Search This Blog

Monday, 18 January 2021

तुम से तुम तक पहुंचने की तड़फ

 
(एकालाप विधा में रजनी दीप की कृति 'खुसरो बाज़ी प्रेम की...खेलें मैं और तुम' के बहाने...)


हमारे लोक साहित्य में प्रेम का ताना-बाना बड़े सरल शब्दों में बुना गया है. बुल्ले शाह ने तो यहां तक कहा है कि 'बुल्लया दिल नूं की समझावणा, ऐत्थों पुटना ते ओत्थे लावणा'. 'प्रेम गली अति सांकरी...' या फिर 'मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई...' के भाव भी उसी रीत का निर्वहन करते जान पड़ते हैं जो युगों-युगों से मानवीय संवेदनाओं में अभिव्यक्त होती रही है. प्रेम वह अनुभूति है जिसे महसूस करने के लिए आपको प्रेम में होना पड़ता है. आप नदी में उतरे बिना तैरना नहीं सीख सकते उसी प्रकार प्रेम में पड़े बिना आप उसे परिभाषित नहीं कर सकते.

 दरअसल, प्रेम का विस्तार अनंत और निराकार है जिसे महज स्त्री-पुरुष या भौतिक जगत के दूसरे संबंधों में बांधा ही नहीं जा सकता. समंदर की तरफ भागती नदी हो या थार पर मंडराती बदली, दोनों में जो कशिश है, खिंचाव है वह प्रेम का ही एक अनूठा रूप है. ओशो ने इस विषय की बड़ी सूक्ष्मता से विवेचना की है जहां प्रेम अंततः ध्यान और अध्यात्म का पथगामी बन जाता है.

प्रेम में पाने और खोने की दुनियावी बातें अनेक बार कही चुकी है लेकिन प्रेम में होने को लेकर अभी बहुत कुछ कहा जाना शेष है. रजनी दीप की एकालाप विधा में रची गई कृति 'खुसरो बाज़ी प्रेम की...खेलें मैं और तुम' इसी शेष की भरपाई का प्रयास करती है. प्रेम में होने और उसे ईमानदारी के साथ शब्दों में अभिव्यक्त करने को रजनी दीप का सिर्फ लेखकीय कौशल कहना भर ठीक नहीं होगा. धर्मवीर भारती के शब्दों में कहूं तो उनका यह रचाव पीड़ा के क्षणों में प्रार्थना गुनगुनाने जैसा है. इस कृति का समर्पण भी प्रेम के नाम है जिसने अपने होने को सार्थक किया है. पुस्तक में अपने प्रियतम के इर्द-गिर्द बुने गए एकल संवाद के ताने-बाने इतने सरल और ग्राह्य हैं कि पाठक उनकी संवेदना के साथ बहता चला जाता है. मनोभावों को स्थूल और सूक्ष्म के भेद बिना एक बिंदु के चहुंओर इस ढंग से बांध लेना कि सब कुछ बंधन मुक्त होकर अनावृत्त हो जाए और उसकी सुगंध देर तक आपको महकाती रहे, तो कहना चाहिए कि आप वाकई प्रेम में होने को बांच रहे हैं. 

एकालाप विधा साहित्य की अनूठी विधा है जिसमें आप खुद सवाल खड़े कर उनका उत्तर ढूंढते हैं. हर्ष और विषाद के क्षणों में आंतरिक अभिव्यक्ति जब खुद से संवाद स्थापित कर लेती है तो एकालाप का जन्म होता है. प्रेम जैसे गंभीर विषय पर होने वाले एकालाप को हर निश्छल मन महसूस तो करता है लेकिन उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता. रजनी ने अपनी लेखनी से उन्हें गद्य और कहीं कहीं पद्य का आकार देकर 'बकसुए' में बांधने का सराहनीय प्रयास किया है. इनकी बानगी देखिए-

- सूरज की महबूबा समय की बड़ी पाबंद है !

- मैं जैसे ही तुम्हें देखती हूं...पत्थर से जाने कब...पानी बन तेरी और बहने लगती हूं...

- कैसे पढ़ लेते हो तुम मेरा मन ? ...शायद इसलिए कि अब मेरा कुछ मेरा रहा ही नहीं ! ...यह मन भी अब तुम्हारा हो गया है तो यह तुम्हें सब बता देता होगा !

