पगडंडियों के दिन (3) - रूंख भायला
...आज बड़े दिनों बाद एक बार फिर दिल और दिमाग बचपन का रोमांच लूटने के
लिए यादों के पिटारे की ओर बढ़ा चला जा रहा है जिसमें छोटी-छोटी खुशियां
दबी हुई पड़ी है. आइए, आज इस पिटारे में छिपी ढेरों कॉमिक्स और पॉकेट
बुक्स की गर्द झाड़ कर बचपन के हसीन को जीने की कोशिश करते हैं.
'हा,
हा, हा... देखो चाचा चौधरी, हमारे डर से दुनिया की सारी सड़कें, गलियां,
मोहल्ले, गांव और शहर डर के मारे दुबक गए हैं. चारों तरफ हमारे खौफ का
सन्नाटा है. कहां गया तुम्हारा साबू ?..... हा हा हा.'
'चाचा
चौधरी के होते दुनिया की कोई ताकत हमें डरा नहीं सकती. वो देखो, हमारे
लॉकडाउन से तुम्हारे वायरस कैसे तड़प- तड़प कर दम तोड़ रहे हैं...'
याद
कीजिए जब बचपन में कॉमिक्स या पॉकेट बुक्स हाथ में होते तो बच्चों के
रोमांच भरे चेहरे किस कदर हसीन लगते थे. झुंड में बैठकर या गली मोहल्ले के
नुक्कड़ पर खड़े होकर कॉमिक्स पढ़ने का आनंद अनूठा था जिसका मुकाबला आज का
कोई कार्टून चैनल या वेब सीरीज कर ही नहीं सकती.
80
के दशक का दौर था जब मध्यमवर्गीय परिवारों में टीवी का पदार्पण हुआ ही था.
उस वक्त राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी सीमांत अंचल में सिर्फ झिलमिलाता हुआ
दिल्ली या जालंधर दूरदर्शन का चैनल चला करता था. इस चैनल का प्रसारण भी
सिर्फ शाम का होता था. टीवी के इस दौर पर एक पूरा एपिसोड लिखा जा सकता है
जिसकी चर्चा फिर कभी करेंगे. मैं 1983 में हनुमानगढ़ जंक्शन के स्टेशन पर
स्थित रेलवे स्कूल की सातवीं ज़मात में पढ़ता था. हनुमानगढ़, जो 1994 में
जिला बना, उस वक्त रेलवे और लोको शेड की वजह से आबाद था जहां दिनभर रेल
इंजनों का धुंआ और सिटी सुनाई दिया करती थी. रेलवे के लोको शेड में काम
करने वाले कर्मचारियों के लिए दिन में चार बार हूटर बजा करता था जो पूरे
शहर में सुनाई देता था. जब कभी बीकानेर डिवीजन में कोई रेल दुर्घटना या
ट्रेन पटरी से उतरने का हादसा होता तो हनुमानगढ़ में हूटर बजना लाजिमी था
क्योंकि 'रेलवे की क्रेन और मेडिकल रिलीफ वैन' यहीं हुआ करती थी.
रेलवे
मेडिकल कॉलोनी के बच्चों में प्रसिद्ध शहतूत के पेड़ के पास हमारा
क्वार्टर था. कॉलोनी के बच्चे अक्सर अपने जेब खर्च से ही स्टेशन पर स्थित
एकमात्र बुक स्टॉल से कॉमिक्स और पॉकेट बुक्स लाया करते थे. इस स्टॉल का
संचालन बुजुर्ग जगन्नाथ जी जोशी किया करते थे जो बहुत खडूंस किस्म के
व्यक्ति थे. उन्हें यह कतई पसंद नहीं था कि उनके स्टाल पर पड़ी कॉमिक्स और
पत्रिकाओं को छेड़ा जाए.
उन
दिनों चाचा चौधरी, मोटू पतलू, फैंटम, राजन और इकबाल, फौलादी सिंह आदि
प्रसिद्ध कॉमिक्स थी तो चंपक, लोटपोट और नंदन पत्रिकाएं बच्चों को बहुत
भाती थी. पॉकेट बुक्स पांच रूपये तक आसानी से मिल जाती थी जिनमें प्रमुख
रूप से मिशन आकाशगंगा, पूंछ कटा बंदर, मिस्र का खजाना, स्काउट कैंप में
चोरी, आकाशगंगा की सैर, नरभक्षी मगरमच्छ, हीरों का रहस्य आदि के नाम आज भी
याद हैं.
