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Monday 25 May 2020

सिंघम को लील गया सिस्टम ( एक तथ्यात्मक रिपोर्ट)



(विष्णु विष्णु तूं भण प्राणी रे..)

सद्गुरु की सीख तो यही थी. मानव मात्र के कल्याण की सीख. मनुष्य के सद्गुणों को सहेजने की सीख. इसी सीख को जीवन में उतारने की चेष्टा ही तो करता रहा था हमारा विष्णु. फिर आखिर कहां गलती हुई ? एक ऐसे जांबाज और कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी को असमय क्यों जाना पड़ा जो संविधान में अभिव्यक्त लोकसेवक की भूमिका पर पूरी तरह से खरा उतरता था ?


 सोचने की बात है कि विष्णुदत्त पूरी ईमानदारी के साथ जिस सिस्टम की रक्षा करने में जुटा था उसी सड़े-गले सिस्टम नेे उसका भख ले लिया. तो क्या हम मान लें कि इस देश के शब्दकोशों में ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा जैसे शब्द पूरी तरह से अपना वजूद खो चुके हैं ? क्या अब मूल्यों के साथ जीने की कहीं कोई उम्मीद नहीं बची है ? पिछले दो दिन से प्रदेश भर की सुर्खियों में कोरोना लाॅकडाऊन नहीं बल्कि विष्णुदत्त का बलिदान चल रहा है जिसने सबको आहत किया है. जो उन्हें जानते थे वे तो शोकाकुल हैं ही, उनको न जानने वाले भी इस दर्द भरी मौत पर अपनी संवेदनाएं प्रकट कर रहे हैं और सिस्टम को कोस रहे हैं. 

कहने को विष्णु ने आत्महत्या की है लेकिन उपलब्ध साक्ष्य यह संकेत देते हैं कि यह सुनियोजित तरीके से की गई हत्या है. ठीक वैसी ही हत्या, जो दुश्मन द्वारा सरहद पर डटे हुए किसी सैनिक के उठे हुए सर को काटकर की जाती है. यहां भी विष्णु का कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी से भरा हुआ सर जब सिस्टम को नागवर गुजरा तो उसने बड़ी चतुराई के साथ उसे रास्ते से हटवा दिया. और हमारे विष्णु की सरलता देखिए उसने मौत को गले लगाने से पहले सारा दोष अपने सर ले लिया. राहत इंदौरी को इन्हीं हालातों के मद्देनजर यह कहना पड़ा होगा कि-

अब  कहां  ढूंढने  जाओगे  हमारे  कातिल

आप तो कत्ल का इल्जाम हमीं पर रख दो.

हालात तो कुछ ऐसे ही बने हुए हैं जहां सिवाय लीपापोती के कोई संभावना ही नजर नहीं आती. फिर भी इस गंभीर मामले पर सुलग रहे कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं ताकि सुधार का दम भरने वालों के चेहरे उजागर हो सकें.


संदेह के घेरे में खड़ी है खुद पुलिस


राजगढ़ थाने की पृष्ठभूमि किसी से छिपी हुई नहीं है. चूरू जिले के इस थाना क्षेत्र में कई गंभीर आपराधिक गतिविधियों के तार जुडे़ है. प्रदेश में सुनियोजित और संगठित गैंगवार के अनेक मामलों में इस थाना क्षेत्र के अपराधी सम्मिलित रहे हैं. ऐसे में विष्णुदत्त बिश्नोई की राजगढ़ थाने में नियुक्ति होना पुलिस विभाग द्वारा अपराधियों को दिया गया एक अप्रत्यक्ष संकेत था कि अब उनकी कारगुजारियां ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाली. अपराधी वर्ग भी इस बात को बखूबी जानता था कि जिस थानेदार की दबंगई के चर्चे प्रदेशभर के आपराधिक जगत में है उसे यहां किसी खास मकसद से लाया गया है. 

चूंकि अपराध और राजनीति चोली-दामन के साथी हैं लिहाजा षडयन्त्र रचे जाने तो उसी वक्त से प्रारम्भ हो गए थे. ये दिगर बात है कि इन कुचक्रों की बू आने के बावजूद विष्णु अपने मोर्चे पर डटे रहे. थाने के भवन निर्माण मामले में लगे घटिया आरोपों को सिरे से नकारते हुए विष्णु जिस तरह अपने कर्तव्यों को अंजाम देने में जुटे थे उससे राजनीतिक गलियारों में हलचल मची हुई थी. स्वाभाविक है कि डिजायर सिस्टम के चलते लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्तापक्ष के जनप्रतिनिधि पुलिस और प्रशासन पर हर घड़ी अपना शिकंजा कसे रखना चाहते हैं. इस पकड़ को मजबूत बनाने के लिए वे उच्चाधिकारियों को भी सांठ-गांठ कर अपने आईने में उतार लेते हैं और फिर उनके अधीनस्थों पर दबाव डलवाकर अपनी बात मनवाने में सफल हो जाते हैं. हर घड़ी आपराधिक षडयन्त्रों और ओछी राजनीति के दबाव झेल पाना हर पुलिस इंस्पेक्टर के बूते में नहीं होता. या तो वे इस सड़े-गले सिस्टम का हिस्सा बन जाते हैं या फिर विष्णु की तरह सर उठाए हुुए दबाव झेलते-झेलते खुद ही टूट जाते हैं. 

