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Saturday 31 December 2022

कब्जों की बिसात पर विकास की महागाथा


(अतिक्रमणों के बहाने...)


....इधर बड़े दिनों से शहर में 'अतिक्रमण हटाओ अभियान' का शोर है। दरअसल, राजनीति में इस तरह के अभियान गाहे-बगाहे चलते ही रहते हैं। चूंकि लोकतंत्र प्रहरियों के कान कच्चे होते है, लिहाजा अपनी करतूतों से कुछ प्यादे गिर पड़ते हैं तो उनका स्थान लेने नये सिर उठ भी खड़े होते हैं। स्थानीय राजनीति की बिसात पर अतिक्रमण का यह पूरा खेल नये-पुराने प्यादों की इसी उठापटक का नतीजा है, जो हमेशा की तरह अनिर्णित रहने वाला है।
कहावत है-ठंठेरां री मिनकी नै खुड़कै सूं कांई डर ! गुजरते हुए साल की तरह इस 'खुड़के' को देखना भी एक शगल भर है।

सूरतगढ़ में अतिक्रमण का खेल कोई नया नहीं है। शहर के बाहरी वार्डों में पैराफेरी की लगभग 4600 बीघा जमीन, जो 90 के दशक में राजस्व विभाग द्वारा नगरपालिका को सौंपी गई थी, का अधिकांश भाग कब्जों की भेंट चढ़ चुका है। इन कब्जाधारियों में जाने कितने पंच-सरपंच, प्रधान, डायरेक्टर, पार्षद, पटवारी, पत्रकार, कर्मचारी, राजपत्रित अधिकारी, पुलिस के कारिंदे और अन्य जनप्रतिनिधि शामिल रहे हैं। बहती गंगा में हाथ धोने के बहाने इन अतिकर्मियों ने अरबों रुपए की यह सरकारी संपदा चंद सालों में ही खुर्द-बुर्द कर दी। आज ये सब महामहिम अपने रसूख के चलते दूध के धुले साबित हो चुके हैं।

अब जो शेष बची हुई भूमि है, वह अत्यंत कीमती है। उसे हड़पने की साजिश ही इस बवाल की मूल जड़ है। गिद्ध दृष्टि लगाए भू-माफिया गिरोह इस फिराक में रहते हैं कि गरीबों की आड़ में वे भूमि का बड़ा हिस्सा डकार जाएं तो वहीं कुछ नौसिखिये लोग थोड़ा-बहुत खर्च कर 'भागते भूत की लंगोटी पाना' चाहते हैं। मगर जब कभी दांव उल्टा पड़े तो उन्हें नुकसान होना भी स्वाभाविक है। पर 'बाई का फूल बाई नै..' जैसी कहावतें गढ़ने वाले ये लोग खिसियानी बिल्ली की तरह दांत निकालने लगते हैं।

इस पूरे खेल में नगरपालिका खुद एक 'डिफेंडर' की भूमिका में रहती है। शक्ति याद दिलाने पर हनुमान की तरह वह कभी-कभी 'सेंटर फॉरवर्ड' खेलने तो लगती है, लेकिन बड़ी जल्दी फॉउल करवा बैठती है। सत्ता पक्ष का प्रतिनिधि इस खेल में रेफरी बन उसे लाल/पीला कार्ड दिखाकर मनमाफिक ढंग से यूज़ करता है। थोड़ी-बहुत तोड़फोड़ के बाद 'वही घोड़े वही मैदान' वाली स्थिति हो जाती है। 'चूरमा' किसे नहीं भाता !

शहर में चल रहे अतिक्रमण और तोड़फोड़ के मामले का तथ्यात्मक विश्लेषण करते हैं तो इस पूरे बवाल में बहुत से सवाल उठते हैं। सरकारी सम्पत्ति को हड़पने का प्रयास करना गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है, लेकिन क्या मजाल पालिका द्वारा किसी दोषी अतिकर्मी, उसके सहयोगी, संलिप्त पार्षद या कर्मचारी के खिलाफ कोई नामजद मुकदमा दर्ज करवाया गया हो। अपराध को बढ़ावा देने की यह कार्यशैली अपने आप में शर्मनाक है। यदि वाकई पालिका प्रशासन और हमारे जनप्रतिनिधि इस समस्या को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें इन सवालों के जवाब तलाशने चाहिए -

जवाब मांगते सवाल


1. जब शहर में अतिक्रमण हो रहे थे उस वक्त पालिका का अतिक्रमण निरोधी दस्ता क्या कर रहा था ?
2. इस दस्ते द्वारा कब-कब और कितने मामले चेयरमैन और अधिशासी अधिकारी के प्रसंज्ञान में लाए गए ?
3. कितने मामलों में पालिका के उच्चाधिकारियों द्वारा आंख और मुंह बंद रखे गए ?
4. जब वार्ड में अतिक्रमण हो रहे थे,. तब वहां के पार्षद की भूमिका क्या थी ?
5. वार्ड प्रहरी के रूप में उस पार्षद ने अतिक्रमण को रोकने के क्या प्रयास किए ? यदि वह खुद संलिप्त था तो पालिका ने उसके खिलाफ क्या कार्रवाई की ?
6. पालिका के चेयरमैन और अधिशासी अधिकारी जानबूझकर आंखें मूंदे क्यों बैठे थे ?
7. सक्षम होने के बावजूद उपखंड अधिकारी और अतिरिक्त जिला कलेक्टर ऐसे मामलों में कड़ी कार्यवाही करने से गुरेज क्यों करते रहे ?
8. बात-बात पर चिल्लाने वाले विपक्ष को ये अतिक्रमण दिखाई क्यों नहीं दिए ? क्या विपक्षी पार्षद भी मिलीभगत के चलते इस खेल में शामिल थे ?
9. अवैध ढंग से कब्जा किए गए अनेक भूखंडों के पट्टे भी जारी हुए हैं, आखिर किन कर्मचारियों और अधिकारियों की मिलीभगत से यह पट्टे जारी किए गए ?


ऐसे अनेक सवाल हैं जिनका उत्तर कोई नहीं देना चाहता। अतिक्रमण तोड़ने पर वाहवाही बटोरने वाली नगरपालिका की कार्यशैली एक मजाक सी लगती है जिसमें वह अपनी संपत्ति पर हुए अवैध कब्जे और कब्जाधारी की पहचान तो कर लेती है लेकिन सिवाय मलबा जप्त करने के, उस अपराध में लिप्त लोगों के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करती। यह पकड़े गए चोर को छोड़ने जैसी बात है। सोचने योग्य बात है कि नगर पालिका के 'लैंड बैंक' को लूटने वाले अपराधियों को शह देना भी सहभागिता का एक अपराध है। सनद रहे, राज्य की संपत्ति को इस ढंग से खुर्द-बुर्द करवाने पर आपराधिक न्यास भंग का गंभीर मामला बनता है। यदि कहीं कोई जनहित याचिका लग गई तो दोषियों के गले में आते देर नहीं लगेगी।

गुजरते साल 2022 के अंतिम दिन इस रपट के बहाने यही कामना की जा सकती है कि नव वर्ष हमारे जनप्रतिनिधियों को सद्बुद्धि दे !

- डॉ.हरिमोहन सारस्वत 

Wednesday 28 December 2022

श्श...लाइब्रेरी रो रही है !

 


सही पढ़ा है आपने ! सच में 'लाईब्रेरी' रो रही है। अंधी दौड़ में किसे पड़ी है, जो घड़ी भर रूके, उसे चुप करवाए। पर जरा सोचिए, अगर कोई दबे पांव आकर आपके कंठ मोस दे और घर पर आधिपत्य जमा ले तो कैसा लगेगा ?

दरअसल, 'लाइब्रेरी' के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। व्यावसायिकता के दौर में बाज़ार ने दबे पांव आकर न सिर्फ इस शब्द के अर्थ बदल दिए हैं बल्कि एक गरिमापूर्ण स्थान से लाकर उसे गली-मोहल्लों में टपोरी की तरह खड़ा कर दिया है। ऐसा मानवीय व्यवहार देख शायद शब्द भी अपनी अस्मिता पर रोते होंगे।

ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब शब्दकोशों के खजाने में 'लाइब्रेरी' शब्द ज्ञान का भंडार और विद्वता सहेजने का केन्द्र हुआ करता था। दुनिया के हर देश में 'लाइब्रेरी' को अपनी महत्ता के चलते अद्भुत सम्मान प्राप्त था। किताबों का यह संसार इतना अनूठा था कि वहां दुनियाभर के ज्ञान पिपासु लोग बैठ कर शब्द साधना करते थे। इन पुस्तकालयों में जाने कितने नए आविष्कारों का जन्म हुआ, कितने सपने पल्लवित हुए, साकार हुए, वैश्विक विकास की कितनी ही नवीन संभावनाएं इन्हीं किताबों के संसार में गढ़ी गई। नालंदा से तक्षशिला और हावर्ड से कैंब्रिज के बीच फैले समृद्ध पुस्तकालयों की महिमा चहुंओर चर्चित थी।


लेकिन आज...। इस गंभीर शब्द की वो दुर्गति हुई है कि मत पूछिए !गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह उगी इन तथाकथित लाइब्रेरियों की हालत देख शब्द रोते हैं। बाजारवाद के चलते आज की लाइब्रेरी से पुस्तकें गायब हो चुकी हैं, उनका स्थान झूठे सपने दिखाने वाली गाइड्स और कॉपी किये गए नोट्स ने ले लिया है। उन गुरू घंटालों की क्या कहिए, जिन्होंने निजी स्वार्थों के चलते 'लाइब्रेरी' के अर्थ ही बदलवा दिए। ऐसे गुरूओं से क्या उम्मीद की जा सकती है जिन्हें 'लाइब्रेरी' और 'वाचनालय' में फर्क करना तक नहीं आता ! शिक्षाविद् कहलाने के शौकीन, ये जगद्गुरु बड़ी शान से अपने चेलों की 'लाइब्रेरी' का उद्घाटन करते हैं।उधार लिए शब्दों में व्यक्त अपने उद्बोधन में लाइब्रेरी की महत्ता को बयान करते हैं और सरकारी नौकरी की सिद्धि देने के बड़े-बड़े दावे करते हैं। अपने हित साधते यही गुरू सीधे-साधे विद्यार्थियों को एकांत में अध्ययन करने की बजाय इन लाइब्रेरियों में जाने के लिए प्रेरित करते हैं।