- मन अपने लिए उदास और परेशान होने के तरीके या कारण खोज ही लेता है और...अगर उसे कारण में मिले तो घड़ भी लेता है.

- जीवन में कभी-कभी ऐसे मौके भी आते हैं जब हम मन से इतना कमजोर महसूस करते हैं कि हमें एक ही बात की बार-बार कंफर्मेशन चाहिए होती है.

- जब एक दिन/ सूरज की हांडी में/ मैंने पकाई थी/ मीठी सेवइयां... और चुपचाप/ तुम्हारे सिरहाने रख, सांकल लगा/ आ गई थी वापिस...जुगनू से कभी हंसते /कभी बुझती/मिटा लेती थी/अपने भीतर के अंधेरे को...

- अपनेपन की हद में भेजी गई तुम्हारी एक बिंदी भी मेरे लिए सूरज बन जाती है...पर तुम्हारी बेरुखी में कहे गए ग्रंथ...मेरे कानों तक भी नहीं पहुंचते...

रजनी के रचाव को पढ़ते हुए पंजाबी विरसे का एक लोकगीत स्मृतियों में उभरता है जिसे पंजाब की सुर कोकिला सुरेंद्र कौर ने बड़ी शिद्दत के साथ गाया है-

हर वेल्ले चन्ना मेरा
तेरे वल्ल मुंह ऐं
बुलयां चे नां तेरा 
अखियां चे तूं ऐं
जदों हसदी, भुलेखा मैंनू पैंदा वे 
हासयां चे तू हसदा
एहना अखियां चे 
पांवां कींवे कजला वे
अखियां चे तू वसदा...

प्रियतम को आंखों का काजल बना कर सपने संजोना भले ही नई बात न हो लेकिन उसे अंतस में शीतल शब्दों की नदी के रूप में प्रवाहित करना रजनी दीप की संवेदना और सामर्थ्य को इंगित करता है. यहां काजल सिर्फ काजल भर नहीं रहता बल्कि शून्य में विलीन होने बाद भी उस तुम तक पहुंचने का माध्यम बन जाता है जिसे इस कृति में प्रियतम माना गया है. सही मायने में 'तुम' से 'तुम' तक पहुंचने की तड़फ ही इस एकालाप का सार है जो प्रेम में होने की सही परिभाषा है.

रजनी दीप की एकालाप विधा में रची गई 112 पृष्ठों की इस पुस्तक को बोधी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. पुस्तक का कवर और साज सज्जा भी अपने नाम के अनुरूप आकर्षक है. अपने अनूठे कथ्य और शिल्प के कारण इस कृति में पाठकीय संतुष्टि की भरपूर संभावनाएं विद्यमान है.

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
94140-90492

Saturday, 16 January 2021

सलाइयों वाले स्वेटरों की सुगंध


(80 के दशक में उत्तरी भारत के किसी गुमनाम कस्बे की छोटी सी गली में बिखरी यादों की खुशबू, जहां बड़े दिल वाले लोग रहा करते थे...)

' बब्बू गी मां, टोनी की स्वेटर मांय कित्ता घर घालूं ?'

'70 बहुत होंगे. खुल्ले-खुल्ले डालना.' बड़े सलीके और तेजी से सलाइयां चला रही सक्सेना आंटी ने अपना चश्मा ठीक करते हुए मां की ओर देखा.

दिसंबर के सर्द मौसम की दुपहरी में मोहल्ले की कुछ औरतें मूंज की दो चारपाइयों और सूत के पीढ़ों पर बैठी स्वेटर बुनते हुए बातों का आनंद ले रही थी. बतरस के आगे स्वर्ग के सातों सुख भी फीके जान पड़ते हैं. सूचना क्रांति के इस दौर में मनुष्य से यह बतरस सुख छिन सा गया है तभी तो वह बार-बार यादों के समंदर में गोता लगाने को आतुर होता है. 

'कम तो कोनी रैसी ?' मां ने पूछा.

'ओहदे वास्ते बोत है, किड्डाक तां हैगा !' गोडों में ऊन की लच्छी का घेरा डाले गोले बना रही गेजो मासी बोली. 

...और मां ने सहेलियों के विश्वास से आश्वस्त होकर सलाइयों में अपने बेटे के लिए 'घर' डालने शुरू कर दिए.

