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Monday, 17 June 2024

एपेक्स विमैंस क्लब ने लगाई शरबत की छबील


- निर्जला एकादशी के पहले दिन जन सेवा का कार्यक्रम आयोजित

सूरतगढ़, 17 जून । निर्जला एकादशी के पहले दिन अपेक्स विमेंस क्लब द्वारा मीठे शरबत की छबील लगाई गई। राजकीय चिकित्सालय के सामने आयोजित इस कार्यक्रम में क्लब के सदस्यों द्वारा राहगीरों को रूहअफजा और दूध मिश्रित मीठा शरबत पिलाया गया। बस स्टैंड से बाजार की तरफ आ रहे सैकड़ो राहगीरों ने तपती धूप के बीच इस छबील पर ठंडा शरबत पीकर प्यास बुझाई । इस अवसर पर अपेक्स क्लब के सदस्यों के अलावा शहर के गणमान्य नागरिक भी उपस्थित हुए । 


जन सेवा के इस प्रकल्प में विमैंस क्लब की अध्यक्ष डॉ. पूनम गगनेजा, सचिव आशा शर्मा, कोषाध्यक्ष साक्षी छाबड़ा, सदस्य सुनीता मनचंदा, सुनीता भठेजा, नीरज कामरा, कविता अग्रवाल, सुनीता गोयल ने अपनी सेवाएं दी।

Sunday, 16 June 2024

बाइस्कोप पर आँख गढ़ाकर दुनिया को देखने और जानने की कोशिश

 गुलेरी की गलियों से गुज़रते हुए...

अतुल कनक राजस्थानी और हिंदी साहित्य में एक सुपरिचित नाम है । उनके सामयिक आलेख और साहित्यिक रचनाएं समाचार पत्रों में निरंतर पढ़ने को मिलते हैं। बतौर समीक्षक उनकी टीप रचनाकर्म के उन अनछुए पक्षों को उजागर करती है जो लेखकों के दायित्व को बढ़ाने का काम करते हैं। इसका सीधा सा कारण है कि वे एक प्रतिबद्ध पाठक हैं। उन्होंने मेरे संस्मरणों की पोथी 'गुलेरी की गलियों से गुजरते हुए' पर अपनी बात कही है। यार-भायले भी इस सारगर्भित समीक्षा को पढे़ंगे तो अग्रज अतुल जी की तथ्यों पर पकड़ और गहन साहित्यिक दृष्टि से परिचित हो सकेंगे...।


डाॅ हरिमोहन सारस्वत 'रूंख' राजस्थान के एक चर्चित और प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। 'गुलेरी की गलियों से गुज़रते हुए' उनके संस्मरणों का संग्रह है। 1970 के दशक में जिये हुए बचपन के ये चित्र उन पाठकों को भी स्मृतियों के उस स्पंदन की दुनिया में ले जाते है जिन्होंने बाइस्कोप पर आँख गढ़ाकर दुनिया को देखने और जानने की कोशिश की है। तब आज की तरह दुनिया मोबाइल में सिमटकर नहीं आई थी। लेकिन उस दुनिया में जितना प्रेम, जितना उत्साह और जितना अपनत्व था- वह आज दुर्लभ हो गया है। "क्या आप पड़ौसी से कभी सब्जी माँगकर लाए हैं" शीर्षक वाला संस्मरण इस दर्द को रेखांकित करता है। लेखक बताता है कि आज से करीब चालीस साल पहले एक ही मौहल्ले के लोगों में इतना अपनापन होता था कि बच्चे अपने घर में बनी सब्जी पसंद नहीं आने पर बेहिचक पड़ोस के किसी घर से अपनी पसंद की सब्जी माँगकर ले आते थे। अब जबकि बच्चे अपने पड़ौसी की छत तक पर जाने में असहज महसूस करते हों, यह सब्जी माँग कर लाने वाला रिश्ता अटपटा सा लग सकता है। लेकिन जिन लोगों ने उस सुख को जिया है, इसका आनंद वो ही महसूस कर सकते हैं। लेखक कहता है - सिर्फ सब्जियों का आदान प्रदान ही नहीं था, बल्कि छोटे मोटे दुख सुख भी लोग आपस में बाँट लिया करते थे। अब पड़ौसी और हमारे घर की दीवारें बहुत ऊँची हो चुकी हैं। हमने इन दीवारों में अपनी अपणायत और हेत को जिन्दा चिनवा दिया है।आज हमारे पास घर तो आलीशान और पक्के हैं लेकिन हमारे दिल बहुत छोटे हो गए हैं। ..आइए , अपने पड़ौसी के घर जाना शुरू करें।" (पृ 26, 27)

दरअसल, अपनेपन के खो जाने का दर्द और सर्वे भवन्तु सुखिनः की चेतना को बचाने का मोह ही इस किताब के प्रणयन का प्रस्थान बिन्दु है। रचनाकार ने राजस्थानी के रूंख शब्द को अपना उपनाम चुना है, जिसका अर्थ होता है पेड़। रूंख से मोहब्बत की कहानी भी इस पुस्तक में है। बचपन में रचनाकार के दोस्त के घर वाली कालोनी में एक शहतूत का पेड़ था, जो बच्चों को बहुत प्यारा था। शहतूत के पेड़ को लेकर लिखे गए तीन किस्से किताब में हैं।"जड़ें उखड़ने का दर्द एक दरख्त से बेहतर भला कौन समझ सकता है?" (पृ 10) / "स्त्री जात का अंतस भीगे बिना नहीं रहता, तिस पर मैं तो मीठे बेर देने वाली बोरटी ठहरी" (पृ 12)/ "कहीं वह दर्द के समंदर में डूबा प्रेम की प्रार्थना न बुदबुदा रहा हो" (पृ 34)/"हम एक दूसरे के हौंसले में जिंदा रहते हैं (पृ 48)/ "सिक्कों का ज़माना भी क्या ज़माना था। सब खनकते थे। यहाँ तक कि जिसकी जेब में पड़े होते वह भी बाकायदा खनक रहा होता" (पृ 52) /"उंगलियों को मुंह में दबाकर सीटी बजाने की कला सबके पास नहीं थी। इसे सीखने के लिए हम जैसे नौसिखिए उस ज़माने के महारथी गुरुओं के चरण में बैठते थे" (पृ 74) जैसे प्रसंग बताते हैं कि रचनाकार ने उस दौर के छोटे छोटे सुखों या अहसासों को कितनी संवेदना के साथ स्मृतियों की माला में पिरोया है।

लेखक राजस्थानी भाषा के समकाल के महनीय रचनाकार हैं और पंजाब से सटे हिस्से के नागरिक होने के कारण उनकी भाषा में पंजाबियत भी बहुत ठसके से उतर आती है। भाषाओं का यह संगम अभिव्यक्ति के तीर्थ की ताकत बन जाता है।

यह किताब मुझे कुछ समय पहले मिल गई थी। लेकिन पता नहीं कैसे पुस्तकों के ढेर के नीचे दब गई। अचानक हाथ लगी तो पढ़ना शुरु किया और फिर पूरी पढ़े बिना नहीं छोड़ सका।शायद इसीलिए मान्यता है कि सुखों के शगुन सँभाल पाने का सुख भी कई बार हमारी सामर्थ्य से फिसलकर संयोगों की गोदी में जा बैठता है।विलंब से ही सही डॉ.हरिमोहन सारस्वत 'रूंख' जी को बधाई
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गुलेरी की गलियों से गुज़रते हुए/ संस्मरण/ डाॅ हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'/ बोधि प्रकाशन, जयपुर/ 2023/ पृ 100/ मूल्य 200/_
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