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अलविदा मेरे शहतूत दोस्त !


सिर साटै रूंख तोई सस्तो जाण...
पगडंडियों के दिन (2) - रूंख भायला

'रूंख भायला' की पहचान के पहले सिरे को दोस्तों की भरपूर सराहना मिली है. सभी मित्रों का आभार कि उन्होंने अपने बचपन को इस आलेख में तलाश लिया. आज 'रूंख भायला' का एक और सिरा पकड़ने की कोशिश करते हैं...

काला तीतर, डबवाली


डबवाली के पास में एक जगह है 'काला तीतर'. हनुमानगढ़ से लगभग 60 किमी दूर हरियाणा सीमा में नहर के किनारे स्थित यह स्थान कभी एक छोटा-मोटा पर्यटन स्थल हुआ करता था. चारों तरफ हरियाली और नहर में कलकल बहता पानी सबको अपनी ओर आकर्षित करता था. दूर-दूर तक फैले धान के खेतों की अपनी अलग ही छटा थी. लोगों की चहल-पहल से यहां एक होटल भी खुल गया था. थोड़े दिनों बाद ही यहां बोटिंग सुविधा भी आ गई थी जिससे उन दिनों बच्चों में 'काला तीतर' को लेकर खासा उत्साह था. कुल मिलाकर 'काला तीतर' पिकनिक स्पॉट के रूप में विकसित हो गया था.

1983 की बात है जब मैं छठी जमात पास कर सातवीं में आया था. हमारे क्वार्टर के नजदीक स्थित राजकीय रेलवे उच्च प्राथमिक स्कूल में मुझे प्रवेश दिलाया गया. इसी विद्यालय में मेरी मुलाकात राधेश्याम सोनी से हुई जो शुरुआती झगड़े के बाद मेरा सबसे घनिष्ठ मित्र बन गया था. यह दोस्ती वर्षों बाद आज भी उसी शिद्दत के साथ कायम है जिसके साथ हमने बचपन में शुरुआत की थी. मित्रता, दोस्ती, प्यार, सम्बन्ध और आकर्षण देखने में साधारण शब्द दिखते हैं लेकिन जब इन शब्दों को जीवन में उतारा जाता है तो जीने का ढंग बदल जाता है. एक मित्र हमेशा निस्वार्थ भाव से आपको संवारता है. आज की आभासी दुनिया में जीने वाले युवाओं को शायद ही ऐसा साथ मिले जो उस दौर में पढ़ने वालों को नसीब था.

मेरे प्रवेश से कुछ समय पूर्व रेलवे स्कूल के विद्यार्थियों का एक दल 'काला तीतर' गया था. इस दल में राधेश्याम भी शामिल था. उसके बाल मन पर 'काला तीतर' अमिट छाप छोड़ गया था. जब भी कहीं घूमने की बात होती राधे हमेशा 'काला तीतर' का ही नाम लेता. बचपन की पहली पिकनिक दिमाग पर उम्रभर छाई रहती है भले ही हम जीवन में कितनी भी खुशियां क्यों ना बटोर लें. खुशियों की तुलना करना मनुष्य का स्वभाव है. पंजाबी पियक्कड़ लोग तो पीने पिलाने के आनंद को भी यह कहकर तोलते हैं 'यार, ओ दिन पित्ती सी ना, ओदे वरगी गल्ल है नीं अज..'

खैर, उम्र की व्यस्तता और आपाधापी में आगे बढ़ते हुए मैं 2008 में सूरतगढ़ शिफ्ट हो गया. मैंने कई बार राधेश्याम से उस शहतूत के पेड़ को देखने की इच्छा जाहिर की जिसके तले मैंने अपना बचपन बिताया था. वह हमेशा कहता कि एक दिन समय निकालकर पहले काला तीतर चलेंगे और उसी दिन वापसी में तेरे शहतूत का पेड़ भी देख लेंगे. मैं उससे आग्रह करता यार, कम से कम तू ही उस पेड़ को देख आ. लेकिन अपनी व्यस्तता के चलते उससे भी वहां जाना नहीं हो पाया.