गली-मोहल्लों के नुक्कड़ पर खुली इन लाइब्रेरीज का पुस्तकों से दूर-दूर तक संबंध नहीं है। यहां सिर्फ बैठकर पढ़ने की सुविधा रहती है। ज्यादा हुआ तो वाईफाई और ड्रिंकिंग वॉटर...। भीड़ में एकांत तलाशते विद्यार्थी इन लाइब्रेरीज में अपने नोट्स और बुक्स लेकर पहुंचते हैं। वहां बैठने के लिए वे संचालकों को घंटों के हिसाब से भुगतान करते हैं। इन लाइब्रेरीज में भी भीड़ भरी होती है लेकिन आज के दौर में कानों में ईयर-फोन लगाने से ही आदमी भीड़ में अकेला हो जाता है, खुद में खो जाता है।

जरा सोचिए क्या लाइब्रेरी शब्द इतना छोटा है कि महज 10X10 के कमरे में समा जाए ! क्या पढ़ने की एकांत सुविधा को लाइब्रेरी कहना उचित है ? जहां ज्ञानवर्धक पुस्तकों का अभाव हो उसे लाइब्रेरी कैसे कहा जा सकता है ? चंद रोजगारपरक पत्रिकाओं और दो-चार अखबारों से कोई स्थान लाइब्रेरी नहीं बन जाता, वहां तो किताबों की खुशबू होना लाजिमी है।

लेकिन जहां सरकारी नौकरी का तिलिस्म ज्ञान पिपासा और जिज्ञासा से बड़ा हो जाए, युवाओं के सुनहरे सपने कोचिंग की गाइड्स और पेपर लीक के जाल में उलझे हों, वहां पर लाइब्रेरी जैसे कितने ही संवेदनशील शब्द अपनी अस्मिता पर बुक्का फाड़कर रोएं नहीं तो क्या करें ! आभासी सपनों की भीड़ में उन्हें ढाढ़स बंधाने वाला कोई नहीं है।

-रूंख

Sunday 13 November 2022

अनूठा रहा 'अंजस' का आयोजन

(रेख़्ता फाऊंडेशन द्वारा आयोजित अंजस महोत्सव के बहाने)

जब हम अपनी भाषा को सहेजने और उसके उन्नयन की बात करते हैं तो सही मायने में उस वक्त हम अपनी सांस्कृतिक विरासत और मानवी सभ्यता को संरक्षित करने का महत्वपूर्ण काम कर रहे होते हैं. संस्कृति, जिसमें हमारे संस्कार सिमटे हैं, हमारा साहित्य रचा जाता है, हमारी कलाएं, हमारे गीत-संगीत पनपते हैं, हमारे लोकरंग और हमारा लोकजीवन रचता-बसता है, उस समग्र को पीढ़ी दर पीढ़ी अग्रसर करने का काम भाषा ही तो करती है.


इस मायने में जोधपुर में आयोजित 'अंजस महोत्सव' ने राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास की दिशा में एक मजबूत कदम रखा है. 29-30 अक्टूबर को 'गढ़ गोविंद रिसोर्ट' में सम्पन्न इस दो दिवसीय आयोजन में सिनेमा, संगीत और साहित्य का अनूठा संगम देखने को मिला. राजस्थानी साहित्य में 'डिंगल दरबार', 'कविता कोटड़ी', 'साहित्यिक पत्रकारिता में भासा' और 'गद्य की घड़त' सरीखे गंभीर सत्र आयोजित किये गए.


कार्यक्रम में उपस्थित हजारों कला प्रेमियों के बीच लोक संगीत को नई ऊंचाइयां देने वाले गायक पदमश्री अनवर खान, युवा दिलों की धड़कन मामे खां और मुख्त्यार खान ने खूब रंग जमाया. आयोजन में 'बाड़मेर बॉयज' को सुनना सुकून भरा था तो वही 'राहगीर' के गीत ' तुम उड़ तो पाओगे...' ने सबको झूमने के लिए मजबूर कर दिया. हिंदी कविता को नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाले शैलेश लोढ़ा और अभिनेत्री इला अरुण ने भी अपनी प्रस्तुति में दर्शकों को राजस्थानी संस्कृति के अनछुए पहलुओं से रूबरू करवाया. कॉरपोरेट और फिल्म जगत की हस्तियों ने भी इस आयोजन में दर्शकों से अपने अनुभव साझा किए.


इस सांस्कृतिक मेले में राजस्थानी साहित्य साधकों से मिलना भी एक सुखद संयोग था. आदरणीय तेज सिंह जोधा, डॉ. अर्जुनदेव चारण, आईदान सिंह भाटी, मधु आचार्य, लक्ष्मणदान कविया, अंबिकादत्त, डॉ. जितेंद्र सोनी, मनोहर सिंह राठौड़, पदम मेहता, श्याम महर्षि, कुमार अजय, घनश्यामनाथ, मोनिका गौड़, संतोष चौधरी, डॉ. गजादान चारण, भरत ओला, सत्यनारायण सोनी, डॉ. मदनगोपाल लड्ढा, राज बिजारणिया, छैलूदान चारण, डॉ. राजेंद्र बारहठ, सुरेंद्र स्वामी राजेंद्र देथा, देवीलाल गोदारा और रूप सिंह राजपुरी की संगत ने समय को सुखद बना दिया.

इस सफल आयोजन के लिए रेख़्ता फाउंडेशन के संस्थापक संजीव सराफ निश्चित तौर पर बधाई के पात्र हैं जिन्होंने दूरदृष्टि रखते हुए राजस्थानी भाषा को 'अंजस' वेबसाइट के रूप में एक बेहतरीन डिजिटल प्लेटफॉर्म दिया है. अंजस महोत्सव के उद्घाटन सत्र में ही इस वेबसाइट का लोकार्पण हुआ. इस प्लेटफार्म पर राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति को सहेजने का अनूठा काम हुआ है. राजस्थानी के लगभग 400 रचनाकारों का गद्य और पद्य साहित्य इस वेबसाइट पर उपलब्ध है जो निस्संदेह प्रशंसनीय है. रेख़्ता फाऊंडेशन द्वारा इस वेबसाइट पर निरंतर रचनात्मक सामग्री डाली जा रही है जो इसे और बेहतर बनाने का साझा प्रयास है.


राजस्थानी आंदोलन को लंबे समय से व्यक्तिगत और संस्थानिक स्तर पर मजबूत करने के काम चल रहे हैं. उन्हीं सभी प्रयासों का परिणाम है कि आज राजस्थानी की बात संसद और विधानसभा में ही नहीं, सात समंदर पार तक गूंजने लगी है. इसी कड़ी में कॉरपोरेट स्तर पर 'अंजस' का आयोजन एक सुखद एहसास है जिसने हमारे भीतर अपनी मातृभाषा और संस्कृति के प्रति गौरव का भाव पुनर्स्थापित किया है. राजस्थान और राजस्थानियों के लिए अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने की दृष्टि से यह एक शुभ संकेत है.

डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
kapurisar@gmail.com

पुनश्च:
(यह पोस्ट राजस्थानी में भी लिखी जा सकती थी लेकिन रेख़्ता के संजीव सराफ की साफगोई ने हिंदी में लिखने को प्रेरित किया. बातचीत में उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें राजस्थानी बोलना नहीं आता, लेकिन उसके बावजूद वे पूरे मनोयोग से राजस्थानी के लिए काम करना चाहते हैं. सच है, भाषा कोई भी हो, कट्टर बंधनों में कहां ठहर पाती है !)

Saturday 12 November 2022

बड़भागण है गोमती !

( श्याम जांगिड़ रै नूवै उपन्यास गोमती भाभी रै मिस...)


'जिकी लुगाई सुहागण जावै बा बड़भागण कुहावै' इण कैबत सूं परखां तो गोमती भाभी सांचाणी बड़भागी निसरी, पण बा ई सागी गोमती जद आपरो चूड़ो जीवतै धणी सामीं भांगै तो लखावै कै उण सूं निरभागी कुण ! भाग-निरभाग रै इस्यै ई सवालां री पड़ताळ सूं निसरी है गोमती भाभी री गाथा, जिण नै उपन्यास विधा में साम्ही लाया है हिंदी अर राजस्थानी रा चावा-ठावा लिखारा श्याम जांगिड़.

ओ नूवो उपन्यास 'गोमती भाभी' समाजू अबखायां अर धणी री दगाबाजी सूं जूझती तिरिया जूण री गाथा है. लाम्बी कहाणी सूं सरू होई इण उपन्यास री जातरा गोमती भाभी री दोरी सी जियाजूण रा पान्ना फरोळती आगै बधै. आं पान्नां में लुगाई री अंतस पीड अर उण पीड नै पीवण रो होसलो दोनूं लाधै. तिरिया जात रै दुख दरद नै लेय'र भोत सो रचाव होयोड़ो है. इण रचाव मांय घणकरै लिखारां री दीठ लुगाई री मनगत सूं बेस्सी उण रै डील रै ओळै-दोळै फिरती रैयी है. गिणती रा लिखारा लाधै जिका तिरिया रै तन सूं आगै बध'र उण रै मन, उण री अंतस तास नै आपरै सबदां री घड़त देवै. जांगिड़ इण उपन्यास में अबखायां सूं जूझती गोमती री मनगत भोत सांतरै ढंग सूं परोटै.

