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धर्मराग

धर्मराग

धर्म की जय हो
अधर्म का नाश हो
हाथ उठाकर बोल रहे हैं
सभी एक सुर में.

मगर किसी ने नहीं पूछा
कौन से धर्म की जय हो
कौन से अधर्म का नाश हो !

सच पूछिए
इस जय जयकारी हंकारे में
सवाल पूछने की
हिम्मत ही खो बैठे हैं
जबकि कुछ चतुर लोगों ने
गुपचुप ढ़ंग से
हमारे शब्दकोशों में
धर्म की परिभाषा ही बदल दी हैं !

धर्म अब रंगो में बंट गया है
धर्म अब दंगों में बंट गया है
टोपी उछाल कर
पगड़ी को रौंदता धर्म
अब नंगों में बंट गया है.

मानवीय मूल्यों को धारण करना
कहलाता होगा धर्म किसी युग में
आज के दौर में ऐसी उम्मीद
सबसे बड़ी बेवकूफी है
मेरा धर्म बाबाओं की बुआ है
तेरा धर्म कठमुल्लों की फूफी है
मौन को साधता, सृष्टि को बांधता
अब कहां कोई सूफी है !

मनु को तुम मानते नहीं
बुद्ध को तुम जानते नहीं
मोहम्मद और यीशु को
जान कर भी पहचानते नहीं
फिर किससे पूछोगे, कौन बताएगा
क्या है असली धर्म
और क्या है उसका मर्म ?

सभ्यताओं की शताब्दियां
गुजरने के बाद भी
भूखे का धर्म रोटी ही है
शिकारी का धर्म बोटी ही है
भरे पेट में धर्म रूप बदल कर
आदर्शों की कथा कहता है
सदियों से पेट का धर्म पालता जन
भय, भूख और लाचारी सहता है
चाशनी में लपेटकर
चूसनी थमाना
सत्ता का धर्म है
बड़ा छोटे को खाएगा
यह कुदरत का कर्म है.

फिर तुम्ही बताओ
कौन से धर्म की जय कहें
क्या यह बेहतर नहीं है
धर्मों से भरी इस दुनिया में
हम सिर्फ आदमी बन कर रहें !
-रूंख

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