(एक दरख़्त की दास्तां)
‘छोड़कर तेरी जमीं को दूर आ पहुंचे हैं हम/ है यही बस एक तमन्ना तेरे जर्रों की कसम...’
कितना दूर....पता नहीं..., हां, इस गीत को सुनकर मेरी डालियां जीरो लाइन को लांघती हुई अपने आप तुम्हारी ओर झुकती चली आती है। सरहद पर हर शाम, बीएसएफ के सिस्टम से जब यह गीत फुल वोल्यूम में बजता है तो मुझे लगता है, प्रेम धवन साहब ने ‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ गीत मेरे लिए भी तो लिखा होगा।
पर मैं तो पाकिस्तान की सरहद में हूं, भला मेरे लिए कोई हिंदुस्तानी क्यों गीत लिखेगा ! आप कहेंगे, दरख़्तों के भी देश होते हैं क्या ? मुझे नहीं पता।. सच पूछिए, मैं कब पाकिस्तानी हो गई, मैं नहीं जानती। हां, इतना जरूर याद है कि मेरी मां करतारे के खेत की बट पर थी। उसी खेत से सटा चाचे गुलाम रसूल का खेत था जो वाघे पिंड की सींव छूता था। रसीले देशी बेरों से लकदक, मेरी मां की मिठास के, सात गांवों तक चर्चे थे।
जब बेर पूरे पकाव पर होते, तो अटारी से भानू चक ही नहीं, करतारे की बेरी के चर्चे अमृतसर से लाहौर तक होते थे। करतारा और गुल्लू, दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे थे, दिनभर धमाचौकड़ी मचाने वाले। गोलमटोल गुल्लू, गोरा गट्ट करतारा। करतारा गुल्लू को ‘बाघे का बाशा’ कहता था। बाशा की नाक बहती रहती थी जिसे सुड़ककर वह अपने कुरते की बांह से पोंछ लेता। हां, जिस रोज करतारे के जूड़े पर उसकी बेबे रूमाल बांधती, बाशा के कुरते की बांह गीली होने से बच जाती थी। उनकी दोस्ती पक्की, मगर लड़ते तब कुत्ते-बिल्लों की तरह। वो कहते है ना ‘काणो मांटी सुहावै नीं, काणै बिना नींद आवै नीं’। ऊंची हेक लगाकर बोलियां पाने वाली इस जुगल जोड़ी की गांव के बच्चों में तूती बोलती थी।
दुःख तो मुझे भी बहुत हुआ था, जिस दिन करतारे ने मुझे मां की छांव से निकालकर रसूल चाचे के खेत की बट पर रोप दिया था। उस शाम बूंदाबांदी हो रही थी। मुझे याद है मेरे आंसू और बारिश की बूंदे एकाकार हो गए थे। जड़ें उखड़ने का दर्द एक दरख़्त से बेहतर भला कौन जानता है ! और मैं थी भी कितनी सी, बिलांत भर की. बारिश में भीगता हुआ करतारा अपनी नन्हीं हथेलियों में मेरी जड़ों को दबाए पांच कील्ले चलकर इस खेत तक पहुंचा था। गुल्लू के ‘बाघे’ वाले खेत में भी एक बेरी होनी चाहिए, इसी अज्ञात प्रेरणा से उसने खाले की बट पर मुझे रोप दिया था। तभी लगभग दौड़ते हुए वहां पहुंचे गुल्लू ने अपनी नाक सुड़कते हुए मेरे चारों ओर गोल बट बांधकर बाड़ कर दी थी। पानी था कि लगातार गिर रहा था।
‘देखना बाशा ! इस बेरी के बेर उससे भी मीठे होंगे।’
‘ओए काके, यूं कि बेरी लगाई किसने है।’
‘बाशा के बेर लंदन तक ना बिकें तो कहना।’
‘यार करतारे, क्या लंदन बेर बेचने जाएंगे ?’
‘ओ लाले दी जान, इन बेरों को खरीदने के लिए लंदन वाले अपनी गोरी मेमों के साथ गुल्लू के खेत तक चले आएंगे. समझे क्या !’
दोनों देर तक हंसते रहे। करतारा भीगते मौसम मे हेक लगाकर बोलियां पाता रहा, बाशा उसके सुर में टेर लगाता रहा। शाम के धुंधलके में गलबहियां डाले खेत की पगडंडी से गुजरती दो नन्हीं परछाइयां धीरे-धीरे लुप्त हो गई। उनकी हंसी और बोलियों के बीच मेरे आंसू कब धुल गए, मुझे नहीं पता। लगा, जैसे मैं अचानक बड़ी हो गई हूं।
उसके बाद शायद ही कोई ऐसा दिन रहा हो जब गुल्लू और करतारे ने आकर मुझे न छुआ हो। वे मेरे पास बैठकर घंटों बतियाते। गांव भर की बातें सुनाते। उन्हीं से तो मैंने पहली बार ‘पाकिस्तान’ शब्द सुना था। वे भी कहीं से सुन कर आए थे। गुल्लू कहता था कि उसे अब पाकिस्तान जाना पड़ेगा। मुसलमानों का अलग देश बन रहा है। लड़ाई और मार-काट बातें सुनकर मैं भी डर गई थी। हे मेरे मालका, कहीं फिर से जड़ें तो नहीं उखड़ जाएंगी !
