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मेरे गणतन्त्र (एक लम्बी कविता)


धूमिल के नाम...

(समर्पण)

 
बाबा,
तुम बीच में ही क्यों चले गए ?
तुमने तो पूंछ उठाकर
देख लिया था सबको
उस  वक्त
कम से कम
मादा होने का भ्रम तो हुआ था तुम्हे
पुंछ के नीचे के हालात देख कर.

लेकिन तुम्हारे बीच में जाने के बाद
हम सब
बीच के होकर रह गए हैं
कोमा में पड़ी मादाओं ने
नपुंसकों को
 नई पीढ़ी के रूप में उतार दिया है
सत्ता संभालने के लिए.

तुम थे तब
हिंजड़ों में भी
स्त्री और पुरूष का कन्सेप्ट था
पर आज का सत्तासीन नपुंसक
सिर्फ बीच का होकर रह गया है
जो वक्त के मुताबिक
उगा लेता है
मनचाहे अंग पर
तना हुआ लिंग
और ढल जाता है
झुक जाता है
जरूरत पड़ने पर
अपने छेद को
 योनि सिद्ध करने की खातिर
कहीं भी
कभी भी.

बेहयाई की सारी हदें  
पार कर चुके हैं
हमारे आज के आका
अब तुम ही कहो बाबा !
सड़क से संसद तक
सड़ान्ध मारती व्यवस्था को
किस गंगा के जल से धोएं ?
 

मेरे गणतन्त्र

(लम्बी कविता)
 
यह सच है
तुम्हारी पैदायश के
दशकों बाद भी
मेरे देश की
आम जनता
नहीं जानती
क्या लिखा है उनकी ओर से
उनके लिये
देश के संविधान में.

मगर
इस बात का शोक न करो
मेरे गणतन्त्र
तुम्हे हुलसित होना चाहिए.

देश प्रतिवर्ष
तुम्हारा जन्मदिन
धूमधाम से मनाता है
इस देश का आम आदमी
मौन रह कर भी
तुम्हारे संविधान में
गहरी आस्था जताता है.

प्रश्नों के कटघरे में
खड़ा कोई सवाल नहीं बोलता
मौलिक अधिकार नहीं मांगता.

ऐसा सरल-स्नेही जन
तुम्हे कहां मिलेगा
मेरे गणतन्त्र
जो खुद भूखा रहता है
लेकिन तुम्हारे तन्त्र को
अपने श्रम के पसीने से सींचता है
प्यासा है जिस्म, लेकिन
तुम्हारे लिये जलधारे खींचता है.

कितना बेबस है
इस देश का आम आदमी

दसियों चुनावों में
धोखा खाने के बाद भी
उसके मन में कहीं आस है
लेकिन झूठी आस में जीते
इस जन के हिस्से में
केवल भूख है, प्यास है

उसकी आंखों में
तुम्हे पाकर
रामराज्य का सपना जागा था
बस उसी सुखद कल्पना में
उसने जिंदगी गुजार दी
तुम्हारे तन्त्र के आसुरी प्रहार भी
हंसते-रोते यह सोच कर सह लिये
शायद राम राज्य की नींव लग रही हो

पर आज जब भारत भवन के कंगूरो से
अट्टहास करते झांकते हैं
एक साथ रावण के दसों सिर
तो ठगा सा महसूस करती है
इस देश की आम जनता.

रामराज्य में रावण राज !
आखिर चूक कहां हुई ?

विश्वासघात और धोखे के बीच
आजादी के बाद
आते रहे हैं जनप्रतिनिधि
अपने-अपने विश्वासघात लेकर
केवल एक मौका दो
दूसरा हम खुद ले लेंगे
आप तो अनुभवी हैं
एक चुनाव और झेल लेंगें

बरसों से मौके ही तो लेते रहे हैं
कभी गंगाराम
तो कभी फंगाराम
इस देश का जन शापित है
लेकिन वे दोनो आज स्थापित है

उनके लिये
देश से बढ़कर कुछ नहीं है
देशहित में वे मर सकते हैं
मार सकते हैं
सीमा पर जीती हुई लड़ाई
शान से हार सकते हैं.

मेरे गणतन्त्र
हमारा दुर्भाग्य है
तुम्हारे तन्त्र में
उनकी पावली चल गई है
आज शब्दकोषों में
देश की परिभाषा
बदल गई है.

नये अर्थों में देश
नेताओं के इर्द गिर्द घूमता है
उन्ही पर थूकता है उन्ही को चूमता है
जिन पर चाटुकारिता का वेश है
वही अब देश है
जी हजुर के साथ
देष की नई परिभाषा पेश है.