बीसों साल बाद एक दिन अचानक जब मन सूनेपन से भर उठा तो भोराभोर मैं खुद ब खुद ही बचपन के दिनों को ढूंढने निकल पड़ा. रास्ते में फोन पर राधे से बात हुई तो उसने वही राग अलापा पहले काला तीतर चलना है. समय भी आज शायद मेरे मन के भावों को समझ रहा था इसीलिये बातों ही बातों में दो जवां दोस्त बचपन की यादों को ताजा करने के लिए काला तीतर की ओर मुड़ गए. राधे ने प्लान किया था कि लंच काला तीतर के उसी होटल में करेंगे जहां उसने कभी बचपन में Rs.5 वाली छोले भटूरे की प्लेट खाई थी. मैंने भी हामी भर दी और हमारी गाड़ी बहुप्रतीक्षित लंच की परिकल्पना में खोए दो जिगरी यारों को लेकर डबवाली रोड पर दौड़ने लगी.

मगर काला तीतर पहुंचने पर हमारी सारी खुशी काफूर हो गई जब पता चला की वहां स्थित होटल को उजड़े बरसों हो चुके हैं और पिकनिक स्पॉट भी खत्म हो गया है. अब वहां केवल हरियाणा पर्यटन विकास निगम का एक रिसोर्ट है. राधे यह सब सुनकर उदास हो गया. उसने नहर के किनारे स्थित उस स्थान पर चलने की इच्छा जताई जहां कभी बचपन में वह अपने साथियों के साथ पिकनिक पर आया था. अब वहां उस होटल के भग्नावशेष और हमारी स्मृतियां शेष थी जिनकी गूंज हमारे मन में उदासी का शोर मचा आ रही थी. एक टूटी हुई नाव भी वहां पड़ी थी जो कभी उस नहर में चला करती होगी. हां, पेड़ों के झुरमुट हमेशा की तरह शांत और निर्विकार भाव से वहां खड़े थे जिन्होंने काला तीतर के बसने और उजड़ने को बड़े निकट से देखा था. नीम के एक बूढ़े पेड़ की छाया में हम वहां करीब घंटा पर रुके होंगे. मुझे लगा कि उस पेड़ ने हौले से मेरे कान में कहा 'बहुत देर कर दी दोस्त तुमने आने में'. हमनें उस पेड़ की शाखाओं को नहर पर झूलते हुए देखा और बोझिल मन से हनुमानगढ़ की ओर लौट चले.

मनुष्य निर्विकार और निर्लिप्त होने की कितनी भी बात कर ले लेकिन भौतिक चीजों के प्रति भी जीवन में एक लगाव बना रहता है. भले ही निर्जीव चीजें प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती लेकिन फिर भी वे हमारे अवचेतन मन में सजीवता लिए रहती है. जब इन चीजों का विछोह होता है तो अन्तर्मन में बच्चों सा रुदन होना स्वाभाविक है.

मैंने वापसी में राधे के सामने शहतूत के पेड़ पर किसी अनिष्ट की आशंका जताई तो उसने मुझे सांत्वना देते हुए कहा कि कॉलोनी के पेड़ को कौन छेड़ेगा ! सच मानिए, संगरिया से लेकर हनुमानगढ़ तक का सफर मैंने बड़े भारी मन से तय किया.

हनुमानगढ़ की चिरपरिचित गलियों और मोहल्लों से गुजरते हुए मैंने बदले हुए परिवेश को महसूस किया. रेलवे हॉस्पिटल से होते हुए हम मेडिकल कॉलोनी की उसी में गली में प्रविष्ट हुए जहां लगभग 35 साल पहले मैं नन्हें कदमों के साथ इसी तरह अपने एक सहपाठी के साथ उस शहतूत के पेड़ को देखने आया था. गली के सिरे से गाड़ी जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी मेरे मन की धड़कनें बढ़ती जा रही थी. जो गली कभी खेलते-कूदते और शोर मचाते बच्चों की अठखेलियों से गूंजती रहती थी वहां आज सन्नाटा पसरा था. लगभग सारे घरों के दरवाजे और खिड़कियां बंद थे. हां, इक्का दुक्का सपाट चेहरे हाथों में मोबाइल फोन लिए हमारी गाड़ी को जरूर घूर रहे थे. लेकिन उन्होंने भी गली के आगंतुकों से मिलने में कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दिखाई. एक वक्त था जब गली में किसी अजनबी चेहरे के दिखते ही नुक्कड़ पर ही उससे पूछताछ शुरू हो जाती थी और पूरी गली को पता चल जाता था की फलां के यहां कोई मेहमान आया है.

