो गायब हुए इन बमों की जानकारी सेना के पास अवश्य होती. ऐसा प्रतीत होता है कि अग्निकांड के बाद बचे हुए बम स्टॉक को ही वास्तविक रिकॉर्ड मान लिया गया और कम हुए स्टॉक को आग की भेंट चढ़ा हुआ दिखा दिया गया. 20 साल बाद भी इलाके भर में मिल रहे जिंदा बम इस लापरवाही को उजागर करते हैं.

Sunday, 16 May 2021

सावधान ! बिगड़ रहे हैं हालात

 

- 24 घंटों में कोविड केयर सेंटर में 5 व्यक्तियों की मौत
- संदेह के घेरे में है मौत के सरकारी आंकड़े
- शहर में बढ़ रहे खतरे की गंभीर दास्तां


सूरतगढ़ के राजकीय चिकित्सालय में बने कोविड केयर सेंटर में पिछले 24 घंटों में 5 व्यक्तियों की मौत हो गई है जबकि प्रशासनिक आंकड़ा पूरे गंगानगर जिले में ही इसे शून्य बता रहा है. 

सूरतगढ़ में कोविड-19 का असर कितना गंभीर है, इसे सरकारी आंकड़ों की बजाय यथार्थ के धरातल पर देखा जाना जरूरी है. सरकारी दावे भले ही स्थिति को नियंत्रण में बता रहे हों लेकिन वास्तविकता यह है कि इस बीमारी से होने वाली मौतों में निरंतर इजाफा हो रहा है.

कोविड केयर सेंटर में 24 घंटों में हुई 5 व्यक्तियों की मौत का यह मामला इसलिए गंभीर हो जाता है है कि इस सेंटर पर कुल 30 बेड ही उपलब्ध है और इनमें से कोई भी खाली नहीं है. 30 मरीजों में से पांच की मौत होना कोई छोटी बात नहीं है. हालांकि जन सहयोग के चलते इस सेंटर पर तुलनात्मक रूप से जिले के अन्य केंद्रों की अपेक्षा बेहतर भौतिक व्यवस्थाएं हैं लेकिन विशेषज्ञ चिकित्सकों और जीवन रक्षक दवाओं व उपकरणों के अभाव के चलते इस केंद्र की जोखिम कम नहीं है जबकि यह सामुदायिक केंद्र जिला मुख्यालय के बाद सबसे बड़ा स्वास्थ्य केंद्र है. 

संदेह के घेरे में है मौत के सरकारी आंकड़े


गंभीर बात यह है कि इस केयर सेंटर पर भर्ती होने वाले रोगियों के कोरोना संक्रमण की जांच रिपोर्ट ही समय पर उपलब्ध नहीं होती. ऑक्सीजन लेवल नीचे होने और अन्य लक्षणों के आधार पर मरीज को इस केंद्र पर भर्ती कर लिया जाता है. उसे कोरोना है या नहीं, इसकी जांच रिपोर्ट के बगैर ही उसे कोरोना संक्रमितों के साथ भर्ती करना अपने आप में संभावित खतरे को जन्म देना है. इन रोगियों में से जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो सुरक्षा की दृष्टि से प्रशासन उनका कोविड-19 प्रोटोकोल के तहत संस्कार करवाता है. लेकिन मजे की बात देखिए ऐसे रोगी की मृत्यु का आंकड़ा प्रशासनिक रिकॉर्ड में दर्ज नहीं होता क्योंकि उस मरीज की मौत कोरोना से हुई अथवा नहीं, इसकी जानकारी प्रशासन को नहीं है. ऐसी असामयिक मौत को कोरोना मृत्यु में शामिल न किया जाना अपने आप में एक मजाक है.

यही कारण है कि पिछले 24 घंटे में इस केंद्र पर मरने वाले 5 व्यक्तियों की गिनती सरकारी आंकड़े में दर्ज नहीं है. जरा सोचिए, मरीज मर चुका है लेकिन उसके संक्रमण की जांच रिपोर्ट अभी तक आई ही नहीं है. प्रशासन को कम से कम इतनी व्यवस्था तो करनी चाहिए कि सेंटर पर भर्ती मरीजों की जांच रिपोर्ट प्राथमिकता के साथ तुरंत उपलब्ध हो सके. दूसरा पहलू भी अत्यंत गंभीर है. कल्पना करें कि जिस व्यक्ति का ऑक्सीजन लेवल कोरोना की बजाय किन्ही अन्य कारणों से घट गया हो, उसे भी संभावित कोरोना पीड़ित मानते हुए संक्रमित रोगियों के साथ भर्ती कर देना कैसा मजाक है !

बहरहाल, रविवार को हुई पांच मौतों का यह मामला सीधा-सीधा खतरे का संकेत है कि सभी लोग संभल जाएं और बचाव के लिए नियमों की पालना करें. संकट की इस घड़ी में सभी से अपेक्षा है कि मास्क पहन कर रखें और बिना काम घर से ना निकलें.

Monday, 10 May 2021

आइए, काम की बात करें !