प्रकास इण उपन्यास रो सूत्रधार है जिको गोमती रै धणी सुधीर रो भायलो है. उण नै जद सुधीर रै दूजै ब्याव रो ठाह लागै, तद गोमती अर उण रै टाबरां बाबत अळोच सरू व्है. इणी घरळ-मरळ में तिरतो-डूबतो प्रकास तिरिया मनगत री पड़ताल करतां थकां आगै बधै अर गोमती री आखी जियाजूण पाठकां सामीं लावै. गोमती रो किरदार पाठकां रो अंतस भिजोवण में कामयाब है. इण उपन्यास रो कथ अर बुणगट जांगिड़ री साहित साधना री साख भरै.

भासा रै पेटै बात करां तो जांगिड़ इण कथ में औकारांत रो प्रयोग करै जिण पर लिखारां रा भांत-भांत रा बिचार है. पण कदास भासाई एकरूपता सारू बै 'ओ' री ठौड़ 'औ' बरतै. जांगीड रो रचाव घणा छळ-छंद नीं जाणै, वो तो ठेठ लोक रै अंदाज में आपरी बात पाठकां साम्ही राख दै जिकै री मठोठ जादा कारगर होवै. वां री भासा में सेखावाटी बोली री ठसक साव निगै आवै, जिण में अपणायत रा बोल ई बटीड़ दांई पड़ै. पाठक उण प्रीत री पीड नै केई ताळ पम्पोळ बोकरै.

इण पोथी सूं पैली आयो जांगिड़ रो उपन्यास 'नौरंगजी री अमर कहाणी' ई खासो चरचा में रैयो है. वांरो कहाणी संग्रै 'एक सती री आखरी परकरमा' अर व्यंग्य संग्रै 'म्हारो अध्यक्षता कांड' नै ई ठावो मान मिल्यो है. आलोचना रै पेटै ई जांगिड़ रा आलेख घणा सराइज्या है.

'गोमती भाभी' उपन्यास राजस्थानी साहित में आपरी निरवाळी पिछाण बणासी, ओ म्हारो निजू विसवास है. साहित में इण बधेपै सारू श्याजी नै घणा-घणा रंग.
-रूंख

Monday 26 September 2022

मायतां री सीख अंगेजतै टाबरां री मनगत है 'डोंट वरी पापा'


( हरिचरण अहरवाल रै राजस्थानी उपन्यास रै मिस...)


'डोंट वरी पापा' हाड़ौती में मायड़ भासा री अलख जगावता हरिचरण अहरवाल रो नूवों राजस्थानी उपन्यास है. इण उपन्यास सूं पैली अहरवाल रा दो कविता संग्रै 'बेटी' अर 'बावळी' छप्योड़ा है. 'वै बी कांई दिन छा' नांव सूं वांरो राजस्थानी संस्मरण संग्रै ई खूब सराइज्यो है.

इण उपन्यास री बात करां तो हो सकै, पाठकां नै राजस्थानी पोथी रो अंग्रेजी नांव अपरोगो लागतो होवै, पण म्हारो ओ मानणो है, हर सबद एक जातरू होवै. इण जातरा में वै देस, काल अर किणी भासा री हद में नीं बंधै. एक भासा सूं दूजी भासा में बै कद मांखर जा पूगै, ठाह ई नीं लागै. सबद री आ जातरा भासावां नै सबळी करै अर मिनखपणै में बधतै आंतरै नै घटावै.
पछै सगळी चिंता मेटणिया 'डोंट वरी' सबद आपांनै अपरोगा नीं लागणा चाइजै.

हरिचरण अहरवाल
राजस्थानी भासा रै इण उपन्यास में हाड़ौती बोली रो सखरो आनंद लियो जाय सकै. भलंई साहित्यिक दीठ सूं कूंतारां नै 'डोंट वरी पापा' एक लाम्बी कहाणी लखावै पण इण पोथी में औपन्यासिक विधा रा सै सैनाण लाधै. इण उपन्यास रो कथ्य भलंई साधारण दिसै पण भासा अर बुणगट  री दीठ सूं आ कठैई कमतर कोनी. हळंवै-हळंवै आगै बधतै टाबरां री बात अर मायतां री चिंता नै अहरवाल भोत सांतरै ढंग सूं पाठकां साम्ही राखै.

'डोंट वरी पापा' समाजू संस्कार अर सीख रो उपन्यास है जिण में टाबर आपरै मायतां सूं मिली सीख नै अंगेजता थकां आगै बधै. उपन्यास रा पात्र सुनील अर पलक इस्या ई टाबर है जिका आपरी मैनत रै पाण मा-बापू री आंख्यां में हरख रो पाणी ल्यावण में कामयाब होवै. दूजां रो भलो करणो अर अबखायां बिच्चाळै ई आपरी डांडी नीं छोडणी, जैड़ी सीख लियोड़ा टाबर ई 'डोंट वरी पापा' कैवण रो होसलो राखै.

जगचावा साहितकार प्रेमचंद एक ठौड़ कैयो है, 'मा नै आपरो बेटो सदांई दूबळो लखावै अर बाप नै गळत रस्तै बैंवतो. आ बां री ममता है, कीं गळत बात कोनी.' 

सोळा आना साची है आ बात ! मायत सदांई टाबरां री चिंता में दूबळा रैवै, वान्नै लागै कै म्हारा टाबर जियाजूण री अबखायां सूं किंकर पार घालसी. मायतां री इण दीठ में घड़ी-घड़ी पावसतो हेज है जिको वान्नै आखी जूण अळोच सारू मजबूर करै. पण इणी घरळ-मरळ में टाबर कद मांखर मोटा हो जावै अर मायतां नै 'डोंट वरी पापा' कैय'र धीजो बंधावै, ठाह ई नीं लागै. उण बगत हरख री बिरखा सूं मायत रो अंतस कित्तो भरीजै, कैयो नीं जा सकै.

कविता अर कहाणी सूं घणो अबखो काम है उपन्यास लिखणो, पण थ्यावस री बात आ है कै राजस्थानी में दूजी विधावां भेळै आं दिनां उपन्यास विधा पर ई लगोलग काम हो रैयो है. अहरवाल जी री सरावणजोग खेचळ ईं काम नै आगै बधायो है, वान्नै घणा-घणा रंग. जीएस पब्लिशर्स एंड डिसटीब्यूटर्स नई दिल्ली सूं छप्योड़ी इण पोथी री छपाई अर साज सज्जा ई ओपती है. आस राखणी चाइजै, आ पोथी राजस्थानी रै साहित में बधेपो करसी.

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'


Wednesday 22 June 2022

इन दिनों...!



(हिंदी कहानी)

चारों तरफ गुब्बारे ही गुब्बारे थे. उड़ते हुए गुब्बारे. छोटे-बड़े, रंग-बिरंगे. कुछ फूले हुए, कुछ पिचके से. किसी की हवा निकल रही थी तो किसी की टाइट थी. कोई हवा खराब कर रहा था तो कइयों की हवा खराब थी. कुल मिलाकर यूं लगता था, पृथ्वी गुब्बारों से भरी एक बड़ी थैली बन चुकी है. जैसा अक्सर गुब्बारों के पैकेट में हुआ करता है, इस बड़ी थैली में भी मरियल और फटे गुब्बारों की भरमार थी जिनकी कहीं कोई पूछ न थी. हां, गाहे-बगाहे इन्हीं मरियल गुब्बारों की 'बिटकनी' बना एक दूसरे के सिरों पर फोड़ी जा रही थी.


गुब्बारों की इस तोड़-फोड़ के चलते 'फटाक' और 'पट' का शोर चहुंओर था. कई 'फटाक' मिलकर बम के धमाके कर रहे थे जबकि कुछ 'पट' लक्ष्मी बम थे यानी धुएं की भरमार और ढेर सारा कचरा. 'बिटकनियों' के क्या कहने ! चींटियों के पांव में नेवरों की रूनझुन. कुछ गुब्बारों से निकलता 'फुस्स' का शोर बड़ा अजीब था. 'संऊंं......सूं........फूं....' के साथ बांडी' सी फूंकार, मानो एक बार तो डस ही लेगी. लेकिन अगले ही पल हांफते हुए, लिटपिटा कर ढेर हो जाना, इन गुब्बारों की फितरत थी.

फटे गुब्बारों की मत पूछिए. इधर हवा भरी, उधर निकली. चिकने घड़ों पर बूंद ठहरे भी तो कैसे ? मगर 'हवा' भरने वाले होंठों के क्या कहने ! थकते ही न थे. इन हवाबाज होंठों की कमी कहां थी. एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा, गुब्बारों में हवा भरने का एक लंबा सिलसिला. विज्ञान और तकनीक की मदद से अब तो हवाबाज़ों ने नए पंप भी इजाद कर लिए थे. पल भर में सौ पाउंड की हवा, एक साथ लाखों गुब्बारों में हवा भरने की तकनीक, मनचाहे रंग की हवा भरने के दावे. उड़ते गुब्बारों में हवा भरने की तकनीक भी खोजी जा चुकी थी. वाकई हवाबाज़ों ने खूब तरक्की की थी.