लेकिन आज तो इसी गली मे खेल-कूद कर बड़ा हुआ एक नादान बच्चा जवानी को लांघते हुए अपनी यादों से मिलने आया है तो उसे अजनबी कैसे कहें ? गली का एक एक क्वार्टर, नेम प्लेट, सड़क पर खुलते उनके बरामदे, लकड़ी के स्लीपर जोड़ कर बनाई गई बाड़ियां और न जाने क्या-क्या सब यादों के पिटारे से एक-एक कर अपने आप बाहर निकलते जा रहे हैं. ऐसा लगता है सारी स्मृतियां आज तीसरी क्लास के एक बच्चे और उसके पेड़ दोस्त का मिलन देखने के लिए उमड़ पड़ी है.

जैसे ही गाड़ी रूकती है ड्राइविंग सीट पर बैठा एक भरा-पूरा आदमी मासूम बच्चे में बदल जाता है और उसकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं. उसकी नजर सीधे उस खाली जगह पर पहुंचती हैं जहां कभी शहतूत का पेड़ हुआ करता था. उसके शहतूत दोस्त को समय की आरी ने काटकर इंटरलॉकिंग टाइल्स के नीचे दफना दिया है. वह बच्चा गाड़ी से उतरकर दौड़ते हुए उस जगह पहुंचता है जहां बरसों पहले स्थित शहतूत के पेड़ में उसकी जान बसती थी. आज वहां चारों तरफ कंक्रीट का जंगल है. बच्चा वहां लगी टाइल्स पर ऐसे हाथ फिराता है मानो कब्र के नीचे दफन अपने पेड़ दोस्त को तलाश रहा हो. उसे शायद नहीं पता, कब्रें बोला नहीं करती. उसे महसूस होता है कि उसने आने में देर कर दी है. भरी आंखों से वह अपने क्वार्टर की पिछली दीवार को ताकता है जिसका उखड़ता हुआ पलस्तर शिकायती लहजे में वक्त की अदालत में बयान दे रहा है. 'मी लॉर्ड, यह भरा पूरा आदमी बेहद मतलबी और अवसरवादी है क्योंकि इसने जवानी में कदम रखने के बाद अपने दोस्त पेड़ को कभी मुड़ कर भी नहीं देखा. मुझे याद है यह पेड़ अक्सर पूछा करता था कि टोनी और उसके दोस्त कहां चले गए ? वे हमसे मिलने क्यों नहीं आते ? क्या काले, गोरे, बब्बू, संजय, पिंकू, राजा, बबलू, टिंकू, बिंदर, आरिफ मे से किसी को हमारी याद नहीं आती ?

उस बेचारे ने तो यहां तक भी कहा था कि टोनी से बोलो मेरी एक डाली काट कर ही अपने घर के किसी कोने में लगा ले तो मैं वहीं उग आऊंगा. मगर मी लार्ड, हमारी बदकिस्मती है कि हम भौतिक चीजें चल-फिर नहीं सकती ना ही किसी का संदेश पहुंचा सकती हैं...' 
 
गली से गुजरती कुछ जोड़ी आंखें इस मंजर को सवाल भरी निगाहों से ठिठक कर देखती हैं लेकिन बात करने की हिम्मत नहीं कर पाती. दूर खड़ा उदास राधे शहतूत की कब्र पर बैठकर रो रहे उस बच्चे का हाथ पकड़ गाड़ी में बिठा देता है. 'अलविदा, मेरे शहतूत दोस्त'....... बचपन का एक किस्सा डाल पर बैठी चिड़िया सा फुर्र हो जाता है.

हां, इतना जरूर है कि उस शहतूत दोस्त की याद में वह भरा पूरा आदमी आए बरस जाने कितने पेड़ लगाता है और छोटे-छोटे बच्चों से अपनी दोस्ती की कहानी बांटता है.
-रूंख




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