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लोकहित की अवधारणा को धूमिल करता है निजीकरण
वित्तीय प्रबंधन प्रत्येक राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण होता है जो उसके विकास को गति और दिशा देता है. लेकिन यह कॉरपोरेट सेक्टर के वित्तीय प्रबंधन से पूर्णतया भिन्न है. देश की बैलेंस शीट में जहां लाभ की बजाय जनकल्याण महत्वपूर्ण होता है वहीं व्यवसायिक उपक्रम हमेशा लाभ की अवधारणा पर काम करते हैं. वास्तव में किसी देश की अर्थव्यवस्था में लाभ जैसा तत्व होता ही नहीं है बल्कि वहां तो सामाजिक विकास को केंद्र में रखते हुए 'आय या खर्चों का आधिक्य' ही विकास का पैमाना माना जाता है. कॉरपोरेट और राष्ट्र की बेलेन्स शीट का यही मुख्य भेद सरकारों को उपलब्ध संसाधनों के निजीकरण की ओर खींचता है. इससे पूंजीगत संसाधन एक वर्ग विशेष के हाथों में इकट्ठे होने लगते हैं जो अंततः सत्ता का रूप धर लेते हैं. ऐसी स्थिति में आर्थिक विषमताओं को कम करने और राष्ट्रीय विकास के दिव्य स्वप्न धूमिल होने लगते हैं.
आज परिस्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी हैं. हालात यह है कि आधारभूत ढांचे से जुड़े उद्योगों में शत प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश की छूट है. यहां तक कि सुरक्षा से जुड़े उपक्रमों में भी अंबानी समूह की सेंध लग चुकी है. आजादी के दौर में जहां सामाजिक सुरक्षा और जनकल्याण को ध्यान में रखते हुए रेलवे, उड्डयन, जहाजरानी, बैंक, बीमा आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण किया गया था, वहीं आज के दौर में ये सारे निजी क्षेत्र के लिए खोल दिए गए हैं. बेहतर प्रबंधन और उपभोक्ताओं को अच्छी सुविधाएं मिलने के तर्क देकर सरकारें पूरी तरह से पूंजीगत संस्थानों की तरफदारी करती दिखाई दे रही है.
-रूंख
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