मगर गुब्बारों की इस भीड़ भरी दुनिया में सुइयां भी थी. होनी भी चाहिए. सृजन और विनाश, कुदरती नियम जो ठहरा ! मगर दिक्कत यह थी कि ये सुइयां घाघ लोगों की उंगलियों में छिपी थी, भला आंख वाले अंधों को कैसे दिखती ! शातिर लोग बस उंगली लगाते, गुब्बारे का काम तमाम. दरअसल, उंगली लगाना एक कला बन चुकी थी. इस कला में पारंगत लोग निहायत ही कलात्मक ढंग से सुइयों का प्रयोग करते थे. गुब्बारों से भरी दुनिया में सुई और उंगली की यह कला सीखने और सिखाने वालों की कमी नहीं थी. सुइयों वाली उंगली कब और कहां धरी जाए, चतुर व्यवसायियों द्वारा इसके लिए बाकायदा ट्रेनिंग सेंटर्स खोल दिए गए थे. 'आर एंड डी' लैब्स में नये किस्म की सुइयां विकसित हो रही थी जिनकी नोक पर शब्द धरे जा रहे थे, जहर बुझे शब्द ! अब महज एक सुई लाखों गुब्बारों का काम तमाम करने के लिए काफी थी. दिन-रात गुब्बारों के फटने का शोर ध्वनि प्रदूषण की सारी सीमाएं लांघ चुका था. बीपी और शुगर के मापदंडों की तरह धमाकों के सम्बंध में नए प्रदूषण नियम गढ़ने और स्वीकारने की तैयारी थी. शोर शराबे के बीच कहीं खुशियां, कहीं गम. यही सब तो चल रहा था इन दिनों...

अचानक कोरोना सी कयामत हुई. पता नहीं कैसे, गुब्बारों के फटने पर हवा की जगह लहू निकलने लगा. फटाक, पट, संऊंं....सूं........फूं...के शोर के बीच पृथ्वी लहूलुहान हो चली. रक्त से लथपथ फूटे गुब्बारे, बारिश के दिनों में रोशनी से टकराने वाले कीट-पतंगों की भांति अनवरत गिरते ही जा रहे थे. हवा में उड़ते गुब्बारों के फूटने का शोर ऐसा था मानो किसी ने पटाखों के गोदाम में पलीता लगा दिया हो. एक बार तो सबने सोचा, शायद गुब्बारों में नयी तकनीक से भरी लाल रंग की हवा संघनित होकर बह निकली है लेकिन जब उसे छूकर देखा गया तो वह खून ही था. गर्म गाढ़ा खून, जो किसी जिंदा जिस्म से निकलता है. नेगेटिव और पॉजिटिव ग्रुप्स में बंटा यह खून थक्का बना ही नहीं पा रहा था, बस एकाकार होकर पृथ्वीनुमा गुब्बारे पर तेजी से बहता चला जा रहा था. कंदराओं के बीच से होता हुआ, ढलानों की ओर, नदी-नालों के साथ, महासागरों में मिलने को बेताब....

इस विभत्स दृश्य को देख रहे एक छोटे से अनछुए गुब्बारे ने अनायास ही आशंका जताई-

'क्या पानी भी लाल होने वाला है ?'

ठीक उसी वक्त आंख वाले अंधों ने पहली बार देखा कि सुइयां सजी पारंगत उंगलियां सुन्न पड़ रही हैं और कुशल हवाबाज़ों के होंठ सूखने लगे हैं.

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

kapurisar@gmail.com

Thursday 2 June 2022

गाड़ी बुला रही है !


(कोयले वाले रेल इंजिनों के दिन)


'अंजण की सिटी में म्हारो मन डोलै...'

इकराम राजस्थानी का यह लोकप्रिय चुलबुला गीत उस गुजरे वक्त की सुनहरी यादों को बयां करता है जब भारतीय रेल्वे स्टेशनों पर कोयले से चलने वाले इंजिन की सीटियां गूंजा करती थी. जी हां ! इन रेल इंजिनों की सुरीली सीटी इतनी मधुर होती थी कि बड़े-बड़ों का दिल डोल जाए. यकीं न हो तो आप एक बार 'शोले', 'विधाता' या फिर 'गदर' के रेल इंजिन वाले वो सीन याद कीजिए जो इन 'सुपरहिट' फिल्मों की जान कहे जाते हैं. और ज्यादा जज़्बात जगााऊं तो पाकीजा के मशहूर गीत 'चलते चलते, यूं ही कोई मिल गया था...' में बज रही इंजिन की सीटी और मीना कुमारी की बेचैनी को याद कर लीजिए.

जेम्स वॉट द्वारा आविष्कृत भाप के इन्हीं इंजिनों ने लगभग डेढ़ सौ साल तक भारतीय रेल्वे में सिरमौर बन जनता की अतुलनीय सेवा की थी. मुझे याद पड़ता है, 1995 के आसपास भारत में कोयले वाले रेल इंजिनों के पहिए हमेशा के लिए थम गए थे और उनका स्थान डीजल व बिजली से संचालित इंजिन ने ले लिया था लेकिन यकीं जानिए भारतीय रेल में जो रुतबा भाप के इंजिनों को मिला, वह अनूठा और ऐतिहासिक है.

आज के दौर में, जब बुलेट ट्रेन की बात हो रही है, तब कोयले वाले काले-कलूटे इंजिन भले ही बिसरा दिए गए हों, लेकिन उनकी अमिट छवि स्मृति पटल पर अक्सर जाग उठती है क्योंकि मेरे बचपन के खजाने में कोयले वाले इंजिन भी शामिल रहे हैं. मेरे पिता उत्तर रेल्वे में ड्राइवर थे, इसलिए स्वाभाविक है कि मुझे इन इंजिनों को न सिर्फ करीब से देखने का मौका मिला बल्कि बचपन की जाने कितनी यात्राएं मैंने इन्हीं में खड़े होकर की.

स्मृतियों का एक पन्ना पलटता हूं तो 1982 का समय याद आता है, मैं कक्षा 6 में हनुमानगढ़ के कैनाल कॉलोनी स्कूल में पढ़ा करता था जो हमारी रेल्वे मेडिकल कॉलोनी से लगभग 3 किलोमीटर दूर था. उन दिनों मैं अपने दोस्त शैलेंद्र और प्रकाश के साथ अक्सर यार्ड में शंटिंग कर रहे इंजिन से ही स्कूल जाया करता था. 'रेल्वे हमारी और हम रेल्वे के', तो फिर इंजिन किसका हुआ ! हमें देखते ही शंटर अंकल इंजिन रोक लेते और हम शाही सवारी पर स्कूल जाया करते. आप में से शायद ही किसी को ऐसे अनूठे स्कूल वाहन में बैठने का सौभाग्य मिला हो !


उन दिनों 9 जोन्स में विभाजित भारतीय रेल में उत्तर रेल्वे सबसे बड़ा जोन हुआ करता था जिसका लोको शेड हनुमानगढ़ में भी था. लोको शेड वह खास जगह थी जहां दिन-रात इंजिनों की मेंटेनेंस का काम चलता रहता था. लोको शेड में सुबह और शाम रेल कर्मचारियों के लिए निश्चित समय पर 'हूटर' बजा करता था जिसे सुनकर लोग अपनी घड़ियां मिलाया करते थे. उस वक्त गूगल और ऑटोमेटेड टाइम के ऑप्शन कहां थे ! हां, दिन-रात कर्मचारियों और अधिकारियों की आवाजाही से रेल्वे के लोको शेड जगमगाया करते थे.

कोयले वाले इंजिन को तीन सदस्यीय टीम संचालित करती थी जिसमें खलासी, फायरमैन और ड्राइवर शामिल थे. गाड़ी रवाना होने से लगभग दो घंटे पहले, रेलवे का एक कर्मचारी, जिसे 'कॉल बॉय' कहा जाता था, ड्राइवर के घर जाकर 'ड्यूटी' का संदेश दिया करता था. घर पर जब तक ड्राइवर साहब का टिफिन तैयार होता तब तक वे लोको शेड में जाकर इंजिन का चेकअप कर लेते. इस काम में फायरमैन और खलासी उनका सहयोग करते जो 'कॉल बॉय' की सूचना पर उनसे पहले ही वहां पहुंच जाते.

गाड़ी माल हो या सवारी, लोको से इंजिन के निकलने से पहले उसकी पूरी जांच की जाती थी. इंजिन के पिछले हिस्से में कोयला रखा जाता था जिसे खलासी हथौड़े से तोड़ता रहता था. इस हिस्से में एक बड़ी टंकी भी होती थी जो भाप बनाने के लिए पानी की आपूर्ति करती थी. फायरमैन तोड़े गए कोयले को कड़छीनुमा 'सब्बल' से इंजन के 'फायर बॉक्स' में डालता रहता था. 'फायर बॉक्स' खुलने का सीन देखने लायक होता था. पीली, सुनहरी और लाल लपटें उठाती भट्टी, जिस का तापमान करीब 2500 डिग्री होता था, एक जीवंत दृश्य प्रस्तुत करती थी. ड्राइवर स्टीम वॉच पर नजर रखता और एक लम्बे रॉड़नुमा हत्थे, जिसे हैंडल कहा जा सकता है, से इंजिन को संचालित करता था. टीम के तीनों सदस्यों का काम अत्यंत मेहनत भरा होता था. थार के रेगिस्तान में, जहां गर्मियों के दिनों में तापमान 50 डिग्री तक पहुंच जाता है, वहां इन कोयले वाले इंजिनों को चलाना आग की भट्टी में उतरने के समान दुष्कर कार्य होता था. शायद इसी महत्ता के चलते ब्रिटिश राज व्यवस्था के समय से ही लोको रनिंग स्टाफ को सबसे अधिक अहमियत दी जाती थी.



जब लोको से निकलकर इंजिन स्टेशन पहुंचता तब तक खलासी या फायरमैन अपने टिफिन के साथ ड्राइवर साहब के घर से भी टिफिन ले आते. पिताजी को पान खाने का शौक था. मुझे अच्छी तरह याद है कि स्टेशन से बाहर निकलते ही भंवरजी पनवाड़ी की दुकान हुआ करती थी जहां पिताजी का पान बनता था. वे अपना पान ज्यादातर खुद तैयार करवाते थे. कभी-कभी इंजिन पर पान लाकर देने की ड्यूटी मेरी भी लगती थी. 'मद्रास पत्ता और 80 नंबर' सुनते भंवर जी समझ जाते, किसका पान है. ड्यूटी जाते समय अपने दो पान लेना पिताजी शायद कभी नहीं भूले.

