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आनंद थियेटर और एक साठ की टिकट



पगडंडियों के दिन (8) - रूंख भायला

'किताबों में छपते हैं चाहत के किस्से
हकीकत की दुनिया में चाहत नहीं है
जमाने के बाजार में ये वो शह है 
कि जिसकी किसी को जरूरत नहीं...'

आनंद सिनेमा हनुमानगढ़

आनंद थिएटर ! जिसमें बजने वाले इस पहले गीत ने कस्बे के युवा दिलों को सपनों की रंगीनियों में जीने के अंदाज सिखाए थे. उसकी चर्चा कभी हर नुक्कड़ पर हुआ करती थी. मनोरंजन की दुनिया का बेताज बादशाह बना 'आनंद सिनेमा' हनुमानगढ़ जंक्शन में वाकई आनंद का सागर बन अवतरित हुआ था. हालांकि थिएटर तो 'दिनार सिनेमा' और 'विजय टॉकीज' पहले से ही खुले हुए थे लेकिन वे हनुमानगढ़ टाऊन में थे जो किसी दूसरे कस्बे की तरह 5 किलोमीटर दूर स्थित था.

1978 में रिलीज हुई त्रिशूल फिल्म का यह गीत जब आनंद थिएटर के सिनेमास्कोप पर्दे पर पहले दिन, पहले शो में चल रहा रहा था तो पूरे टाउन-जंक्शन में उस दिन चारों ओर एक ही चर्चा थी- 'आनंद थेटर चालू होग्यो.' बॉलीवुड के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के जलवे उन दिनों चरम पर थे लिहाजा आनंद थिएटर के शुभारंभ के लिए उनकी नई रिलीज हुई फिल्म 'त्रिशूल' लगाई गई. थिएटर संचालकों द्वारा पहले दिन के पहले शो की पहली टिकट खरीदने वाले दर्शक को पुरस्कार स्वरूप हाथ घड़ी भी पहनाई गई थी. उन दिनों टिकट खिड़की में हाथ डालकर टिकट लेना भी जंग जीतने के बराबर हुआ करता था. पहली बार फिल्म देखने आए नौसिखियों के हौंसले तो टिकट खिड़की के आगे लगी लंबी-लंबी कतारों से ही पस्त हो जाते थे. उस समय टिकटों के ब्लैक का माहौल कम ही देखने को मिलता था.

उन दिनों डॉल्बी सिस्टम और डिजिटल पीवीआर का जमाना नहीं था बल्कि फिल्में कैमरा रीलों पर बना करती थी. फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर द्वारा इन कैमरा रीलों के बड़े-बड़े रोल लोहे के एक बक्से में रखे जाते जिसे फिल्म की पेटी कहा जाता था. एक फिल्म में छ: से नौ रोल तक हुआ करते थे. आज के दौर में जब हम एक पेन ड्राइव में 10 फिल्में इकट्ठी डाल सकते हैं तो कल्पना कीजिए कि वह कैसा दौर रहा होगा जब फिल्म की एक पेटी में 40 से 50 किलो तक का वजन होता था. इन सीलबंद पेटियों को रेलवे की माल परिवहन सेवा द्वारा पूरे देश में भिजवाया जाता था जहां से ये थिएटर तक पहुंचती थी. ह3नुमानगढ़ जंक्शन रेलवे स्टेशन पर जब नई फिल्म की पेटी उतरती तो हमें ही सबसे पहले पता चलता कि कौन सी फिल्म लगने वाली है. 

...तो आनंद सिनेमा खुलने से हनुमानगढ़ जंक्शन वालों के पास भी अकड़ने का एक मुद्दा हो गया जो टाऊन वालों को समय-समय पर नीचा दिखा ही देता. जब कभी रिलीज होने वाली कोई चर्चित फिल्म दिनार सिनेमा और विजय टॉकीज की बजाए आनंद थिएटर में लगती तो टाऊन वाले फिल्मी रसियों को जंक्शन आना ही पड़ता. आनंद थिएटर के निकट भट्टा कॉलोनी, लोको, रेलवे कॉलोनी और पुरानी खुंजा पड़ती है जहां से लोग पैदल ही फिल्म देखने आ जाते थे. बाकी लोगों को आनंद थिएटर पहुंचने के लिए टैंपू का सहारा लेना पड़ता था. निजी वाहन कहां हुआ करते थे उन दिनों !

थियेटर में बजती सीटियां
 
थिएटर में फिल्म शुरू होने के बाद जब कोई दरवाजा खोलता तो पूरा थिएटर एक साथ चिल्लाता- 'बंद करो, टैम सर कोनी आइजै के.' गेटमैन अंधेरे हॉल में अपनी टॉर्च के सहारे देरी से आने वालों को सीट पर बिठा देता. परदे पर चल रही फिल्म में मारधाड़ वाले सीन पर पूरा हॉल पब्लिक की सीटियों से गूंज उठता. तालियों की गड़गड़ाहट के बीच हीरो जब विलेन को पछाड़ता तो सबमें तेज सिटी बजाने की होड़ लग जाती. उंगलियों को मुंह में दबाकर सीटी बजाने की यह कला सबके पास नहीं थी. इसे सीखने के लिए हम जैसे नौसिखिए उस जमाने के महारथी गुरुओं के चरणों में बैठा करते थे. सीखने की प्रक्रिया में लगन न होने के कारण हमारे होठों से अक्सर फूंक ही निकला करती थी. जीवन के लंबे रास्ते पर ठोकरें खाने के बाद आज गुरुओं की सीख समझ आई है कि हर काम में मन की लगन जरूरी है.