मोहल्ले
में काजी हमीदुद्दीन जी का बड़ा लड़का साजिद सिद्दीकी कॉमिक्स और पॉकेट
बुक्स का तगड़ा रसिया था. कॉमिक्स की कोई भी सीरीज या नई पॉकेट बुक आती तो
उसकी जानकारी साजिद से ही मिलती थी. बब्बू, पिंकू, संजय, काला-गोरा,
अक्कू, राजा लेखरा, बबलू साथ-साथ बड़ों में बिट्टू और बिंदर भाई साहब इनके
फैन हुआ करते थे. आज जिस प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट मस्तान सिंह को आप जानते हैं
वह उसी कॉमिक्स प्रेमी टीम का सदस्य हुआ करता था.
उसी
दौर में रेलवे स्टेशन से बाजार में घुसते ही बांई तरफ लूणजी हलवाई की
प्रसिद्ध दुकान के सामने भवानी नॉवेल स्टोर खुला था. इस दुकान के मालिक
गुलशन जी हुआ करते थे जिनकी बड़ी शानदार हेयर स्टाइल थी. उस दौर में गुलशन
जी ने कॉमिक्स, पॉकेट बुक्स, उपन्यास और पत्रिकाएं किराए पर देने का
नवप्रयोग किया था. भवानी नॉवेल स्टोर के इस नव प्रयोग से स्कूली बच्चों की
गर्मियों की छुट्टियां बहुत मनोरंजक और ज्ञानवर्धक हो गई थी. पुस्तक किराए
पर देने की यह व्यवस्था एक ओर जहां जेब खर्च के लिए मुनासिब थी वहीं हम दो
महीने की सदस्यता लेकर प्रतिदिन एक नई कॉमिक्स या पॉकेट बुक्स पढ़ने का
आनंद ले लेते. बाल समूहों में इस ढंग से कॉमिक्स पढ़ते-पढ़ते पता नहीं कब
उपन्यास की लत लग गई. वेद प्रकाश शर्मा, रानू, गुलशन नंदा आदि उपन्यासकारों
को उस दौर में ही हमने पढ़ डाला था.
इन
कॉमिक्स और पॉकेट बुक्स के चक्कर में कई बार घर पर ठुकाई भी हो जाती थी.
जिस दिन कोई नई कॉमिक्स हाथ लगती तो उसे रात को ही पढ़ने की ललक होती. ऐसे
में स्कूल की किताब में छुपाकर पढ़ना पड़ता. कभी-कभी मां के धक्के भी चढ़
जाते तो अच्छी भली सुंताई हो जाती. इतने से ही काम नहीं चलता अगले दिन
पिताजी के दरबार में भी पेशी लगती लेकिन वहां से हमेशा चेतावनी के साथ
छुट्टी मिल जाती. कॉलोनी के दोस्त आपस में कॉमिक्स की अदला-बदली कर पढ़ते
तो नुक्कड़ सभाओं की चर्चा मजेदार हो जाती. कभी-कभी कई बच्चे भवानी नॉवेल
स्टोर से किराए पर लाई कॉमिक्स से पेज फाड़ लेते और चुपके से गुलशन भैया को
जमा करवा देते. कई घरों में उन दिनों धर्म युग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और
सरिता भी पढ़ने को मिल जाती. सरिता में एक नियमित कॉलम 'मुझे शिकायत है.'
आया करता था जिस पर हम दोस्त लोग अक्सर चर्चा किया करते थे.
सच
में कॉमिक्स और पॉकेट बुक्स का वो जमाना यादगार था जिसने मुझ जैसे दब्बू
लड़के को अंततः साहित्य की ओर मोड़ने में अहम भूमिका निभाई. आज के दौर के
बच्चों को जब कविता, कहानी और उपन्यासों से विमुख पाता हूं तो बहुत निराशा
होती है. आखिर इस दौर के बच्चे शब्द और संवेदना से कैसे परिपूरित होंगे,
यह चिंता अक्सर सालती है.
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