स्टेशन पर जब कोयले वाला इंजिन खड़ा होता तो जाने कितनी सवारियां उत्सुकता भरी निगाहों से उसे निहारती रहती. इंजिन जब स्टीम छोड़ता तो नजारा देखने लायक होता. उसके वैक्यूम पाइप से निकलती भाप की आवाज से यूं लगता मानो किसी अजगर ने फूफकारा हो. स्टीम वॉच को जांचने के बाद ड्राइवर जब इंजन की छत में लगे तार को खींचकर सिटी देता तो सबके कान खड़े हो जाते, जाने कितनों के दिल धड़कने लगते. अवधारणा थी कि इंजिन तीन सिटी देगा और तीसरी सिटी के बाद ट्रेन के अंदर डिब्बे में खड़ा गार्ड हरी झंडी दिखाएगा.

ट्रेन जब धीरे-धीरे प्लेटफार्म से सरकना शुरू करती तो इंजिन का शोर ट्रेन के डिब्बों के साथ मिलकर ऐसा संगीत प्रस्तुत करता मानो संतूर और बांसुरी पर शिव-हरि' की जुगलबंदी हो रही हो. इस संगीत में जब पटरियां भी तबले सरीखी ताल मिला लेती तो पूरा वातावरण अद्भुत संगीत से गुंजायमान हो उठता था. ड्राइवर इंजिन की खिड़की से मुंह बाहर निकालकर गार्ड की हिलती हरी झंडी को दोबारा देखता और फिर धीरे धीरे गाड़ी स्पीड पकड़ लेती. काला धुआं उड़ाता इंजिन सबको अपने गंतव्य की ओर यूं ले जाता मानो लंका दहन के बाद हनुमान जी अपनी पूंछ बुझाने के लिए समुद्र की ओर उड़े चले जा रहे हो.

....भाप के इंजिनों की इस विरासत कथा को एक आलेख में समेट पाना संभव ही नहीं है. इस इतिहास के जाने कितने अनछुए आयाम हैं जिन पर बहुत कुछ लिखा जाना शेष है. फिलवक्त विधाता फिल्म में इंजिन चला रहे ड्राइवर दिलीप कुमार और फायरमैन शम्मी कपूर की जुगलबंदी का खूबसूरत गीत 'हाथों की चंद लकीरों का, ये खेल है बस तकदीरों का...' याद किया जा सकता है. वक्त के प्रहार से कोयले वाले इंजिन भले ही पंचभूत में विलीन हो गए हों लेकिन रेल इतिहास में उनकी महागाथा आज भी अमर हैं.

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'




Sunday 22 May 2022

बाघे की बेरी बोल रही हूं !

(एक दरख़्त की दास्तां)

‘छोड़कर तेरी जमीं को दूर आ पहुंचे हैं हम/ है यही बस एक तमन्ना तेरे जर्रों की कसम...’

कितना दूर....पता नहीं..., हां, इस गीत को सुनकर मेरी डालियां जीरो लाइन को लांघती हुई अपने आप तुम्हारी ओर झुकती चली आती है। सरहद पर हर शाम, बीएसएफ के सिस्टम से जब यह गीत फुल वोल्यूम में बजता है तो मुझे लगता है, प्रेम धवन साहब ने ‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ गीत मेरे लिए भी तो लिखा होगा।

पर मैं तो पाकिस्तान की सरहद में हूं, भला मेरे लिए कोई हिंदुस्तानी क्यों गीत लिखेगा ! आप कहेंगे, दरख़्तों के भी देश होते हैं क्या ? मुझे नहीं पता।. सच पूछिए, मैं कब पाकिस्तानी हो गई, मैं नहीं जानती। हां, इतना जरूर याद है कि मेरी मां करतारे के खेत की बट पर थी। उसी खेत से सटा चाचे गुलाम रसूल का खेत था जो वाघे पिंड की सींव छूता था। रसीले देशी बेरों से लकदक, मेरी मां की मिठास के, सात गांवों तक चर्चे थे।

जब बेर पूरे पकाव पर होते, तो अटारी से भानू चक ही नहीं, करतारे की बेरी के चर्चे अमृतसर से लाहौर तक होते थे। करतारा और गुल्लू, दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे थे, दिनभर धमाचौकड़ी मचाने वाले। गोलमटोल गुल्लू, गोरा गट्ट करतारा।  करतारा गुल्लू को ‘बाघे का बाशा’ कहता था। बाशा की नाक बहती रहती थी जिसे सुड़ककर वह अपने कुरते की बांह से पोंछ लेता। हां, जिस रोज करतारे के जूड़े पर उसकी बेबे रूमाल बांधती, बाशा के कुरते की बांह गीली होने से बच जाती थी। उनकी दोस्ती पक्की, मगर लड़ते तब कुत्ते-बिल्लों की तरह। वो कहते है ना ‘काणो मांटी सुहावै नीं, काणै बिना नींद आवै नीं’। ऊंची हेक लगाकर बोलियां पाने वाली इस जुगल जोड़ी की गांव के बच्चों में तूती बोलती थी।


...आज जब सरहद पर कंटीले तार देखती हूं तो मुझे आदम जात पर तरस आता है। कांटे तो मेरे ही बहुत हैं लेकिन आदमी के कांटे कब उग आए, कौन जाने ! कांटे कभी नहीं चाहे थे मैंने, लेकिन विधना कभी-कभी अनचाही सौगात देती है जिसे स्वीकारने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं होता। दरअसल, मन खुशी और दर्द दोनों को अपने भीतर बखूबी सहेज लेता है, उसके पास अलग-अलग चैम्बर कहां होते हैं !

दुःख तो मुझे भी बहुत हुआ था, जिस दिन करतारे ने मुझे मां की छांव से निकालकर रसूल चाचे के खेत की बट पर रोप दिया था। उस शाम बूंदाबांदी हो रही थी। मुझे याद है मेरे आंसू और बारिश की बूंदे एकाकार हो गए थे। जड़ें उखड़ने का दर्द एक दरख़्त से बेहतर भला कौन जानता है ! और मैं थी भी कितनी सी, बिलांत भर की. बारिश में भीगता हुआ करतारा अपनी नन्हीं हथेलियों में मेरी जड़ों को दबाए पांच कील्ले चलकर इस खेत तक पहुंचा था। गुल्लू के ‘बाघे’ वाले खेत में भी एक बेरी होनी चाहिए, इसी अज्ञात प्रेरणा से उसने खाले की बट पर मुझे रोप दिया था। तभी लगभग दौड़ते हुए वहां पहुंचे गुल्लू ने अपनी नाक सुड़कते हुए मेरे चारों ओर गोल बट बांधकर बाड़ कर दी थी। पानी था कि लगातार गिर रहा था।

‘देखना बाशा ! इस बेरी के बेर उससे भी मीठे होंगे।’

‘ओए काके, यूं कि बेरी लगाई किसने है।’

‘बाशा के बेर लंदन तक ना बिकें तो कहना।’

‘यार करतारे, क्या लंदन बेर बेचने जाएंगे ?’

‘ओ लाले दी जान, इन बेरों को खरीदने के लिए लंदन वाले अपनी गोरी मेमों के साथ गुल्लू के खेत तक चले आएंगे. समझे क्या !’

दोनों देर तक हंसते रहे। करतारा भीगते मौसम मे हेक लगाकर बोलियां पाता रहा, बाशा उसके सुर में टेर लगाता रहा। शाम के धुंधलके में गलबहियां डाले खेत की पगडंडी से गुजरती दो नन्हीं परछाइयां धीरे-धीरे लुप्त हो गई। उनकी हंसी और बोलियों के बीच मेरे आंसू कब धुल गए, मुझे नहीं पता। लगा, जैसे मैं अचानक बड़ी हो गई हूं।

उसके बाद शायद ही कोई ऐसा दिन रहा हो जब गुल्लू और करतारे ने आकर मुझे न छुआ हो। वे मेरे पास बैठकर घंटों बतियाते। गांव भर की बातें सुनाते। उन्हीं से तो मैंने पहली बार ‘पाकिस्तान’ शब्द सुना था। वे भी कहीं से सुन कर आए थे। गुल्लू कहता था कि उसे अब पाकिस्तान जाना पड़ेगा। मुसलमानों का अलग देश बन रहा है। लड़ाई और मार-काट बातें सुनकर मैं भी डर गई थी। हे मेरे मालका, कहीं फिर से जड़ें तो नहीं उखड़ जाएंगी !

मुझे बहुत बाद में पता चला था। जड़ें तो जाने कितनों की उखड़ी थी। बंटवारे के समय मेरी मां को निर्ममता से काट दिया गया था। उसकी मोटी डालियों से खूब सारे ड़ंडे बनाए गए थे। बर्छियां और गंडासे भी बने थे। यकीनन वे जिन हाथों में रहे होंगे, उन्होंने कितना खून बहाया होगा। क्या गुल्लू और करतारे के हाथ में भी बर्छियां होंगी ?