हाई स्कूल में पढ़ने वाले हम दोस्त अक्सर आनंद थिएटर में फिल्म देखने जाया करते थे. कई बारी यह सौभाग्य हेडमास्टर भंवरु खान जी की मार से बचने के लिए या फिर राम नारायण गुरु जी के विशेष अनुग्रह से भी प्राप्त होता था. 10:00 से 4:00 के स्कूल टाइम में फरार होकर 12:00 से 3:00 का शो देखने का आनंद सिर्फ आनंद थिएटर में ही मिल सकता था. उन दिनों टिकट भी क्या लगती थी. एक रूपया 40 पैसे और एक रूपया 60 पैसे. आपको पता ही है कि बालकनी और बॉक्स में बाल सुलभ चंचल मन कहां बैठ पाता है ! 

ऐसी ही एक फिल्म 'तुम पर हम कुर्बान' स्कूल टाइम में दोस्तों के साथ देखी थी जिनमें संजय गुप्ता, राधेश्याम सोनी, आनंद तिवाड़ी, कुलविंदर, तेजेंद्रपाल, जाकिर, बलजीत पन्नू, सुभाष आदि शामिल थे. बिना वर्दी पहने स्कूल आने के कारण हेडमास्टर भंवरुखां जी सब को पहले मुर्गा बनाया और फिर दो-दो तल्लड़ का प्रसाद देकर घर रवाना कर दिया था. और हम पढ़ेसरी घर पहुंचने की बजाय जा पहुंचे थे आनंद थिएटर ! सब ने बड़ी मुश्किल से पैसे इकट्ठे कर टिकट खरीदी थी. टिकट खिड़की वाले ने शायद तरस खाकर स्टूडेंट कंसेशन भी दे दिया था. विद्यार्थियों की जेब में पैसे कहां हुआ करते थे उन दिनों ! संजय गुप्ता तो बहुत दिन तक इस फिल्म में लड़की द्वारा बोले जाने वाला डायलॉग स्कूल में बोलता रहता था - 'तो वो तुम थे !' 

स्कूल के दिनों में एक नियम और हुआ करता था. परीक्षा समाप्त होने वाले दिन सारे विद्यार्थी थिएटर में मिला करते थे. उन्हीं दिनों टाऊन-जंक्शन के बीच में आशीष थिएटर भी शुरू हो गया था. परीक्षा देने से पूर्व ही तय कर लिया जाता कि कौन सी फिल्म देखेंगे. घर पर भी पता होता कि आज लाडेसर फिल्म देखने गए हैं. बहुत बार ऐसा भी हुआ कि आज फिल्म विजय थिएटर में देखेंगे. और देखते ही देखते मित्रों का समूह भगत सिंह चौक से विजय थिएटर की तरफ पैदल ही दौड़ रहा होता. मस्ती का आनंद लेने के लिए दुर्गा कॉलोनी के मित्र भी जेब में पैसे होने के बावजूद इस पैदल दौड़ में शामिल हो जाते. रास्ते में कोई ऊंट गाडा या ट्रैक्टर मिल जाए तो आपकी किस्मत, नहीं तो खेतों के नजारे देखते हुए बात ही बात में थिएटर पहुंच जाते. 

उन दिनों एयर कंडीशनर का तो नाम भी पता नहीं था. हां, थिएटर्स में कूलर हुआ करते थे. मुझे याद है कि भट्टा कॉलोनी के बहुत से मित्र और उनके बड़े भाई तो गर्मियों के उमस भरे दिनों में एक साठ की टिकट खरीद कर आनंद थिएटर के रात के शो में कूलर के आगे सोने के लिए जाया करते थे. इनमें अशोक भाईसाहब, भगवानदास भाईसाहब, राजेंद्र भाईसाहब, राधेश्याम, विनोद, जगमाल, और राजू आदि शामिल थे.

जगमाल भाई, जिनका कुछ दिनों पहले एक दुर्घटना में देहांत हो गया, की एक बात अक्सर मुझे याद आती है. वे फिल्मों के बड़े रसिया थे और आनंद सिनेमा में लगने वाली हर फिल्म देखते थे. गर्मियों के दिनों में तो रात 9 से 12 का शो लगभग पक्का था. मैं उनसे जब किसी फिल्म के बारे में पूछता-

'भाई फिल्म कैसी है ?'

उनका जवाब होता-

'एक बार देखने लायक तो है.'

मैं जब इस बात पर हंसता तो वे दार्शनिक अंदाज में कहते-

'यार टोनी, फिल्म बनाने वाले ने कितनी मेहनत और रूपया लगाकर फिल्म बनाई है, क्या हमारा फर्ज नहीं बनता कि हम सिर्फ एक रूपया साठ पैसा खर्च कर उस फिल्म को देखने तो जाएं.'

और मैं निरुत्तर हो जाता. उत्तर तो मुझे आज भी नहीं मिलता जब मैं समय के प्रहार से उजड़कर वीरान हुए आनंद थिएटर के आगे से कभी गुजरता हूं. एक पल को लगता है कि खचाखच भरे हुए इस हॉल में गूंजती सीटियों को सुन सिनेमास्कोप परदे पर थिरकते सारे किरदार जीवंत हो उठेंगे लेकिन अगले ही पल दिमाग के किसी कोने में गीत भरता है-

कल चमन था, आज एक सहरा हुआ 
देखते ही देखते हुए क्या हुआ.....!
-रूंख

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