नेताओं की जमात छा गई है
तुम्हारे साहचर्य में
मनचाही मुराद पा गई है

मेरे गणतन्त्र
आज जन प्रतिनिधि
जनता का सेवक नहीं
राजा है
राजसी सुविधाएं भोगता है
उसे कौन टोकता है
उसके बंगले की बिजली
रोशन कर सकती है
एक पूरा गांव
पर बिजली की जरूरत
राजा को ज्यादा है
हां, गांवों तक
रोशनी पहुंचाने का वादा है
और उम्मीद पर तो दुनिया कायम है

यह खरपतवार है मेरे गणतन्त्र
जो बाड़ बनकर खेत को खा रही है
देश में उम्मीद की नई पौध
उगने से पहले मुरझा रही है.

अब तो  घिन्न आने लगी है
अमेरिकन सुण्डियों जैसे
नेताओं के बदबूदार भाषणों से
जिनमें बस निगलने-उगलने का जिक्र है
कौन देश, किसका देश
किसे फिक्र है !

काश, कोई कम्पनी
इन राष्ट्रभक्षी मकोड़ों के लिये
कोई कीटनाशक बनाती
कहीं कोई रिसर्च चलाती
रोशनी की छोटी ही सही
कोई किरण तो जलाती.

मेरे गणतन्त्र
तुम्हारा झूठ
लोक के सच को
निगलने में लगा है
संवेदनहीन तन्त्र
रंग बदलने लगा है
आज गिरगिट की कहावत में
जानवर की जगह नेताजी हैं
जिनकी अण्टी में हरवक्त
पत्थर हजम चूर्ण रहता है
पेट में टैंक है चारा है
और न जाने क्या-क्या,
पर कौन कहता है.

उस्तरे का हाथ
बन्दर का नहीं
उनका है
कब कहां वार हो
कुछ पता नहीं
दोष हमारा ही है
उनकी कोई ख़ता नहीं.

मेरे गणतन्त्र
देश निरन्तर बिक रहा है टुकड़ों में
महज कागजी बैंक बेलेन्स की खातिर
खरीददार और कोई नहीं
वही टामस राॅ और हाॅपकिन्स है
जो आज
नये रूप में अवतरित हुए हैं
अपने नये उत्पादों के साथ
भारतीय महाराजा को रिझाने के लिये
आरम्भिक घाटे के साथ
एकाधिकार पाने के लिये

महाराजा मीडिया में
अपनी पाउडर पुती छवि को देख
हुलस रहे हैं
अर्थव्यवस्था चैापट है
मन्दी और घाटे की आग में
हमारे कारखाने झुलस रहे हैं.

पांच करोड़ के उद्योग को
पीटने के लिये
पांच सौ करोड़ के उपक्रम !
लघु उद्यमी
कहां तक लड़ेंगे
आखिर पिटेंगे और दिवाला सहेंगे.

इस व्यावसायिक संर्घष गाथा में
अर्थव्यस्था एक बार पुनः
उन्ही हाथों में होगी
जिनसे मुक्त होकर
तुम्हारा जन्म हुआ है.

आज तोपें चलानी नहीं हैं
सिर्फ बेचनी है
यही उनकी छद्म माया है
युद्ध का नया रूप
उन्हे खूब भाया है
की बोर्ड पर चलती
आंकड़ों की लड़ाई पर
गिद्ध सी नजरें लगी हैं
डालर बनाम रूपया
गुलामी की जंजीर में नई कड़ी है
पर तुम्हारे तन्त्र को
विश्व बैंक के साथ चलना है
वार्षिक बजट हो या अन्तरिम
उन्ही के ऋण पर पलना है.

मेरे गणतन्त्र
सात दशक कम नहीं होते
कोरिया और जापान भी तो  फले हैं
पर वे तुम्हारी तरह नहीं चले हैं
उनके व्हाइट गुड्स बर्फीले पहाड़ हैं
जो युरोप की चमकती धूप से भी नहीं गले हैं
वे हमारे बाजारों में छाए हैं
हम अपने घर में ही शरमाए हैं
हमारी दीवाली के दीपक
बुझा रही हैं  आज चीनी लड़ियां
और हम अपने अन्धेरे  में
उनकी चमक से जोड़ रहे हैं
विकास की कड़ियां.

इसी चमक से चुंधियाए
हमारे आकाओं को
अपनी पीढ़ियों के चक्कर में
आधारभूत विकास
सिर्फ चुनावी वायदों में याद रहा
वे तो पंचवर्षीय योजनाओं में
हरित क्रांति की घास छीलते रहे
खेत और किसान
दोनों को कीलते रहें
कृषि को सुधारने में हमारी
एक विशेष जमात तो पल गई
पर शेष अर्थव्यवस्था गल गई.