मुझे याद आता है बंटवारे के वक्त तो दोनों मुझे बाहों में भर कर खूब रोया करते। उनकी चारों बांहों के बीच मैं उनके गालों से ढुलते आंसूओं की नमी पी जाती। लेकिन वे भी तो अचानक जाने कहां गायब हो गए थे....। जब मैं पहली बार बौराई थी तो बहुत रोई थी। मीठे बेरों से लदी थी, लेकिन दूर-दूर तक कोई खाने वाला नहीं...। जरा सोचो तुम्हारे पास कोई खुशी हो लेकिन उसे देखने वाला कोई नहीं तो कैसा महसूस करोगे ! यह सिलसिला वर्षों तक चला. हर बौर के वक्त यही लगता, मैं एक शापित स्त्री हूं जो गर्भ में ऐसे बच्चे को पाल रही है जिसके हृदय में स्पंदन है ही नहीं. मेरे बेरों को लंदन तो दूर, अटारी और वाघे के ग्राहक ही नसीब नहीं हुए।


...समय बीतता गया, सिवाय सेना की गाड़ियों के, इधर कोई नहीं आया। फौजी बूटों और संगीनों के साये में प्रेम का पल्लवित होना रेगिस्तान में हरियल होने के सपने सरीखा है। मुझे याद है, बंटवारे के शुरुआती दिनों में, करतारा अक्सर अपने खेत की बट से, पलकों के आगे हथेली की छांव कर, मुझे घंटों ताकता रहता। वह चाह कर भी मुझ तक नहीं पहुंच सकता था। और बाशा.... उसका तो अता-पता ही नहीं। उस वक्त मैंने जाना, सरहदें क्या होती है। जीरो लाइन जाने कितने लोगों की जिंदगी को हीरो से जीरो कर देती है. और मैं,.....मैं तो जीरो लाइन पर खड़ी हंू। उस जीरो लाइन पर, जहां दोनों तरफ बारूद भरी बंदूकें टंगाए, जाने कितने फौजी दिन-रात पैर पटकते हैं। कब बारूद फट जाए, कौन जाने ! शायद, हर वक्त मौत के साए में जीने की सजा मुकर्रर की गई है मेरे लिए ...।

वक्त के इस वक्फे में, मेरी जीरो लाइन अब बाघा बॉर्डर बन चुकी है जहां दोनों तरफ के हजारों लोग, पुरजोर देशभक्ति का जज्बा लिए रोज उमड़ते हैं। आर्मी के बैंड और जूते एक लय में बजते हैं, परेड होती है, मुट्ठियां और सीने तनते हैं। मगर मेरे जैसा दर्द लिए, दो झंडे रोज चढ़ते और उतरते हैं। उस वक्त हजारों कैमरे क्लिक होते हैं। काश ! कोई आंख भी क्लिक होती....।

मैं देशभक्ति के इस माहौल में हक्की-बक्की सी खड़ी भीड़ का जोश देखती रहती हूं। जब संगीनों के साये में फौजी बूट बजते हैं। काश, मैं रोही का कोई कीकर होती। निर्विकार भाव से चुपचाप तप-साधना तो कर लेती। मगर लेखों का दोष किसे दूं ! स्त्री जात का अंतस भीगे बिना नहीं रहता, तिस पर मैं तो मीठे बेर देने वाली बोरटी जो ठहरी। भले ही पत्थर पड़ें या डंडे, मैंने आदम की तरह स्वभाव नहीं बदला। बदला तो मेरा करतारा भी नहीं होगा।

बॉर्डर की परेड के पहले ही दिन करतारा मुझे दूर से दिख गया था। वह भी अब मेरी तरह गभरू जवान था। उसे इतने दिनों बाद देख मैं बहुत खुश थी। उसने दौड़ कर मेरे करीब आना चाहा था मगर मजबूत फौजी हाथों ने उसे पकड़कर पीछे धकेल दिया था। उस दिन वह बहुत रोया था। परेड के बाद वह दर्शक दीर्घा में कुछ देर और बैठना चाहता था लेकिन फौजियों ने उसे जबरन बाहर निकाल सलाखों वाला गेट बंद कर दिया। सलाखों के पार से झांकती, करतारे की वो भीगी आंखें, मुझे भुलाए नहीं भूलती। मगर उस दिन के बाद वह कभी लौट कर नहीं आया। और बाशा, उस कमबख्त की शक्ल देखे तो एक जमाना बीत गया। अब तो उसके बच्चे भी जवान हो गए होंगे। क्या वे मुझे पहचान पाएंगे ?

इन्हीं सवालों के ताने-बाने में, मैं बाघे की बेरी अपना पूरा दिन निकाल देती हूं। हां परेड के वक्त, हर रोज मेरा पत्ता-पत्ता करतारे की भीगी हुई आंखें तलाशता है। काश ! एक बार ही सही, मैं उन आंखों की नमी पी सकती। गुल्लू के इंतजार को तरसती मेरी डालियां कभी इधर, तो कभी उधर झूलने लगती है।

आज जब तुम दिखे तो जाने क्यों, मेरा मन भर आया। मैंने तो तुम्हें देखते ही पहचान लिया था। सब परेड देख रहे थे और तुम, सिर्फ मुझे...। तुम्हारी आंखें बोलती हैं दोस्त, और ऐसा बहुत कम आंखों के साथ होता है। सोचा तुम से ही करतारे के हाल-चाल पूछ लूं। उसे कहना, मैं आज भी उसका और गुल्लू का इंतजार करती हूं। घड़ी भर ही सही, वे दोनों मेरे गले से लगकर रो लें तो मुझे जन्मों का सुकून मिले और जन्मांतर से मुक्ति।

...और हां, हो सके तो अपनी हुकूमत से पूछ कर बताना मुझे, बाघे की इस बेरी की रिहाई आखिर कब होगी !

                                                             -‘रूंख’


Wednesday 4 May 2022

लहना आज भी भटकता है सूबेदारनी की खातिर !


(गुलेरी की गलियों से गुजरते हुए...)


गुरू बाजार की उसी दही वाली गली से गुलेरी का लहना आज भी गुजरता है. यह और बात है कि उसे सूबेदारनी होरां तो दूर, उसकी परछाई तक नहीं दिखती. दिखते तो आजकल बंबू कार्ट वाले भी नहीं है जिनके शोर से कभी अमृतसर की गलियां गूंजा करती थी. 'बचके भा'जी, 'हटो बाशा', परां हट नीं करमांवालिए' , 'हट जा पुत्तांवालिए', नीं जीणजोगिए' जैसे जुमले सूबेदारनी की परछांई की तरह गुम हो चुके हैं.

सौ बरस से अधिक हुए, यूं कहिए 'बंबू काट' वाले जमाने में, अमृतसर के गुरू बाजार मोहल्ले की जिस गली में लहना कभी दही लेने आया करता था वो गली आज बाजार की चमक से गुलज़ार है. बाजार में दही है, लस्सी है, तरह-तरह की कुल्फियां और मिल्क बादाम है लेकिन उनमें 'कुड़माई' वाले प्रेम की मिठास कहां ! आंख वाले अंधों के इस भयावह दौर में, जबकि आंखों की नमी थार के जोहड़ों सी सूखती जा रही है, लहने का दर्द बांचने की फुर्सत किसके पास है ! ये दीगर बात है कि मुझ सरीखे ढफोल़ आज भी लस्सी के बहाने लहने की छोटी सी प्रेमकथा की खुशबोई अमृतसर की गलियों में तलाशने पहुंच ही जाते हैं.

मजे की बात यह है कि ऐसे सिरफिरों को 'द सीक्रेट' की परिकल्पना अनायास ही उसी गली में लहना सिंह से मिलवा ही देती है. इसे संयोग कहिए कि दो दिन पूर्व अमृतसर साहित्यिक यात्रा के दौरान मैं लहनासिंह की स्मृतियों को तलाशता उसी गली में जा पहुंचा जिसकी कल्पना चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने हिंदी साहित्य की सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ कहानी 'उसने कहा था' में की थी. जलियांवाला बाग के दर्द को समेटने वाली इन गलियों पर भले ही आधुनिकता का मुल्लम्मा चढ गया हो लेकिन  गुरू रामदास और गुरू अर्जुनदेव द्वारा स्थापित हरमंदिर साहब और गुरबाणी के प्रभाव से आज भी ये गलियां महकती हैं. आज भी यहां से गुजरने वाले हर आदमी का शीश गुरूओं की महिमा के समक्ष स्वत: ही नतमस्तक हो उठता है.


शाम के वक्त, उसी गली के नुक्कड़ की एक दुकान, जहां दही और लस्सी दोनों उपलब्ध थे, के बाहर पड़े मुड्ढे पर मैं बैठ गया. बाजार में खासा चहल-पहल थी. मैं 'उसने कहा था' की कड़ियों को जोड़ता हुआ, उस गली मे बिखरी गुलेरी की संवेदनाओं को फिर से सहेजने का यत्न कर रहा था. दही और बड़ियों की दुकान...चश्मा लगाए लाला... जूड़े पर सफेद रुमाल बांधे हुए लहना... वही बारह-तेरह साल की 'कुड़माई' वाली लड़की...धत...!
भावनाओं के उभार में दस मिनट बमुश्किल से गुजरे होंगे कि गली के दूसरे छोर पर मंथर गति से चलता हुआ एक शख्स दिखाई दिया. सिर पर पगड़ी, आंखों पर नज़र का चश्मा, कुर्ता पायजामा पहने यह आदमी जब थोड़ा नजदीक पहुंचा तो उसमें मुझे लहना सिंह का अक्स साफ-साफ दिखाई दिया जिसकी दाढ़ी सफेद पड़ चुकी थी. यकीनन वो मेरे बेतरतीब ख्यालों का लहना ही तो था. हाथ में स्टील की डोली लिए, मानो आज भी दही लेने जा रहा हो. तमाम दुनिया से बेखबर, अपनी नजरें झुकाए लहना हमेशा की तरह चुपचाप चल रहा था.

एकबारगी तो लगा कि मुझे उस शख्स से बात करनी चाहिए. फिर दिमाग में एक ख्याल उभरा, "नहीं, कहीं लहना दर्द के समंदर में डूबा प्रेम की प्रार्थना न बुदबुदा रहा हो." मैं जड़वत हुआ उसे सधे हुए कदमों से जाते हुए एकटक देखता रहा. फिर जैसे कोई ख्वाब हौले-हौले शून्य में विलीन हो गया हो...