'किसी को भूख से नहीं मरने दें'


बहुत शिकायतें कर ली, बहुत उलाहने दे लिए, सरकारों के साथ सिस्टम को ताने देने व छींटाकशी में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है हमने. लेकिन संकट की इस घड़ी में आइए, कुछ काम की बात कर लें ताकि आपकी और हमारी, यह बदरंग होती दुनिया बची रह सके. यदि जिंदा रहे तो हम एक-दूसरे से नजरें मिला सकें.

कोरोना लहर के दूसरे संकट काल में सरकारों ने शहरों और गांवों में लॉकडाउन कर दिया है. इसके चलते अफरा-तफरी से भरा जीवन मानो ठहर सा गया है. आप सिर्फ इतना करें कि तमाम शिकायतों और उलझनों के बीच थोड़ी देर के लिए अपने आसपास के चेहरों को याद करें, उन्हें तलाशें. हो सकता है उनमें से कई लोग दो वक्त की रोटी के संकट से जूझ रहे हों. इन चेहरों में आपके जाने-पहचाने प्लंबर, बिजली के मिस्त्री, कुकर/गैस ठीक करने वाले, आपका घर बनाने वाले दिहाड़ी-मजदूर, टेंपो-रिक्शा चालक, मोची, गोलगप्पे वाले, फेरीवाले या फिर कोई जरूरतमंद विद्यार्थी हो सकते हैं. यहां तक कि आपका पड़ोसी या कोई दोस्त भी हो सकता है जिसे आपकी जरूरत हो लेकिन शर्म के कारण वो आपसे कह ही नहीं पा रहा हो. 

शेख सादी ने सदियों पहले कहा था- '...इससे पहले कि लोग तुम्हें मुर्दा कहें नेकी कर जाओ.'  

बस, पूरी ईमानदारी के साथ आप अपने दोस्तों और ऐसे करीबी लोगों से बात करना शुरू करें. जरूरतें हमेशा रुपए-पैसे की ही नहीं होती बल्कि कभी-कभी आटा, सब्जी, दूध और रोजमर्रा के काम आने वाली साधारण चीजें भी इस संकट में अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है. यदि हम संकट के दौर में अपनी चीजों को बांटना सीख लें तो बुरा वक्त भी निकल सकता है. यदि आप वास्तव में चाहते हैं कि यह दुनिया बनी रहे तो आप अपने करीबियों को भरोसा दिलाएं कि मेरे पास अगर दो रोटी है तो.मैं उसे आपके साथ बांटने के लिए तैयार हूं. पिछले लॉकडाउन के वक्त बहुत सी समाजसेवी संस्थाएं और स्थानीय प्रशासन अपने-अपने ढंग से लोगों की मदद कर रहे थे लेकिन इस बार कड़े नियमों के चलते ऐसा कुछ सहयोग अभी तक नजर नहीं आता. सोशियल डिस्टेंसिंग और लोक डाउन के नियमों की पालना करते हुए आप ऐसी पहल कीजिए. यकीन जानिए लोग आपका अनुसरण करने लगेंगे. कारवां ऐसे ही तो बनता है. वैश्विक संकट से जूझने का इतिहास ऐसे प्रयासों से ही तो लिखा जाने वाला है.

एक छोटे से उदाहरण से शायद आप बेहतर समझ पाएं. आइए, हम प्रण लेते हैं कि अपने आसपास किसी को भूखा नहीं रहने देंगे. भूख से किसी को मरने नहीं देंगे. राजस्थान में इंदिरा रसोई का संचालन हो रहा है जहां केवल मात्र ₹8 का भुगतान कर भरपेट भोजन किया जा सकता है. संकट काल में ऐसी इंदिरा रसोई किसी अन्नपूर्णा से कम नहीं. यहां से भोजन के पैकेट की व्यवस्था की जा सकती है. इस पुनीत काम में राज्य सरकार भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. स्थानीय निकाय के सहयोग से हम इस व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त कर सकते हैं ताकि हमारे आसपास किसी भी व्यक्ति को भूखा नहीं रहना पड़े. यहां तक कि इस भोजन का न्यूनतम शुल्क जो कि ₹8 है, उसकी व्यवस्था भी जन सहयोग या फिर प्रशासन द्वारा की जा सकती है. 

यकीन जानिए, आप के ऐसे प्रयास भले ही रामसेतु की गिलहरी सरीखे हों लेकिन जीवन संघर्ष के इस दौर में किसी ऑक्सीजन से कम नहीं.

तो आइए, काम शुरू करें. और हां, ऐसी मदद का अहसान कभी भूल कर भी न जताएं अन्यथा आपका सारा करा-धरा गुड़ गोबर हो जाएगा जो मैं कतई नहीं चाहता. 

-रूंख


भाषायी लालित्य लिए मन को छूनेवाली कहानियां

- मनोहर सिंह राठौड़ ( पांख्यां लिख्या ओळमा की समीक्षा ) राजस्थानी और हिंदी भाषा के वरिष्ठ साहित्यकार मनोहर सिंह जी राठौड़ का कला और संस्कृति ...

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