पले हुए भाइयों ने
 कागजी रिपोर्ट के बल पर
खाद्यान्नों के उत्पादन में
देष को आत्मनिर्भर बना दिया हैं
 वेयर हाऊस में गिनी गई बोरियों
ने भी यही बयान दिया है
रिपोर्ट में दम है या नहीं
बोरियों में अन्न है या नहीं
 अखबारी आलेख की बात है
वरना मुची हुई थाली में
आज भी भैरवी राग है
कालाहाण्डी से कलंक है
लोग भूख से मरते हैं
संसद में मन्त्रीजी
अनाज के भण्डारों का
गर्व से दम भरते हैं.


मेरे गणतन्त्र
किसान के हालात
आज भी वही है
मरे नहीं तो क्या करे ?

जमीन बैंक के पास रहन
इज्जत की बूजळी
आढ़तिये पास गहन
फटी हुई जूती,
पसरा हुआ हाथ
जेठ की दुपहरी हो या पूस की रात
आंखों से बहता है नहर का पानी
धूड़ है बीए पास बेटे की जवानी
जोड़ायत पूछती है दिन रात
बिटिया के कब होंगे पीले हाथ
मन ही मन बहुत कसमसाता है
चारों ओर अंधेरा पाकर
आखिर एक दिन उसी पेड़ से
लटककर झूल जाता है
जिसे रोपते वक्त बाबा ने
उम्मीदों का पौधा बताया था.

बस इतनी सी कहानी है
कहने का ढंग कहां बदला
बात भी पुरानी है.
 
मेरे गणतन्त्र
इन सबके बीच
जश्न का दौर है
देश में शोर है
चुनाव आने वाला है
कुछ दिन ही सही
देश का हर आदमी, जिसका वोट है
भर पेट खाने वाला है

उसे पता है
जो खाना उसे खिलाया गया है
वह भेड़ के कटने से पहले की तैयारी है
भूलने में भलाई है
भेड़ की लाचारी है

भेड़ बना वोटर जितना ज्यादा खाएगा
गोश्त उतना ही और लजीज होगा
मतदान से ठीक पहले
नेता का वह सबसे अजीज होगा

पर अंगूठे पर स्याही के लगते ही
उसे फेंक दिया जाएगा
फिर तीसरी दुनिया  के उस देश में
जिसका नाम भारत बताया जाता है
जो आज के विकासशील देशों की
अग्रणी पंक्ति के राष्ट्रों में शुमार
इण्डिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा है

उस हिस्से पर
मुझे औपचारिकतावश
बहुत शर्म आती है मेरे गणतन्त्र
जब-जब देखता हूं
किसी विदेशी कैमरे से क्लिक हुए
गन्दगी के ढेर से
जिन्दगी बीनते हुए
भूखे प्यासे नंग-धडंग दृश्य

उन दृश्यों में हम दोनो हैं
दोे जिन्दा लाशों की तरह
जिनकी संवेदनाएं मर चुकी हैं.

तुम्हे कुर्सी बचानी है
मुझे कशीदे निकालने हैं
फुरसत कहां है
हमारे पास
कीड़े-मकोड़ों की मौत पर
आंसू बहाने की.

मेरे गणतन्त्र
संविधान से मिला
समता का अधिकार बेमानी है
बड़ा मगरमच्छ-छोटी मछली
युगों-युगों की कहानी है
समानता के लिये आरक्षण
महज वोट बैंक की सोच थी
इसीलिये तुम्हारे तन्त्र में
वहां भी लोच थी

अस्पृश्यता मिटा
जातिगत आरक्षण के सहारे
समानता दिलाने चले थे तुम

फिर आज आधी सदी बाद
क्यों वही आरक्षण
तुम्हारे गले की फांस बन गया है
‘हर जाति को अपना हक चाहिए’
यह स्लोगन बरछी सा तन गया है

मेरे गणतन्त्र
आरक्षण कमजोर और दलित को चाहिए था
तुमने जातियों को दिया
क्या स्वर्णों में दलित नहीं होते
क्या कहीं किसी ब्राह्मण के बच्चे
कभी भूखे नहीं सोते
और नहीं झेलते वैसा ही दंश
जिसे भोगती आई है आरक्षित जातियां
वंश दर वंश !

