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बामुलाहिज़ा


कुछ आंखों में किरकिरी बन रड़कता हूं मैं
उठते बैठते उनके बाएं अंग में फड़कता हूं मैं

शोर बहुत करती हैं अधजल छलकती गगरियां
कोलाहल में शंकर के डमरू सा खड़कता हूं मैं

यूं तो कटे-फटे नोट भी बाजार में चल जाते हैं
आशिक की जेब में पड़े नोट सा कड़कता हूं मैं

प्रेम से गर्दन उतारे ये हक है हर चाहने वाले का
मुखौटों में छिपे दगाबाजों पर भड़कता हूं मैं

नफरतों के दौर में सियासत क्या डराएगी मुझे
मनमौजी, मोहब्बत भरे दिलों में धड़कता हूं मैं.

#रूंख

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