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Saturday, 27 November 2021
थुथकारा' और 'लूणराई' हैं मां के निश्छल प्रेम के उपचार
'चाल भाइड़ा, ले चाल पाछो
टैम री चकरी नै पूठी घुमा परो
उण सागी ठौड़, उण सागी ठिकाणै
जठै उमरां आपरो अरथ नीं जाणै
'टीकै' 'थुथकारै' अर 'लूणराई' रो
भेद कोई नीं पिछाणै......
बचपन की स्मृतियों के जगमगाते आकाश में अक्सर 'थुथकारा' और 'लूणराई' याद आते हैं. मां के हाथ से लगा काजल का 'टीका' और नन्ही हथेलियों में सजे 'दाम्बे' वो अमूल्य धरोहर है, जिसे मन हमेशा सहेज कर रखना चाहता है.
राजस्थानी लोक संस्कृति में 'थुथकारे' और 'लूणराई' की अनूठी महिमा है. हमारे बुजुर्गों के शुद्ध अंतःकरण और हाथ की बरकत में कितना गहरा असर है, इसे 'थुथकारे' और 'लूणराई'
से होने वाले तात्कालिक प्रभाव के जरिये महसूस किया जा सकता है. छोटी-मोटी शारीरिक तकलीफ होने पर मां और दादियां बड़ी शिद्दत के साथ इन रामबाण उपचारों से अपने बच्चों के स्वस्थ कर देती हैं. दरअसल ये निश्छल प्रेम के उपचार हैं, जो पगडंडियों के दिनों की विरासत है.
'थूथकारा' एक ऐसा रिवाज है जिसका प्रयोग किसी बुरी नजर का असर उतारने अथवा उससे बचाने के लिए किया जाता है. जब भी कोई मन को भाता है तो उस पर थुथकारा डाला जाता है. यहां तक कि भौतिक वस्तुएं भी यदि अच्छी लगें, तो उन्हें भी थुथकारा देने का रिवाज है. इसका सीधा सा अर्थ उसे बुरी नजर से बचाना है.
जब किसी बच्चे को नजर लग जाती है तो गांव में किसी ऐसे अनुभवी बुजुर्ग से थुथकारा डलवाया जाता है जिसका थुथकारा पलता हो. 'थुथकारा पलना' उसके असर को दर्शाता है. थुथकारा डालने की भी एक खास मुद्रा है. बुजुर्ग अपनी मध्यमा और अनामिका अंगुली को हथेली की तरफ मोड़ कर, तर्जनी और कनिष्ठा अंगुली को पीछे की तरफ से आपस में जोड़ लेते हैं. इन जोड़ी गई उंगलियों के मध्य से थूक उछाला जाता है जिसके छींटे बच्चे के चेहरे के आसपास गिरते हैं. और जनाब, निश्चल मन से किए गए इस उपचार का असर देखिए कि बच्चा स्वस्थ हो जाता है.
इसी कड़ी में 'लूणराई' भी नजर उतारने का एक महत्वपूर्ण घरेलू उपचार हैं जिसका प्रयोग माएं अपने बच्चों के लिए करती हैं. इस उपचार में एक कटोरी में राई के कुछ दाने, सात साबुत लाल मिर्च और थोड़ा सा नमक लेते हैं. इस कटोरी को बुरी नजर से ग्रसित बच्चे के सिर के ऊपर से सात बार घुमाया जाता है और फिर इस सारी सामग्री को जलते हुए चूल्हे या बोरसी में डाल दिया जाता है. इन मिर्चों के जलने की कोई धांस या गंध नहीं आए तो यह समझा जाता है कि बच्चे को नजर लगी हुई थी जो इस सामग्री के साथ ही जल कर भस्म हो गई. माना जाता है कि शनिवार को की गई 'लूणराई' ज्यादा असरकारक होती है .माएं अपने बड़े बच्चों पर भी अनेक बार 'लूणराई' करती हैं जिसमें उनका अगाध निश्छल प्रेम और संस्कारों के प्रति अटूट विश्वास छिपा रहता है.
छोटे बच्चों को बुरी नजर से बचाने का एक और अनूठा दुलार है 'दाम्बा'. मां जब अपने दूधमुंहे बच्चों को नहला-धुलाकर सजाती-संवारती है तो माथे पर काजल का टीका लगाने के साथ-साथ उनकी नन्ही हथेलियों और पगथलियों में 'दाम्बे' भी मांड देती है. ये 'दाम्बे' निश्छल हंसी बिखेरते शिशु की खूबसूरती में चार चांद लगा देते हैं. 'दाम्बे' के रूप में काजल की गोल टिक्की लगी नन्ही हथेलियां सबका मन मोह लेती हैं.
सूचना क्रांति के युग में बुरी नजर के प्रभाव को जड़ से समाप्त करने वाले ये उपचार भले ही साधारण दिखते हो लेकिन आज भी हमारी सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. खास बात यह है कि यह उपचार मां की ममता से जुड़े हुए हैं जिसका असर ताउम्र रहता है. धन्य है मां, और धन्य है उनकी 'लूणराई' !
-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
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