मेरे गणतन्त्र
जातिगत व्यवस्था तो स्थापितों की देन थी
समाज में तो युगों से
दबे कुचलों की ही लेन थी
सच कहना
क्या आरक्षित जातियों में
स्वर्ण नहीं होते
दलित अपनी हीनता का
दंश नहीं ढोते
समता पाने के अधिकारी
आज भी बाट नहीं जोते !
मेरे गणतन्त्र
आरक्षण सिर्फ शिक्षा में होना था
तुमने नौकरियों में भी दिया
आकाओं की कुर्सी बनी रहे
देश को भाड़ में झोंक दिया
कोटे के चमत्कार से
प्रतिभावान धूल फांकने लगे
कार्यक्षमताएं धरी रह गई
सबको एक ही चाबुक से हांकने लगे
यह कैसी व्यवस्था है
जहां सरकारी सेवा में
श्रेष्ठ प्रदर्शन चयन का माप नहीं
चयन हेतु जाति विशेष चाहिए
मजे की बात है
आरक्षित श्रेणी में फिर आरक्षण पाइए
परिणाम किसे देखने हैं
पांच बरस सत्ता चाहिए
संरक्षण किसे मिले, छोड़िए
आप तो वोट बैंक भुनाइए.

देश में योग्यता  हताश है
प्रतिभा की कदर नहीं होती
मेरे गणतन्त्र
समानता ऐसे तो नहीं होती.

कमजोर आज भी वहीं है
जिसकी कोई जाति नहीं है
उसके हिस्से में आरक्षण तो दूर
भरपेट रोटी तक आती नहीं है
फिर कैसी समता
कौनसी समता
नहीं मेरे गणतन्त्र, नहीं
वोट बैंक की नींव लगे आरक्षण ने
समता नहीं दी
उसने तो पैदा की है
स्वर्ण और दलित की आड़ में
कभी न भरने वाली खाई
जिसमें लावा पनपने लगा है
प्रतिभाएं धधक रही हैं
आक्रोश जमने लगा है
वहां से यकीनन
फूटेगा विद्रोह एक दिन
तुम्हारे तन्त्र की चूलें
हिल उठेंगी.

मेेरे गणतन्त्र
यूं तो आरक्षण की बदौलत
हमारे गांव की धापी
आज सरपंच है
गांव की गुवाड़ से दूर
उसका घर
अब विवादों का मंच है

उसका दांया अंगूठा
पति ने काट लिया है
और डाल दिया है
प्रधानजी की मेज पर
जहां कटे अंगूठो को सुखा कर
रबड़ की मोहरें बनाई जाती हैं
जो वक्त बेवक्त
जिला प्रमुख, विधायक
और सांसद के काम आती  हैं
बिना अंगूठे की सरपंच
काम करे भी तो कैसे ?
बस सचिव से काम चलता है
धापी का पति अक्सर हाथ मलता है

पंचायत समिति की बैठक में
धापी जाती जरूर है
आखिर उसे भी
अपनी सरपंची का कुछ गरूर है
वह बैठक में कुछ नहीं बोलती
बी.डी.ओ. के कहने पर
अगूंठाविहीन सरपंचो के साथ
बस मुस्कुरा देती है
हां चाय की चुस्कियों के साथ
हथाई का खूब मजा लेती है
पर बहुत कुछ कहती है
घूंघट से झांकती उसकी बड़ी-बड़ी आंखें

उसे भी अपने गांव में
बड़ा स्कूल चाहिए

अनपढ़ होने का कहीं मलाल है
इसीलिये तो बच्चों की पढ़ाई का
उसे इतना ख्याल है

पर समिति कहां सुनती है
वहां तो बजट पर बवाल है
कटने को भेड़ है
ओढ़ने को खाल है
क्योंकि गांव में अकाल है

बैठक  में चर्चा है
करोड़ों का खर्चा है

नरेगा शुरू होगी
रोटी की जगह चांदी सिकेगी
चन्द नोटों की खातिर
सुगणी का धरम
पुरखी की लाज
बन्सी का सच
कोडू की पीडा
सरपंच और मेट के पास बिकेगी.

मेरे गणतन्त्र
चूल्हे को आग चाहिए
आग  को तवा
तवे पर रोटी नहीं
सपने सेंकने हैं
भूखों को तो बस
टुकड़े फेंकने हैं


इसी रोटी/टुकड़े की आस में
धापी और उसकी सरपंची
लौट आती है अपने गांव
जहां के तहां हैं विवादों के ठांव

पंचायती राज है
चिड़ियों के दम पर
पल रहे बाज हैं.
शाबास मेरे गणतन्त्र
लखदाद है तुम्हे
तुम्हारे पंचायती राज को.

मेरे गणतन्त्र
तुम तो धर्म निरपेक्ष थे
फिर क्यों
तुम्हारे समय चक्र में
सैंतालिस, चैरासी और बयानवें के साल
आज तक सुलग रहे हैं
बार्डर पर लाशों से लदी ट्रेन
उड़ीसा में ग्राहम के बेटों के साथ जलती वैन
दिल्ली में सिक्खों के गले में टायर
कष्मीरी पण्डितों पर बारूदी फायर
बाबरी से बेस्ट बेकरी तक
गोहाटी से गोधरा तक
अमृतसर से अहमदाबाद
कोहिमा से हैदराबाद
सब तुम्हारे धर्म निरपेक्ष होने का
दम भरते हैं
फिर क्यों देश में
आज भी
धर्म के नाम पर
निरपराध बलि चढ़ते हैं.

