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म्हारी सवा लाख री लूम, गम गई इडूणी..

 

(सन्दर्भ- विकास में गुम होती विरासत)

इडूणी ! सच में ही गुम हो गई है. एक वक्त था जब थार में दूर-दराज से घड़ों में पानी लाने की बात उठती थी तो महिलाएं सबसे पहले इडूणी संभालती. यह इडूणी ही थी जो उनकी मोरनी सी गर्दन की लचक को बरकरार रखते हुए सिर पर पानी से भरे मटके को टिकाए रखती थी. अकाल से जूझते रेगिस्तानी ग्राम्य जन-जीवन में पानी का महत्व भला किसी से छिपा थोड़े ही है और उस पर भी पीने के पानी के मोल के क्या कहने. पानी के इसी मोल को बनाए रखने में घड़े के साथ इडूणी ही साधक बनती थी. स्त्री के सिर पर बिना इडूणी के घड़े की शोभा ही नहीं बनती और कदाचित इसी शोभा को अधिकाधिक प्रगट करने के लिए ग्रामीण स्त्रियां फुरसत के समय भांति-भांति की इडूणियां बनाती. पानी लाते समय सखियां एक दूसरे की इडूणी को देखती और सराहती. 

अपने समय को याद करते हुए गांव देइदासपुरा की सत्तरवर्षीय धापुदेवी बताती हैं कि इडूणी को बनाने के लिए मूंंज को गूंथ कर गोल चुड़ी का आकार दिया जाता था. उस पर कपड़ा चढ़ा कर उसे गोटे, कोर, गोल कांच और कपड़े की चिड़ियों से सजा दिया जाता था. लड़कियों के दहेज में तो भांति-भांति की सजावट वाली इडूणियां दी जाती थी जिनमें क्रोशिये से गुंथी हुई जालीदार इडूणी अधिक चलन में थी. इस जालीदार इडूणी पर घड़ा जचा कर जब  नवविवाहिता गांव के कुएं/तालाब से पानी भरने जाती तो इडूणी से गुंथी हुई जाली उसकी पीठ की शोभा बढ़ाती थी. 

बींझबायला की नारायणीदेवी के अनुसार राजस्थानी संस्कृति में पुत्र जन्मोत्सव पर कुआं पूजने की रस्म है, इसकी अदायगी के लिए स्त्री के पीहर पक्ष के लोग छुछक में इडूणी लाया करते थे जिसे सिर पर सजा कर नवप्रसूता कुएं से पानी लाकर धर्म और परम्पराएं पालती थी. 

थार में अभावों के बीच पलते स्त्रियों के जीवन में कपड़े की रंगीन कतरनों, मोतियों, चीडों, सीपियों और मिणियों की साज-सज्जा वाली आकर्षक इडूणियां जीवन की हूंस का परिचायक थी. चौपाल पर बैठे लोगों को कुएं पर आने वाली महिलाओं के घूंघट में छिपे चेहरों की सुन्दरता  देख पाना भले ही नसीब न हो लेकिन सिर पर टिकी इडूणी की सजावट इन स्त्रियों के कलात्मक गुण को उजागर कर ही देती थी. यह इडूणी का ही कमाल था कि सदियों से अकाल से जूझते राजस्थान में स्त्रियां दूर-दूर के कुंंओंं और तालाबों से सिर पर पानी ढो-ढोकर अपना गृहस्थ धर्म पालती रहीं. इडूणी सिर पर हो तो घड़े को कैसा डर ! इडूणी को सिर पर जचा कर पानी से भरा घड़ा उस पर एक बार टिका लिया तो ग्रामीण महिलाएं बिना डगमगाए, पानी की एक बूंद छलकाए कोसों दूर का सफर साध लेती थी. 

विकासवाद के चलते आज जब गांवों में पीने के पानी की अधिक किल्लत नहीं है तो इडूणी खूंटी पर टांग दी गई है. राजस्थानी संस्कृति का अभिन्न अंग रही इडूणी की विरासत खत्म होने की कगार पर है. हां, कभी-कभी आधुनिकता के परिवेश ढले कुछ घरों मे आजकल ये कलात्मक इडूणियां डाईंगरूम की शोभा बढ़ाती हुई नजर आती हैं. 
-रूंख

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