दरअसल, किस्सों और यादों की खासियत यही होती है वे जे़हन में बार-बार उमड़ते हैं, ख्वाब बुनते हैं फिर पंखुड़ियों की तरह बिखर जाते हैं. हां, उनकी खुशबू हमें देर तक महकाती रहती है. 
-रूंख



Thursday 7 April 2022

मनगत रै भतूळिया नै परोटणै रो नांव है 'अटकळ'


(डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा का राजस्थानी लघुकथा संग्रह 'अटकळ')


शिव बटालवी एक पंजाबी गजल मांय कैयो है कै-

जाच म्हानै आ गई गम खाण री
हौळै हौळै रो'र जी परचा'ण री
आछो होयो थे पराया होयग्या
चिंता निवड़ी आपनै अपणान री...


खरो सांच है कै मनगत रै भतूळिया नै परोटणै री अटकळ जिण खन्नै है फगत बो ही जियाजूण री घुळगांठ रा आंटा खोल सकै. सांवटणै री इणी कला सूं कथ अर कविता जलमैं जिकी आखी जगती नै सीख दिरावै. राजस्थानी रा चावा-ठावा लिखारा डॉ. घनश्यामनाथ कच्छावा मनगत री बात नै कथणै री सांगोपांग खिमता राखै. लघुकथावां री वांरी दूजी पोथी 'अटकळ' इण बात री साख भरै. 2006 मांय छपी कच्छावा री पैली आसूकथा पोथी 'ठूंठ' रो सिरजण ई राजस्थानी मांय खासो सराज्यो. इण रो सीधो कारण है कै वांरी कथावां री बुणगट जाबक ई ओपरी नीं लागै. सुजानगढ़ री धरती सूं सेठिया जी री सिरजण परम्परा नै रूखाळता घनश्याम जी खन्नै आपरो कथ्य अर रचाव है जिको वान्नै अळघी ठौड़ दिरावै. पाठक आं कथावां नै आपरै ओळै-दोळै सोधतां थकां रचाव रो आनंद लेवै अर लिखारै री दीठ साथै सगपण जोड़ै. 

एक कथा री बानगी देखो-

'ओ घर किण रो है ?'
'म्हारो!'- घरधणी बोल्यो।
'ओ खेत किण रो है ?'
म्हारो!'- किरसो बोल्यो।
'आ जमीं किण री है ?'
म्हारी!'- जमींदार बोल्यो।
'ओ धन किण रो है ?'
म्हारो!'- साहूकार बोल्यो।
'पछै, ओ देस किण रो है ?'
सगळा चुप व्हग्या.
देस रो कोई धणी धोरी नीं बण्यो.

राजस्थानी साहित मांय वात शैली री न्यारी निरवाळी ठौड़ है. जूनै बगत रो राजस्थानी लोक आसू कथा घड़नो खूब जाणतो पण बातां रै टमरकां रो वो टैम बायरियां रै साथै ई गयो परो. जणाई आधुनिक राजस्थानी साहित मांय इण विधा री पोथ्यां रो टोटो सो ई रैयो है. कदे कदास इक्की दुक्की पोथ्यां साम्ही तो आई, पण चित्त नीं चढ सकी. अबै 'अटकळ' बांच्यां पछै लागै है कै राजस्थानी मांय भी लघुकथा रै बिगसाव रा सांतरा सैनाण मण्ड रैया है. 

आस राखणी चाईजै कै कच्छावा जी री कलम सूं सांतरै रचाव री साहित धारा बैंवती रैयसी जिकी मानखै नै दिसा देंवतां थकां मिनखपणै रो बिगसाव करसी.

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

Tuesday 5 April 2022

धरा की जिजीविषा है घग्घर


 
( डॉ. मदन गोपाल लढ़ा के कविता संग्रह 'सुनो घग्घर' को बांचते हुए...)


नदिया धीरे धीरे बहना
नदिया, घाट घाट से कहना
मीठी मीठी है मेरी धार
खारा खारा सारा संसार...

कवि प्रमोद तिवारी की यह कविता अनायास ही अवचेतन मस्तिष्क से उभरने लगती है जब आप घग्घर नदी को संबोधित कविताएं बांच रहे होते हैं.

'दरअसल, घग्घर केवल नदी भर नहीं है, धरा की जिजीविषा है.' यह कहना है थार के संवेदनशील रचनाकार डॉ मदन गोपाल लढ़ा का, जिनका ताजा कविता संग्रह 'सुनो घग्घर' इन दिनों चर्चा में है.

विश्व साहित्य में नदियों को संबोधित करते हुए पहले भी अनेक कविताएं लिखी गई हैं लेकिन जब थार का कोई कवि मन किसी नदी के नाम से अपनी अभिव्यक्ति दे तो उसे जानने की ललक उठना स्वाभाविक है. रेगिस्तान और नदी के संबंध को चुंबक के समान ध्रुवों की स्थिति से बेहतर समझा जा सकता है जो एक दूसरे से विकर्षित होते हैं. प्यास भर पानी को सहेजता थार नदी के स्वप्न अवश्य देखता है लेकिन उसकी किस्मत में हमेशा मृग मरीचिका ही रहती है.


.. इसे मेरी खुशकिस्मती ही कहिए कि मेरा बचपन घग्घर के बहाव क्षेत्र में गुजरा है जहां भूपत भाटी द्वारा स्थापित भटनेर के ऐतिहासिक किले पर पत्थर फेंकते हुए हमने कभी अठखेलियां की थी. हिमालय पर्वत श्रंखला की शिवालिक पहाड़ियों से निकलने वाली इस नदी के बहाव क्षेत्र को नाली के नाम से जाना जाता है. अखंड भारत में यह नदी पटियाला, अंबाला के रास्ते बीकानेर रियासत के गंगानगर जिले में प्रवेश करती थी. उन दिनों सरहद पार तक इस नदी का बहाव क्षेत्र था जो अब धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर है.

लेकिन इस संग्रह में संकलित कविताओं में घग्गर एक बार फिर पुनर्जीवित हो उठी है. मरु मन के सपनों में हरदम बहती घग्गर इतिहास के साथ कदमताल करती नजर आती है. इन कविताओं की बानगी देखिए-

पानी के मिस 
लेकर जाती है सरहद पार 
कथाएं पुरखों की 
अतीत के उपन्यास 
निबंध गलतियों के 
और रिश्तो की कविताएं 
कितना कुछ कहना चाहती है कितना कुछ सुनना चाहती है 
सृजन धर्मी घग्गर !

कवि घग्गर को धीरज और संबल के प्रतीक रूप में देखता है. उसे नदी के लुप्त हुए स्वर में वर्तमान के साथ-साथ भूत और भविष्य के संकेत स्पष्ट नजर आते हैं. तभी तो वह कहता है-
जो कहना चाहते हो 
पुरखों से 
घग्गर को कहो 
वह पहुंचा देगी संदेश 
अनंत लोक में भी..

इस संग्रह की कविताओं को तीन भागों में बांटा गया है. 'बिसरी हुई तारीखें' फूल से झरी हुई पंखुड़ी और 'घर-बाहर' नामक इन खंडों में वर्तमान और विरासत को जोड़ने वाली रचनाएं हैं. कालीबंगा के चित्र शीर्षक से लिखी गई कविताएं भाव और शिल्प सौंदर्य की दृष्टि से बेहतरीन कही जा सकती हैं. 'दर्द की लिपि को बांचना/आसान कहां होता है भला..., या फिर, केवल घग्घर जानती है/ खुदाई में मिली काली चूड़ियों की पीर.. सरीखी पंक्तियां इन कविताओं को सार्थक वक्तव्य में बदल देती हैं.

राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग और बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह कविता संकलन संग्रहणीय है. उम्मीद की जानी चाहिए कि डॉ. लढ़ा की लेखनी से अभी और बेहतरीन कविताएं रची जानी है जो जीवन को और सुंदर बनाने का काम करेंगी.

- डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

Saturday 2 April 2022

दक्षिण एशिया में भारत


( भारत के पड़ोसी देशों के साथ संबंधों पर डॉ. नंदकिशोर सोमानी का महत्वपूर्ण  संकलन)


दक्षिण एशिया दुनिया का वह मोहल्ला है जिस पर रूस और अमेरिका ही नहीं, अपितु यूरोप के दिग्गजों की भी हमेशा नजर लगी रहती है. इसी मोहल्ले में सदियों से भारत का परिवार आबाद है जिसने जीवन के जाने कितने रंग देखते हुए अपने अस्तित्व को बचाए रखा है. यह दीगर बात है कि भारत के कई बेटे अपने अलग घर बसा कर अब उसके परिवार के 'शरीके' बन चुके हैं. और 'शरीका' यानी कुटुंब के लोग, कैसा व्यवहार करते हैं, इसका अनुभव कमोबेश हर सामाजिक प्राणी को होता है. देशों के संदर्भ में इन्हीं अनुभवों की पड़ताल को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विश्लेषण का नाम दिया जाता है. 'दक्षिण एशिया में भारत' शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक भी इन्हीं मुद्दों पर प्रकाश डालती है.

अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ डॉ. नंदकिशोर सोमानी के संपादन में प्रकाशित यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो विश्व मानचित्र पर इस भूभाग की वर्तमान परिस्थितियों का सारगर्भित विश्लेषण करती है. इस कृति में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञों द्वारा भारत के संदर्भ में लिखे गए आठ शानदार आलेख हैं. पड़ोसी मुल्कों से भारत के संबंधों की पड़ताल करते ये आलेख न सिर्फ शैक्षणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं बल्कि हिंद महासागर से हिमालय के बीच पसरे समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को समझने के महत्वपूर्ण दस्तावेज बन पड़े हैं.