यह कैसी धर्म निरपेक्षता है
पुलिस अपनी जांच में
जातीय दंगों का पुराना आलाप
अदालत में पेश कर देती है
सत्ता के दो-चार विरोधी
पकड़कर अंदर धर देती है.

कोई सुनवाई नहीं
हां, एक फाइल अवश्य खुलती है
खुल कर बन्द हो जाती है
जिसे रद्दी में भी नहीं बेच सकते
कहीं तुमने धर्म निरपेक्ष होने की
गलती तो नहीं की !

मेरे गणतन्त्र
कितनी आसानी से
तुम बचा गये अपने आप को
महज वैधानिक चेतावनी देकर
घर का सुख चैन लेकर
सच कहना
जो तुमने कभी रोकना चाहा हो
नशे के फलते व्यापार को
विनाश की राह जाते परिवार को
फिर यह नाटक क्यों
जनता में बैठ त्राटक क्यों !
चोर को लगा कर
धणी को जगाते रहे
शराब बेच कर
नशा मुक्ति शिविर लगाते रहे
अच्छा ड्रामा है
आर्थिक प्रगति
सामाजिक विकास
नषे में डूबा जन
सपनों मे सुलगती आस.

मेरे गणतन्त्र
तुम्हारे कारिन्दे इतने भ्रष्ट हो चुके हैं
भ्रष्टता और धृष्टता की परिभाषाएं
अपने अर्थ खोने लगी हैं
चांदी की चमक से चुंधियाती
वक्त की आंखे भी
थक कर सोने लगी है
क्या यह विडम्बना नहीं
जो व्यापारी नियमित टैक्स भरते हैं
तुम्हारे कारिंदें
उसी का काम सबसे पहले करते हैं
वैसे नहीं, ऐसे
तभी तो बरसेंगें पैसे
और काम होने के बाद
उसका टैक्स देवी से पूर्व
भैरव को चढ़ता है
धन्धा दिन दूना
रात चैगुना बढ़ता है
कुछ नहीं खटकता
कुछ नहीं अटकता
खुली फाइल दबा दी जाती हैे
बिगड़ी बात बना दी जाती है
दोनो खुश
और जनता फुस्स
बस यही है
तुम्हारे तन्त्र की सबसे बड़ी देन
ईमानदारों के मुहल्ले में
बेईमानी की लेन.

मेरे गणतन्त्र
कैसी विडम्बना है
तुम्हारे व्यवस्था पर धूल नहीं
राख है
लोक सेवक के नाम पर
अच्छा मजाक है !

मालिक हाथ बांधे खड़े हैं
सेवकों की चाकरी में
ताकि तुल सकें उनके भी सपने
लोकतंत्र की ताकड़ी में.
उन्हें सेवक की कृपादृष्टि चाहिए
बस दो घड़ी उनकी फरियाद सुन ले
और जनता
साहब के मूड पर
अपने सपने बुन ले.

सच पूछो
लोक को तो पता ही नहीं
अपनी मिल्कियत का
संविधान के कायदे का
हां, कुछ चतुर बरगला गए
लोकतंत्र सौदा है फायदे का.

सिद्धांतों को पीटने के लिए
थमा दिया संविधान
जिसमें लोक राजा है
और कारिंदे निगेहबान
पर साहब तो साहब हैं
और जनता है गुलाम.

पुलिस टाइगर बनी बैठी है
कुर्सी की गुलाम होकर
थोथी शान में ऐंठी है
मंत्री की एक फटकार
उनका सिर और धड़
बधियाए सांड की तरह झुका देती है
रिरियाना और खींसें निपोरना
उन्हें  व्यवस्था सिखा देती है
‘जी सर’
‘जी मैम’
से ज्यादा कुछ नहीं बोल पाते हैं
लेकिन भूख का चरम देखो तो
पेट भरने के बाद भी गबागब खाते हैं
उनके हाथ में जो बोटी है
वह किसी मजबूर की रोटी है

वे फाइल पढ़ते नहीं
सूंघते हैं
बेखौफ हो व्यवस्था को चूंघते हैं
वादी को नोंचते हैं
परिवादी को खसोटते हैं
न्याय की आंखों में
सरे आम धूल झोंकते हैं.
मेरे गणतन्त्र
जिन्हे तुम लोकसेवक कहते हो
हकीकत में
वे जनता के राजा हैं
बासी पड़ चुकी व्यवस्था में
आज भी ताजा हैं.