घर चाहे स्वेटर के हों या ईंट-पत्थर के, बड़ी शिद्दत के साथ बनाए जाते हैं. सलाइयों में डाला गया घर जहां स्वेटर का आधार बनता है तो सीमेंट गारे से बनने वाला घर परिवार का. इस प्रक्रिया में यदि जरा भी चूक रह जाए तो स्वेटर और परिवार दोनों असहज लगने लगते हैं. शायद इसी वजह से दूसरी औरतों की तरह मां और दीदी भी सलाइयों में घर डालने वक्त बड़ा एहतियात बरतते. हाथों से स्वेटर बुने जाने के दौर में अक्सर अनुभवी महिलाओं से सलाइयों में घर डलवाए जाते ताकि आधार मजबूत और सुंदर बन सके. 

पगडंडियों के उस जमाने में सर्दियां शुरू होते ही बाजारों में ऊन की लच्छियों और गोलों से दुकानें सज जाती. इतनी सारी ऊन और इतने सुंदर रंग कि मत पूछो ! महिलाएं अपनी पसंद के रंग और क्वालिटी की ऊन खरीदने के बाद उसे पूरे मोहल्ले में दिखाती. लच्छी वाली ऊन गोलों से सस्ती होती. यह ऊन ओंस या ग्राम में तोल कर बेची जाती थी जिसका औसत भाव 15 से ₹20 प्रति 100 ग्राम तक होता था. लुधियाना उन दिनों भी देश में ऊन का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता था. इस ऊन के साथ-साथ सलाइयां, जिन पर स्वेटर के बहाने सपने बुने जाते थे, भी महत्वपूर्ण होती थी. एल्यूमीनियम की बनी विभिन्न मोटाई की सलाइयां अपने नंबर से बिका करती थी. पोनी कंपनी अपनी सलाइयों के लिए प्रसिद्ध थी.

सलाइयों में ऊन से डाले गए फंदानुमा दो घरों के जोड़े को 'जोटा' कहते हैं. सलाइयों पर डले इन्हीं घरों से स्वेटर बुनने की शुरुआत होती है. परंपरागत स्वेटर के शुरू में 3 से 4 इंच का बॉर्डर बुना जाता था उसके बाद डिजाइन शुरू होता था. स्वेटर के अगले हिस्से में डिजाइन होता था और पिछले भाग में अक्सर साधारण बुनाई की जाती थी. अगर जर्सी बुनी जा रही हो तो उसके बाजू अलग से बुने जाते थे. इन बुने गए हिस्सों को ऊन से ही सिला जाता था. 

स्वेटरों के डिजाइन में प्रतिस्पर्धा का मत पूछिए. बेहतर डिजाइन की उम्मीद में जाने कस्बे की कितनी गलियां और मोहल्ले लांघती हुई महिलाएं अनजान घरों तक पहुंच जाती. हमेशा की तरह रचनात्मक सोच रखने वाली औरतें स्वेटरों के नए-नए डिजाइन बुनती. मजे की बात देखिए कि ये गुणी महिलाएं बिना किसी पेटेंट या नाज नखरे के अपना डिजाइन आगंतुक महिला को सिखा देती. उस दौर में उनके लिए इतनी खुशी ही पर्याप्त थी कि कोई उनके पास सीखने के लिए आया है. पंजाबी परिवारों की महिलाएं नए डिजाइन तैयार करने में निपुण मानी जाती थी. उन दिनों जालीदार पत्तियां, बेल-बूटे, घुमावदार फंदे, दो रंगी पट्टियां, मोटी मक्खी वाले डिजाइन बेहद चलन में थे. मुझे याद है नए डिजाइन की स्वेटर पहने गली-मोहल्ले से गुजरने वाले स्कूली बच्चों को अक्सर महिलाएं रोक लेती और उनका डिजाइन समझने की कोशिश करती. मेरे जैसे बड़ाईखोर बच्चे गर्व से उन्हें बताते की यह स्वेटर मेरी मां या फिर दीदी ने बुना है. बच्चे ही नहीं बल्कि पापा और चाचा भी नया स्वेटर पहनने के बाद इतराए घूमते थे. मफलर पहनने के बाद तो वे खुद को अभिनेता राजकुमार से कम कहां समझते थे. हाथ से बुना कॉलर वाला कार्डिगन पहनने वाली लड़कियों के अंदाज़ तो क्या ही कहने !