 तथ्य यह है कि पुलिस व्यवस्था में थानाधिकारी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जिला पुलिस अधीक्षक के नियंत्राधीण होकर कार्य करता है. उसके थाना क्षेत्र का पुलिस उपाधीक्षक भी उसके कार्यों को निर्देशित करता है. आईजी भी यदा-कदा थाने में विचाराधीन आपराधिक फाइलों में हस्तक्षेप करता है. अन्वेषण के गंभीर मामलों में थानाधिकारी काम शुरू करे उससे पहले ही दबाव की राजनीति अपना काम शुरू कर देती है. अन्वेषण की फाइल में मनचाहा परिणाम दिला कर अक्सर विधायक अपना दबदबा दिखाने का प्रयास करते हैं. और ऐसी फाइल यदि विपक्षी दल के किसी व्यक्ति से जुड़ी हो तो क्या ही कहने ! 

घटनाएं और उपलब्ध साक्ष्य यह संकेत करते हैं कि ऐसा ही कुछ खेल काफी समय से राजगढ़ थाने की व्यवस्था में खेलने के प्रयास चल रहे थे जिनके आड़े विष्णुदत्त का उठा हुआ सिर आ रहा था. वरना क्या यह संभव है कि जिला पुलिस अधीक्षक और आईजी को अपने सर्वश्रेष्ठ थानाधिकारी द्वारा झेले जा रहे अनावश्यक दबाव की जानकारी ही न हो ! यदि हां तो, अवश्य ही संदेह की उंगलियां उनकी कार्यशैली पर भी उठती है और दबाव में उनकी लिप्तता की संभावनाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता. 

अब जबकि राजगढ़ थाने के 39 लोगों के स्टाॅफ ने एक साथ अपने सामूहिक स्थानान्तरण की प्रार्थना कर दी है तो इन तमाम उच्चाधिकारियों की भूमिका और भी संदिग्ध हो जाती है. जरा सोचिए कैसी विषम परिस्थितियां रही होंगी कि एक विष्णुदत्त के जाते ही सबने हथियार डाल दिए. इसका सीधा मतलब है की पुलिस के उच्चाधिकारी खुद दबाव की ओछी राजनीति में उलझ कर रह गए हैं. अपने अधीनस्थों का मनोबल बनाए रखने की जिम्मेदारी निभाने में पूरी तरह नाकाम रहे इन अधिकारियों का यही निकम्मापन एक कर्मठ पुलिस अधिकारी को खा गया है. बुरी तरह से डरे और मनोबल टूटे हुए ऐसे पुलिस थाने से आम जनता क्या उम्मीद कर सकती है ?
राजनीति के भंवर में फंसी पुलिस व्यवस्था

अब राजनीतिक दबाव का रूख कर लेते हैं. राजगढ़ विधानसभा सीट पर सत्ताधारी दल की विधायक कृष्णा पूनिया हैं और विपक्ष में पराजित हुए बसपा के पूर्व विधायक मनोज न्यांगली. इस मामले पर कृष्णा पूनिया द्वारा दिये गए आरम्भिक बयान ही उन्हें कटघरे में खड़ा करते हैं. विधायक का यह कहना कि वे थानाधिकारी विष्णुदत्त बिश्नोई को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानती और उन्होंने केवल औपचारिक मुलाकात या फोन पर ही बात की है, किसी के गले नहीं उतरती. विष्णु दत्त सितंबर 2019 से राजगढ़ थाना संभाल रहे थे. इतनी लंबी अवधि में विधायक और उनके क्षेत्र के थानाधिकारी की मुलाकात न हो पाना सरासर झूठ है. इस संबंध में सोशल मीडिया पर थाने की एक बैठक की तस्वीर पुष्टि करने के लिए काफी है. फिर भी यदि पूनिया की बात को मान लिया जाए तो इससे ज्यादा लापरवाही किसी विधायक की क्या होगी कि वह अपने विधानसभा क्षेत्र के थानाधिकारी को ही ठीक से नहीं जानती.
इस घटना के समाचार प्रदेश भर में बड़ी तेजी के साथ वायरल हुए थे उसके बावजूद विधायक द्वारा घटनास्थल पर न पहुंच पाना शर्म की बात है. एक ऐसी दर्द भरी मौत, जिस पर प्रदेशभर की जनता आंसू बहा रही हो, उस जांबाज के अंतिम संस्कार में शामिल न होना खासतौर से उस जनप्रतिनिधि के लिए नैतिक अपराध है जिसके क्षेत्र में वह अपनी सेवाएं दे रहा था. गौरतलब बात है कि घटना से एक दिन पूर्व कस्बे में फायरिंग हुई थी जिसमें एक व्यक्ति हताहत हुआ था. इसी मामले में धरपकड़ करते हुए विष्णुदत्त विश्नोई दो-तीन संदिग्ध लोगों को राउंडअप कर देर रात थाने लेकर आए थे. और सुबह वे अपने कमरे में फांसी पर झूलते हुए पाए गए. उनका सुसाइड नोट अपराध व राजनीति के गहरे संबंध और दबाव झेलती पुलिस व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़े करता है. 