मेरे गणतंत्र 
संसद से नगरपालिका तक
अेक ही राग है
सरकार गिरे
इसी में सबके भाग है

बिल्लियों के भाग से
रोज छींके टूटते हैं
सरकारें गिरती हैं
जनसेवक लूटते हैं
तूठने की आस में
जनता के भाग
फिर फूटते हैं
कोई मसीहा नहीं
कोई पैगम्बर नहीं
सभी भक्ष लेने वाले देवता हैं
जिनके पास वरदान के नाम पर वायदे बचे हैं
जिन्हे न ओढ़ा जा सकता है
न बिछाया
न पिया जा सकता है
न खाया.

मेरे गणतन्त्र
अब शासन व्यवस्था में
बाहुबलियों का बोलबाला हैं
राजनीति और अपराध ने
जिन्हे मिलकर पाला है
सत्ता जिनके लिये
महज हार जीत का खेल है
देश की संसद
सबसे सुरक्षित जेल है
पंचतारा सुविधाओं वाली जेल
उन्हे भा गई है
खद्दर के कुरते की सफेदी
उनके दामन पर लगे
सभी दागों पर छा गई है
पुलिस कल तक उनके पीछे थी
आज आगे भी है

वे नहीं बदले हैं
परिस्थितियां बदल गई हैं
देष की बदकिस्मती से
वे चुनाव जीत गये हैं
और कचहरी के सम्मन
तामील होने से पहले हार गये हैं
तारीख दर तारीख...

कैसा खेल है
आदमी सामने है
पर सम्मन तामील नहीं होता
हर बाहुबली
दागिस्तान का शामील तो नहीं होता
कहीं तो कुछ कमी है
मेरे गणतन्त्र.

आजाद देश के गुलाम लोग !
थार के फोग
जिनकी जड़ें कटती जा रही हैं
पश्चिम की जहरीली हवाएं
हमारी भाषा और संस्कृति को खा रही हैं
आज इस देश की युवा पीढ़ी
राष्ट्रभाषा से
परहेज करती है
अंग्रेजी पर मरती है
इंग्लिश हमें आती नहीं
हिन्दी है कि भाती नहीं
और तुम हिन्दी को
फ्रेन्च सा मान दिलाने पर तुले हो
पर क्या मजाल पचास सालों में
बेचारी हिन्दी के लिये
कभी दक्षिण के द्वार खुले हों
फिर ऐसी कवायद क्यों ?

अंगे्रजी अब हमारी मजबूरी है
हिन्दी की मंाग आज भी अधूरी है
कानून बनाने से कोई भाषा
राष्ट्रभाषा नहीं बनती
मेरे गणतन्त्र
कुटिल राजनीति की सांझ
ढलनी चाहिए
सीने में आग जलनी चाहिए.

क्या खूब आग जलाई
तुम्हारे तन्त्र ने
हिन्दी दिवस मनाने के
सरकारी आदेश
अंगे्रजी में आते हैं
हिन्दी बोलने पर स्कूली बच्चे
फाइन का दण्ड
आज भी  पाते हैं.
मेरे गणतन्त्र
चेतना कहीं दूर खो गई है
चिन्तन भी थक कर सो गया है
असमंजस के चलते
अब सत्ता के गलियारों में
अंधियारा सा हो गया है

अलमस्त जोगन सी सत्ता
जिसके के लिये जोग
जोग में देह के भोग
खादी में लिपटे लोग
बस यही है राज का रोग

सच ही तो कहा था भगतसिंह ने
गोरे हाथों से काले हाथों में
शासन आना आजादी नहीं है
यह तो अन्तरण है सत्ता का.

व्यवस्थाएं आज भी नहीं बदली हैं
वही पुरानी दण्ड संहिता है
वही राग है वही ढपली है.

कहां तक कहें-
सैंतालिस-पैंसठ-इकहत्तर
और कारगिल के बीच
पसरा युद्ध
जस का तस है
मेरे गणतन्त्र

आधी सदी बाद भी
नहीं सुलझा पाया तुम्हारा तन्त्र
रैड क्लिफ की पहेली को
शायद नहीं मिल पाएगी
कभी रावी
अपनी चेनाब सहेली को.
 
आखिर कितने भख देने होंगें
केसर क्यारियों वाली घाटी को
चांदी सी बरफ़ में
अब ललाई आने लगी है
झीलों के देश की तरूणाई
मुरझाने लगी है
वहां आंखों में पानी नहीं
अब खून जमता है
पर तुम्हारा ढुल-मुल रवैया
ओढ़ा हुआ राष्ट्रवाद
कहां थमता है
वार्ताओं पर वार्ताएं
निरर्थक बेतुकी यात्राएं
बस ढोया जाना है
लाशों और कफ़न के बीच
रक्त से लथपथ कश्मीर
हां, वो हमारा हिस्सा है
बरसों से सुलगता किस्सा है
धुआं उठाती वादियों में
बारामुला और पुलवामा दफ़न है
चमकती चांदी सी बरफ़
आज भी घाटी का कफ़न है
वहां किसकी लाश है
कौन मरा है
जवाब किसके पास है !