मुझे बहुत बाद में पता चला था। जड़ें तो जाने कितनों की उखड़ी थी। बंटवारे के समय मेरी मां को निर्ममता से काट दिया गया था। उसकी मोटी डालियों से खूब सारे ड़ंडे बनाए गए थे। बर्छियां और गंडासे भी बने थे। यकीनन वे जिन हाथों में रहे होंगे, उन्होंने कितना खून बहाया होगा। क्या गुल्लू और करतारे के हाथ में भी बर्छियां होंगी ?
मुझे याद आता है बंटवारे के वक्त तो दोनों मुझे बाहों में भर कर खूब रोया करते। उनकी चारों बांहों के बीच मैं उनके गालों से ढुलते आंसूओं की नमी पी जाती। लेकिन वे भी तो अचानक जाने कहां गायब हो गए थे....। जब मैं पहली बार बौराई थी तो बहुत रोई थी। मीठे बेरों से लदी थी, लेकिन दूर-दूर तक कोई खाने वाला नहीं...। जरा सोचो तुम्हारे पास कोई खुशी हो लेकिन उसे देखने वाला कोई नहीं तो कैसा महसूस करोगे ! यह सिलसिला वर्षों तक चला. हर बौर के वक्त यही लगता, मैं एक शापित स्त्री हूं जो गर्भ में ऐसे बच्चे को पाल रही है जिसके हृदय में स्पंदन है ही नहीं. मेरे बेरों को लंदन तो दूर, अटारी और वाघे के ग्राहक ही नसीब नहीं हुए।
वक्त के इस वक्फे में, मेरी जीरो लाइन अब बाघा बॉर्डर बन चुकी है जहां दोनों तरफ के हजारों लोग, पुरजोर देशभक्ति का जज्बा लिए रोज उमड़ते हैं। आर्मी के बैंड और जूते एक लय में बजते हैं, परेड होती है, मुट्ठियां और सीने तनते हैं। मगर मेरे जैसा दर्द लिए, दो झंडे रोज चढ़ते और उतरते हैं। उस वक्त हजारों कैमरे क्लिक होते हैं। काश ! कोई आंख भी क्लिक होती....।
मैं देशभक्ति के इस माहौल में हक्की-बक्की सी खड़ी भीड़ का जोश देखती रहती हूं। जब संगीनों के साये में फौजी बूट बजते हैं। काश, मैं रोही का कोई कीकर होती। निर्विकार भाव से चुपचाप तप-साधना तो कर लेती। मगर लेखों का दोष किसे दूं ! स्त्री जात का अंतस भीगे बिना नहीं रहता, तिस पर मैं तो मीठे बेर देने वाली बोरटी जो ठहरी। भले ही पत्थर पड़ें या डंडे, मैंने आदम की तरह स्वभाव नहीं बदला। बदला तो मेरा करतारा भी नहीं होगा।
बॉर्डर की परेड के पहले ही दिन करतारा मुझे दूर से दिख गया था। वह भी अब मेरी तरह गभरू जवान था। उसे इतने दिनों बाद देख मैं बहुत खुश थी। उसने दौड़ कर मेरे करीब आना चाहा था मगर मजबूत फौजी हाथों ने उसे पकड़कर पीछे धकेल दिया था। उस दिन वह बहुत रोया था। परेड के बाद वह दर्शक दीर्घा में कुछ देर और बैठना चाहता था लेकिन फौजियों ने उसे जबरन बाहर निकाल सलाखों वाला गेट बंद कर दिया। सलाखों के पार से झांकती, करतारे की वो भीगी आंखें, मुझे भुलाए नहीं भूलती। मगर उस दिन के बाद वह कभी लौट कर नहीं आया। और बाशा, उस कमबख्त की शक्ल देखे तो एक जमाना बीत गया। अब तो उसके बच्चे भी जवान हो गए होंगे। क्या वे मुझे पहचान पाएंगे ?
इन्हीं सवालों के ताने-बाने में, मैं बाघे की बेरी अपना पूरा दिन निकाल देती हूं। हां परेड के वक्त, हर रोज मेरा पत्ता-पत्ता करतारे की भीगी हुई आंखें तलाशता है। काश ! एक बार ही सही, मैं उन आंखों की नमी पी सकती। गुल्लू के इंतजार को तरसती मेरी डालियां कभी इधर, तो कभी उधर झूलने लगती है।
आज जब तुम दिखे तो जाने क्यों, मेरा मन भर आया। मैंने तो तुम्हें देखते ही पहचान लिया था। सब परेड देख रहे थे और तुम, सिर्फ मुझे...। तुम्हारी आंखें बोलती हैं दोस्त, और ऐसा बहुत कम आंखों के साथ होता है। सोचा तुम से ही करतारे के हाल-चाल पूछ लूं। उसे कहना, मैं आज भी उसका और गुल्लू का इंतजार करती हूं। घड़ी भर ही सही, वे दोनों मेरे गले से लगकर रो लें तो मुझे जन्मों का सुकून मिले और जन्मांतर से मुक्ति।
...और हां, हो सके तो अपनी हुकूमत से पूछ कर बताना मुझे, बाघे की इस बेरी की रिहाई आखिर कब होगी !
-‘रूंख’