लेकिन अफसोस, आज के मशीनी दौर में सलाइयां, ऊन और स्वेटर बुनने वाली महिलाएं जाने कहां गायब हो गई हैं. हाथ के बुने स्वेटर पहनने वाले लोग भी कहां रहे ! अब तो स्वेटर की ऊन, डिजाइन और क्वालिटी सहित सब कुछ मशीन और तकनीक पर आधारित हो चुका है जिसमें मनमाफिक रंग और आकर्षक डिजाइन तो उपलब्ध हो सकते हैं लेकिन सलाई के साथ शिद्दत से बुने गए स्वेटरों सी सुगंध उनमें चाह कर भी आ नहीं सकती. शायद इसीलिए उस खुशबू और गर्माहट को तलाशता हुआ मन अक्सर अतीत के द्वार खटखटाता है. वाकई स्मृतियों की सीपियां जाने कितना कुछ सहेज कर रखती है.

- डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

Friday, 1 January 2021

जनमत सर्वेक्षण में कासनिया का कार्यकाल रहा बेहद खराब

 सत्ता के विरोध और कोराना ने गिराई कासनिया की छवि


काॅटनसिटी लाइव द्वारा सूरतगढ़ के विधायक रामप्रताप कासनिया के दो वर्षीय कार्यकाल का आॅनलाइन आॅपिनियन पोल करवाया गया था जिसका परिणाम आ चुका है. इस पोल में जो मत प्राप्त हुए हैं उनका पाई चार्ट पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है. 

 

 कासनिया के दो वर्षीय कार्यकाल का आॅनलाइन आॅपिनियन पोल


पोल के अनुसार 18.1 प्रतिशत लोगों ने उनके कार्यकाल को बेहतर बताया है और 13.1 प्रतिशत औसत बता रहे हैं. इस पोल में 47 प्रतिशत से अधिक लोगों ने बेहद खराब का विकल्प चुना है. हालांकि जनमत के अनुसार विधायक का कार्यकाल ठीक नहीं रहा है लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि वे सरकार के विपक्षी दल भाजपा के विधायक हैं और उनके कार्यकाल का एक साल कोरोना ने हड़प लिया है. जनता अपनी राय व्यक्त करती है तो उससे सबक लेने की जरूरत होती है. कासनिया के पास अभी भी पर्याप्त समय है जिसमें वे जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतर सकते हैं. शहरी निकाय में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उन्हें मुखरता से बोलना होगा और इलाके की जनता के बीच पहुंचकर उनके सुख-दुःख मे साथ खड़ा होना ही होगा. आज भी शहरी क्षेत्र में भ्रष्टाचार और अतिक्रमण की समस्याएं जस की तस है. देहात में प्रदेश सरकार की योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच पा रहा है. राज्य सरकार के बजट में भी इलाके के लिए कोई विशेष आवंटन नजर नहीं आता. विद्युत बिलों के बढ़ते बोझ तले दबा आमजन सत्ता और विपक्ष दोनों को कोस रहा है. 

जनमत की राय है कि सिर्फ विपक्षी दल का विधायक होने की कह देने से काम नहीं चलने वाला. विधायक तो विधायक होता है.


चेयरमैन कालवा के कार्यकाल पर जनमत सर्वेक्षण

 पालिका चेयरमैन ओमप्रकाश कालवा 

अपने एक वर्ष के कार्यकाल को बेमिसाल बता रहे हैं !
 

आप क्या कहते हैं ?

कैसा है चेयरमैन का कार्यकाल, इस पर आज ही वोट करें.
इस पोस्ट के अंत में पोल बाॅक्स है, अपनी पसंद का विकल्प चुनें.
पोल 15 जनवरी 2021 की मध्यरात्रि तक खुला है.


ओमप्रकाश कालवा-एक परिचय


मास्टर ओमप्रकाश कालवा को कांग्रेस का एक निष्ठावान कार्यकर्ता माना जाता है. इसी कर्तव्यनिष्ठा का परिणाम है कि उन्हें 2019 के पालिका चुनावों में विजयी रही कांग्रेस पार्टी की ओर से पालिकाध्यक्ष पद हेतु चुना गया. पूर्व में पुरानी आबादी स्कूल में शिक्षक के पद पर सेवाएं दे चुके कालवा अब व्यापारी बन चुके हैं और दो-दो पेट्रोल पम्पों का संचालन कर रहे हैं. 2009 में भी वे पालिकाध्यक्ष पद के मजबूत दावेदार थे और पार्टी द्वारा उनकी टिकट भी लगभग फाइनल कर दी गई थी. लेकिन ऐन वक्त पर उन्हें अगूंठा दिखाकर टिकट किसी दूसरे को थमा दी गई. इस अपमान के बावजूद वे पार्टी के साथ बने रहे जिसका अंततोगत्वा उन्हें फायदा ही मिला.