मेरे गणतन्त्र
तुम्हारी न्याय व्यवस्था में
शाहबानो जीत कर भी हार गई
वोटों की राजनीति
न्यायपालिका को तमाचा मार गई
हम सब मूक दर्शक बने
तमाशा देखते रहे
बंसरी और डुगडुगी
तुम्हे जो थमा दी थी
चाहो जैसे नचाओ
और हम लगे रहे
बिना रूके
सिर्फ झुके
खम्मा घणी की जुहार में
आधी सदी से
तुम्हारे दरबार में

मेरे गणतन्त्र
जनता ने तुम्हे सौंप दी है
अपनी वीटो
न्यायपालिका - कार्यपालिका
जिसे चाहो जब चाहो
मर्जी से पीटो
सिर गिनाती तुम्हारी विधायिका
हमारी लाचारी है
सरकार के पास
संख्या बल की खुमारी है.

मेरे गणतन्त्र
वन्देमातरम्
होठों के बाद
दिल में उतरता ही नहीं
देश के यौवन पर बसंती रंग
चढ़ता ही नहीं
वो तो उलझी है
मैडोना के पाॅप में
आरक्षण के शाप में
भूख से झगड़ते हुए
प्यास से लड़ते हुए
कभी आन्दोलनो में
कभी चुनावों में.

प्रणय निवेदनों में फंसी देह को झांकता
देश का यौवन
परेशानियों से इतना त्रस्त है
कि अन्धी दौड़ में व्यस्त है
खुद को भूल गया है
सर्कस के जोकर सा
करतब दिखाने में नादान
रस्सी पर झूल गया है
कहां है देश 
कैसा है देश
किसका है देश !

मेरे गणतन्त्र,
पूरी पीढ़ी में
फैल चुका है
एक खतरनाक वायरस
जो हमारे खून में से
देशभक्ति के जज्बे वाली
अदृश्य कणिकाओं को
खा रहा है
ग्लोबलाइजेशन की आड़ में
गुलामों का बादशाह
अपनी जड़ें जमा रहा है
न्यूयार्क स्क्वायर पर टंगे
भारतीय होर्डिंग ने
हमारी अगली पीढ़ी को
दांव पर लगाया है
हाकिम ने वायदों की चूसनी में
सच्चे सौदा मिला
जाम-ए-इंसा पिलाया है.

मेरे गणतन्त्र
साहित्यिक विकास की आड़ में
तुमने थरप दीे अकादमियां
जहां तुम्हारा तन्त्र
सम्मान के नाम पर
पुरस्कारों के टुकड़े फेंकता है
चाटुकारों की जमात
गिरने से पहले ही
उन पर टूटती है
भोजन के बाद ली गई डकार सी
उनकी सजृनधर्मिता
सरकारी सम्मान और
पुस्तकालयों का
बजट लूटती है
पाठक नहीं
वो दीमक के दीवाने हैं
छपने के बाद उन्हें
किसी अलमारी का रैक चाहिए
पुरस्कार रेटिंग में आने के लिए
दारू और देह का जैक चाहिए
साहित्य में देह
देह में उलझा साहित्य
अकादमियों ने इससे ज्यादा
क्या दिया है मेरे गणतन्त्र !

कागद और कलम पर
पिछलग्गुओं के पहरे हैं
टुकड़े की आस में
टुकड़ा टुकड़ा हुए
लिक्खाड़ों पर लगे दाग
बहुत गहरे हैं.
 
मेरे गणतन्त्र
मैं जानता हूं
तुम्हारे तरकश में
सड़क, बिजली और पानी के
विकास का तीर है
जो कागजों में बड़ा गंभीर है
हकीकत में वह कड़क नहीं है
रिकार्ड में दर्ज
सैंकड़ों गांव में
 आज भी सड़क नहीं है
तुमने तो बना दी
बिल भी उठा लिए
संसद में रखने के लिए
रिपोर्ट अच्छी है
एयरकण्डीशण्ड हाॅल में ऊंघते
नेताओं में कौन जानेगा
कितनी सच्ची है.

तुम्हारे तन्त्र के मन्त्र से
बिजली तो नहीं
हां, गांव और ढाणियों में
स्थायी सेवा शुल्क के साथ
बिल जरूर पहुंच रहे हैं
उन बिलों से रोषनी नहीं
रोष उतरता है तुम्हारे स्तम्भों पर
और फिर कुण्डियां लग जाती है
सरकारी खम्भों पर
जिन्हे वोटों की राजनीति
चाहकर भी नहीं उतरवा पाती.