लेकिन जो बात विष्णुदत्त अपनी मर्यादाओं को निभाते हुए स्पष्ट रूप से नहीं कह पाए वह थाने के समस्त स्टाॅफ ने अपने सामूहिक स्थानान्तरण आवेदन में विधायक का नाम लिख कर उजागर कर दी है. क्या इसके बाद भी कुछ बचा रह जाता है ?
न्यायिक जांच और सीबीआई जांच में अटकी निष्पक्षता
विडंबना देखिए की एक पुलिस अधिकारी की असामान्य मौत पर होने वाली जांच भी विवाद का विषय बन गई है. आरंभिक समझौते में पुलिस और प्रशासन ने न्यायिक जांच हेतु सैद्धांतिक स्वीकृति दी है वहीं विपक्षी नेतागण, बिश्नोई समाज के प्रमुख लोग और विष्णुदत्त के प्रशंसक सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं. बिश्नोई की पत्नी और बच्चों ने भी मुख्यमंत्री से इस मामले में सीबीआई जांच की मांग कर डाली है. यानी खुद थानाधिकारी के परिजनों को प्रदेश पुलिस द्वारा की जा रही जांच पर भरोसा नहीं है. हालांकि डीजीपी द्वारा इस मामले की जांच विष्णुदत्त की तरह ही ईमानदार छवि रखने वाले अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक बीएल सोनी के निर्देशन में करवाए जाने की बात कही गई है. इस जांच में अन्वेषण अधिकारी भी एक कार्य कुशल आईपीएस अधिकारी विकास शर्मा को लगाया गया है. लेकिन इसके बावजूद संदेह जताया जा रहा है की प्रदेश पुलिस व्यवस्था विष्णुदत्त के मामले में राजनीतिक दबाव और खुद पुलिस की लिप्तता के संदेह के चलते शायद न्याय नहीं कर पाए.
सीबीआई मांग का एक दूसरा पहलू यह भी है कि केंद्र में भाजपा सरकार है और पुलिसिंग के मामले में सीबीआई की छवि राज्य पुलिस से कुछ बेहतर है. हालांकि सीबीआई को भी केंद्र सरकार का तोता कहा जाता रहा है और अनेक मामलों में यह उजागर भी हुआ है. सीबीआई के पूर्व महानिदेशक जोगेंद्र सिंह भी राजनीतिक दबाव की पुष्टि कर चुके हैं. शायद इसीलिए विपक्षी भाजपा नेताओं को उम्मीद है कि केंद्र में उनकी सरकार के चलते शायद सीबीआई प्रदेश पुलिस के आपराधिक और राजनीतिक गठजोड़ों की कारगुजारियां उजागर कर दे.
ऐसी परिस्थितियों में एक ईमानदार और जुझारू पुलिस ऑफिसर की असामान्य मौत का यह मामला एक और ओछी राजनीति का शिकार न हो जाए, इस आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता. पुलिस जांच और उनकी रिपोर्ट्स का सरकारी तंत्र में क्या हश्र होता है यह किसी से छिपा हुआ नहीं है. ऐसे मामलों में बची-खुची उम्मीद सिर्फ न्यायालयों पर टिकती है और उन्हें भी परिस्थिति जन्य साक्ष्य के अलावा पुलिस अन्वेषण रिपोर्ट पर आश्रित होना पड़ता है.
इन परिस्थितियों में यदि वाकई हमारी सरकारें सुधार करना चाहती हैं तो उन्हें पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था में तुरंत प्रभाव से डिजायर सिस्टम को बंद करना चाहिए. यह व्यवस्था अधिकारियों को विधायकों के सम्मुख नपुंसक बना कर रख देती है जिसका खामियाजा अंततः ईमानदार और न झुकने वाले लोगों को झेलना पड़ता है. पुलिस थानों में काम कर रहे अपने हजारों अधीनस्थ कर्मचारियों का मनोबल न टूटे और वह निर्भीक होकर काम करें इसके लिए विष्णु दत्त मामले में गठित पुलिस जांच दल का दायित्व है कि वह त्वरित और निष्पक्ष जांच करते हुए दोषियों के चेहरे उजागर करे. तभी पुलिस की साख बच पाएगी. जुझारू और जांबाज पुलिस अधिकारी विष्णुदत्त विश्नोई को दुष्यंत की इन पंक्तियों के साथ अश्रुपूरित श्रद्धांजलि कि-

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
मेरे  सीने  में   नहीं   तो   तेरे सीने  में  सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं 
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.

- डॉ हरिमोहन सारस्वत ’रूंख’

94140-90492

2 comments:

  1. एक तथ्यात्मक रिपोर्ट। इस षड्यंत्र के वास्तविक दोषियों को सजा ही जाबांज विष्णु जी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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  2. In current scenerio, it is too much hard to perform our duties honestly and freely. Very true.

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