पालिकाध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने ‘केटल फ्री सिटी’ बनाने की घोषणा की और शहरी विकास में गति लाने के लिए भरसक प्रयास करने की वचनबद्धता दोहराई. कोरोना संकटकाल में वे अपनी प्रतिबद्धताएं कितनी पूरी कर पाए हैं, यह जनता से छिपा हुआ नहीं है. समस्याएं जस की तस होने और बोर्ड में उठा-पटक की भरपूर संभावनाओं के बावजूद कालवा के पास पर्याप्त समय है जिसमें वे चाहें तो विकासदूत के रूप में अपनी अलग पहचान बना सकते हैं.

 

ओपिनियन पोल यानी जनता की राय
 

चेयरमैन के रूप में ओमप्रकाश कालवा का एक वर्षीय कार्यकाल कैसा रहा है, इसे लेकर ‘काॅटनसिटीलाइव’ एक ओपिनियन पाॅल आयोजित कर रहा है. आॅनलाइन आयोजित हो रहे इस पोल में मतदाता को उनके कार्यकाल के लिए ‘बेहतर, औसत, खराब और बेहद खराब’ विकल्प दिये गए हैं जिनमें से एक को चुनकर वोट करना है.  इस सर्वेक्षण का परिणाम मकर सक्रंाति से अगले दिन, 15 जनवरी 2021 घोषित किया जाएगा.

 
कैसे भाग लें ?

इस सर्वेक्षण में कोई भी व्यक्ति भाग ले सकता है और वोट कर सकता है. ओपिनियन पोल में दर्शाए गए चार विकल्पों में से आप अपनी पसंद का विकल्प चुनकर उसे टिक करें और वोट का बटन दबाएं. वोट करने के बाद आपको एक ओटेा जेनेरेटेड मैसेज दिखाई देगा जिसका अर्थ है आपका वोट हो गया है. 15 जनवरी 2021 की मध्यरात्रि तक  खुले इस सर्वेक्षण में एक व्यक्ति एक ही बार वोट कर सकता है. एक से अधिक बार वोट करने के प्रयास पर आपका वोट निरस्त हो जाएगा और काउंटिग में शामिल नहीं होगा.

 
इस पोल बाॅक्स पर अपना वोट करें.


नगरपालिका सूरतगढ़ के चेयरमैन ओमप्रकाश कालवा के एक वर्ष का कार्यकाल कैसा रहा है ?
बेहतर
औसत
खराब
बेहद खराब
Disclaimer

यह सर्वेक्षण मीडिया की जागरूकता और पारदर्शिता के सिद्धांतों पर आधारित है जिसमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है. ‘काॅटनसिटी लाइव’ की सर्वेक्षण नीति किसी की व्यक्ति की सामाजिक, राजनीतिक और मानसिक क्षति कारित करने अथवा गरिमा घटाने जैसे कुत्सित प्रयासों का हमेशा विरोध करती है. जनता में लोकतां़ित्रक जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से यह सर्वेक्षण किया जा रहा है जो पूरी तरह से सूचना तकनीक पर आधारित है जिसमें किसी प्रकार की कांट-छांट नहीं की गई है. जनमत में प्राप्त परिणामों के सम्बन्ध में ‘काॅटनसिटी लाइव’ का कोई दायित्व नहीं है. इस सर्वेक्षण के नियमों-कायदों में परिवर्तन करने का विशेषाधिकार ‘काॅटनसिटी लाइव’ के पास सुरक्षित है. 
 

भाषायी लालित्य लिए मन को छूनेवाली कहानियां

- मनोहर सिंह राठौड़ ( पांख्यां लिख्या ओळमा की समीक्षा ) राजस्थानी और हिंदी भाषा के वरिष्ठ साहित्यकार मनोहर सिंह जी राठौड़ का कला और संस्कृति ...

Popular Posts