और पानी...
उडीकती आंखों में बहता है आजकल
पानीदार लोगों ने बांट लिए हैं
देश के झरने, नदियां और नहरें
अब वे बंद कमरों में
खैरात सा बांटते है
हमारे हिस्से का पानी
सिंचाई तो दूर
पीने के पानी की उडीक में
जब पलिण्डों में खाली घड़े हों
मुर्दाए ढोर जोहड़ खड़े हों
सूखती डिग्गियों को छाती चिपाए
खेत प्यासे पड़े हों
तब किसान खुदकुशी नहीं करे
तो क्या करे ?

देश का आम आदमी
ऐसे मुकाम पर खड़ा है
जहां से कोई रास्ता
नजर ही नहीं आता
शोर के सन्नाटे में
आस्था की प्रार्थना
कोई नहीं बुदबुदाता.

मेरे गणतन्त्र
यही वास्तविकता है
समय चक्र की कसौटी पर
तुम खरे नहीं उतर सके हो
फिर भी तुम्हारी जीत का जष्न
बदस्तुर जारी है.

लेकिन हम अवाम हैं
उलझे हैं
तुम्हारे सितम और टुकड़ों के बीच
बिल्ली को देख
कबूतर ने ली है
अपनी आंखे मींच
हश्र सब जानते हैं
हां कुछ सिरफिरे
इस नियम को नहीं मानते हैं.

निकल पड़ते हैं अकेले दम पर
कबूतरों के बीच से
बाज की तरह
खत्म हो रही जंग में
नये आगाज़ की तरह
बस वहीं टिकती है
अवाम की आस
युगों की भूख, सदियों की प्यास.

मेरे गणतन्त्र मुझे भी
उस वक्त की तलाश है
जब भाड़ में गए
मेरे देश की मिट्टी में सनी
 जिन्दा लाशें सिरफिरों की जुबां बोलेेंगी
बरसों से बंद पड़े तुम्हारे दरवाजे
अपने हक की खातिर खोलेंगी.

इस देश के आकाश में
एक दिन
उनका सूरज भी उगेेगा
जो गणतन्त्र के मायने नहीं जानते
उन्हे पता है तो सिर्फ
पेट और पीठ का फर्क
उनमें बची है तो सिर्फ
बीपीएल कार्ड बनाने की ललक.

वक्त की तपिश
झुलसा देगी तुम्हारे सड़े-गले तन्त्र को
जिसे तुम जनता के लिए
जनता का राज बताते हो
जनता की खाल ओढ़
जनता को बिछाते हो.

मेरे गणतन्त्र
सिरफिरों के साथ
जिन्दा लाशें एक और संग्राम लड़ेंगी
एक बार फिर गूंजेगी
 सवालों के धमाकों से
तुम्हारी संसद और विधानसभाएं
जिनमें बैठकर तुम्हारे कारिंदे
सरे आम देश को बेच रहे हैं
तुम निभाओगे अपनी भूमिका
 साण्डर्स और डायर के वेश में
बिकोगे बार-बार
अपने ही हाथ से, अपने ही देश में.

हम लडे़ेंगे
अनथक दिन-रात
हम खोजेंगे अपने रास्ते
उन्ही जिन्दा लाशों के साथ
वही काल कोठरियां होंगी
उन्ही फन्दों को तैयार रखना
जिनमें दफन है
हमारे पूर्वजों की आत्माएं
संघर्षों की अनकही कथाएं

मेरे गणतन्त्र
सिरफिरे मर सकते हैं
मार सकते हैं
लेकिन अपने बलिदान से
पीढ़ियां तार सकते हैं
बस वक्त आने दो
और वक्त आएगा
कोई बिस्मिल फिर बताएगा
क्या हमारे दिल में है

उसी वक्त के इन्तजार में
हम गढ़ रहे हैं
अपनी सोनचिड़ी के लिए
नये नुकीले पंख
जो अपनी पहली फड़फडा़हट के साथ ही
छिटका देंगी तुम्हे और तुम्हारी व्यवस्था को

एक बार फिर
विश्व आकाश पर
सुगमता से उड़ पाएगी
हमारी सोनचिड़ी
देरी से सही
मगर एक दिन जरूर

तब तुम्हे बदलना होगा
मेरे गणतन्त्र
प्रकृति का वह नियम
जिसे डार्विन बता गये हैं
तुम पर भी लागू होता है !

1 comment:

  1. भारतीय शासन व्यवस्था का सटीक चित्रण करती सार्थक रचना के लिए लखदाद।

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