डॉ.अमित कुमार सिंह का भारत-पाक संबंधों पर लिखा गया 'अविश्वास और आशा की गाथा' एक बेहतरीन आलेख है जो भूटान के प्रधानमंत्री जिग्मी वाई. थिनले के संदेश से शुरू होता है. थिनले कहते हैं 'हर दक्षिण एशियाई जानता है कि घर में लड़ते झगड़ते रहने वाला कोई परिवार खुश नहीं रह सकता और झगड़ालू पड़ोसियों के रहते कोई समुदाय समृद्ध नहीं हो सकता.'

डॉ. दीपक कुमार पांडे अपने आलेख में भारत-बांग्लादेश संबंधों में गर्माहट तलाशते हैं तो वहीं विवेक ओझा भारत म्यांमार के समक्ष अवसर, चुनौतियों और समाधान पर बात करते हैं. डॉक्टर नीलम शर्मा अपने आलेख में भूटान के साथ भारत के संबंधों की विवेचना करती हैं और वैश्विक परिदृश्य में दोनों देशों की भूमिका पर प्रकाश डालती हैं.

भारत अफगानिस्तान के ताजा संबंधों पर बृजेश कुमार जोशी का लिखा आलेख इतिहास के पन्नों की परतें खोलता है. इसमें महाभारत कालीन गांधार जनपद और कभी अशोक के मगध साम्राज्य का हिस्सा रहे अफगानिस्तान की वर्तमान परिस्थितियों का बखूबी वर्णन किया गया है. पिछले दो दशक से भारत और नेपाल के रिश्ते कैसे हैं, इसे डॉ. राकेश कुमार मीणा के आलेख से जाना जा सकता है. लंबे समय तक तमिल और सिंहली संघर्ष से जूझता रहा श्रीलंका आज भारत के साथ कैसा व्यवहार रखना चाहता है इसकी पड़ताल डॉ. रितेश राय अपने आलेख में करते हैं.

संकलन के संपादक डॉ. सोमानी ने संपादन के साथ-साथ मालदीव के और भारत के रिश्ते पर एक सूक्ष्मावलोकन आलेख प्रस्तुत कर पुस्तक की महत्ता में इजाफा किया है.

सार रूप में कहा जा सकता है कि विकास प्रकाशन बीकानेर द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'दक्षिण एशिया में भारत' अंतरराष्ट्रीय संबंध और राजनीति विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण संकलन है. डॉ. सोमानी साहित्य सृजन और पत्रकारिता से निरंतर जुड़े रहे हैं, इसका प्रभाव उनके शैक्षणिक और शोधपरक लेखन में स्पष्ट रूप से झलकता है. संकलन में विषयों का चयन और उनका बेहतर प्रस्तुतीकरण पाठकों को बांधे रखता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में पाठकों को डॉ. सोमानी के संपादन में ऐसी कई कृतियों के रसास्वादन का आनंद मिलेगा.

- डॉ.हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

Wednesday 23 March 2022

उस मुड़़े हुए पन्ने से आगे...


(23 मार्च 1931)

भगत सिंह के नाम से ब्रिटिश सरकार ही नहीं डरती थी अपितु स्वतंत्र भारत की सरकारें भी आज तक  खौफ खा रही हैं.

इन सरकारों का डर देखिए कि भगतसिंह सरीखे राजनीतिक विचारक को देश के  विश्वविद्यालयी  पाठ्यक्रमों में पढ़ाया ही नहीं जाता. विडंबना यह है कि कुछ महाविद्यालयों के नाम तो शहीद-ए-आजम के नाम पर रख दिए गए हैं लेकिन वहां  के पाठ्यक्रमों में भी राजनीतिक विचारक के रूप में भगत सिंह को कोई स्थान नहीं मिल सका है.

 इसका सीधा सा कारण है शहीदे आजम का राजनीतिक चिंतन, जो हमें सिखाता है कि आजादी के मायने यह नहीं होते की सत्ता गोरे हाथों से काले हाथों में आ जाए. यह तो सत्ता का अंतरण हुआ. असली आजादी तो तब आएगी जब अन्न उपजाने वाला भूखा नहीं सोए, कपड़ा बुनने वाला नंगा न रहे और मकान बनाने वाला खुद बेघर न हो. दरअसल, भगतसिंह के विचारों से परम्परागत राजनीति की चूलें हिल सकती हैं और क्रांति का ज्वार उमड़ सकता है. इसी भय के कारण देश की सरकारें उनके नाम से कतराती हैं. हां, आप पार्टी ने जरूर एक नई शुरूआत की है.

मुझे मलाल यह है कि ब्रिटिश शासन की गुलामी करने वाले अनेक नौसिखियों को राजनीतिक विचारक बता कर न सिर्फ उनका महिमामंडन किया गया है बल्कि राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रमों में भी उन्हें बरसों से पढ़ाया जा रहा है. विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले प्रमुख भारतीय राजनीतिक विचारकों में मनु, कौटिल्य और शुक्र को छोड़ दें तो इन विचारकों में अधिकांशत: कांग्रेसी नेताओं के नाम शामिल हैं. इनमें भी सिर्फ तिलक को छोड़कर शेष सभी पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित थे या यूं कहा जा सकता है कि सभी 'इंग्लैंड रिटर्न' थे. जब से भाजपा सत्तासीन हुई है जनसंघ के कुछ नेताओं को भी राजनीतिक विचारक का दर्जा दिया गया है और उन्हें भी पाठ्यक्रमों में जोड़ दिया गया है.

सरकारें भले ही इन सबको पढ़ाएं लेकिन देश में भगतसिंह को राजनीतिक विचारक के रूप में न पढ़ाया जाना देश का दुर्भाग्य है. क्या क्रांति के डर से हम क्रांति-बीज बोना छोड़ दें ? 

नहीं, इसीलिए मैंने आज इक्कीस कॉलेज में राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों को राजनीतिक विचारक के रूप में भगत सिंह को पढ़ाया है. इंकलाब जिंदाबाद !

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत  'रूंख'

Thursday 17 March 2022

इक कुड़ी जीं दा नाम मुहब्बत, गुम है, गुम है, गुम है...


 (शिव बटालवी की 'लूणा' का राजस्थानी अनुवाद)


'लूणा' (महाकाव्य नाटक) पंजाबी के सिरमौर कवि शिव कुमार बटालवी की एक अनूठी काव्य कृति है जिसने साहित्य अकादमी में एक नया इतिहास रच दिया था. 1967 में शिव को जब इस सृजन के लिए अकादमी पुरस्कार दिया गया तब उनकी आयु मात्र 30 वर्ष की थी. सबसे कम उम्र में अकादमी सम्मान पाने का रिकॉर्ड शिव के खाते में दर्ज है, जिसे कोई नहीं तोड़ पाया है.

इस कृति में शिव ने पूरण भगत की प्रसिद्ध लोककथा की खलनायिका लूणा के चरित्र को नई दृष्टि से प्रस्तुत किया था. कथा में एक प्रौढ़वय राजा सलवान निम्न जाति की नवयौवना लूणा से विवाह रचा लेता है. विवाह से नाखुश लूणा, सलवान के युवा पुत्र पुरण से प्रणय निवेदन करती है जिसे पूरण ठुकरा देता है. इस अपमान से ग्रसित लूणा पूरण पर झूठे अनैतिक आरोप लगाती है और सलवान के हाथों उसके पुत्र को मरवा देती है. यह कृति एक स्त्री की मनगत और उसकी बेबसी की गहरी काव्यात्मक प्रस्तुति की बदौलत शिव को अपने समकालीन रचनाकारों से अलग मुकाम देती है.

इस कृति का राजस्थानी अनुवाद करना मेरे लिए पीड़ा के क्षणों में प्रार्थना करने जैसा रहा है. कई बार तो ऐसा महसूस हुआ मानो शिव ने अर्ध रात्रि में खुद आकर जटिल पंक्तियों के शब्द और भाव मेरे सिरहाने रख दिए जिन्हें मैंने हुबहू पिरो दिया है. इस अनुवाद प्रक्रिया के दौरान आध्यात्मिकता और रहस्यवाद का गहन अनुभव हुआ है जिसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है. दरअसल, 'बिरहा के सुल्तान' के नाम से मशहूर शिव नितांत अनछुई उपमाओं का प्रयोग करते हैं. ऐसी उपमाएं और अनूठा शिल्प साधारणतया बहुत कम रचनाकारों के पास देखने को मिलता है. शिव की खासियत यह है कि वे अपने रचना कर्म में हर बार नया बिंब लेकर आते हैं और कहीं भी दोहराव नहीं करते. पंजाबी भाषा के गूढतम शब्दों का चयन और पात्रों की संवेदना को चरम पर ले जाने की कला शिव बखुबी जानते हैं. शायद यही कारण है कि शिव बटालवी के सृजन की ख्याति सात समंदर पार तक गूंजती है.

साहित्य अकादमी से प्रकाशित हो रही इस अनुदित कृति का कवर प्रूफ आज अनुमोदन के लिए प्राप्त हुआ है. रंगों के त्योहार पर मिले इस विशेष उपहार के लिए साहित्य अकादमी का शुक्रिया. विशेष स्नेह रखने वाले अग्रज श्री मधु जी आचार्य, डॉ. मंगत जी बादल, दिल्ली से मखमली आवाज के शायर भाई प्रदीप 'तरकश', मानसा के श्री सुरेंद्र जी बांसल, आकाशवाणी उद्घोषक राजेश जी चड्ढा, आशाजी शर्मा, अनुज राज बिजारणियां और डॉ. मदन लड्ढा का विशेष आभार, उनके मार्गदर्शन और सहयोग के बिना यह रामसेतु कार्य संभव नहीं था. यारियां जिंदाबाद !

डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और साहित्यकार मधु आचार्य के जन्मदिवस पर एक यादगार शाम का आयोजन

कभी तो आसमान से चांद उतरे ज़ाम हो जाए  तुम्हारा नाम की भी एक सुहानी शाम हो जाए.... सोमवार की शाम कुछ ऐसी ही यादगार रही. अवसर था जाने-माने रंग...

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