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Tuesday 21 July 2020

सीमांत क्षेत्र का भूमि आंदोलन - 1970 (4)

आंदोलन के बावजूद बड़ी मछलियां निगल गई हजारों बीघा जमीनें

लोकतंत्र का एक कलुषित चेहरा यह भी होता है कि यहां कमजोर और दबे कुचले लोगों को पगोथिये (सीढियां) बनाकर चतुर चालाक कारीगर ऊपर पहुंच जाते हैं. सीमांत क्षेत्र का भूमि आंदोलन 1969-70 भी इससे अछूता नहीं रहा. प्रदेश सरकार ने जनाक्रोश और उग्र आंदोलन के चलते राजस्थान नहर से सिंचित होने वाली अनूपगढ़ घड़साना क्षेत्र की सरकारी जमीनों की नीलामी को रद्द तो कर दिया लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से होने वाली जमीनों की सौदेबाजी पर लगाम नहीं लगा सकी. लगाती भी कैसे ! आखिर, भूमाफिया किस्म के सफेदपोश लोग तो सरकार के भीतर और बाहर पैर पसार कर बैठे थे.

सन 1951 से लेकर 1967 तक राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में पांच लाख साठ हजार भूमिहीन किसानों को पैंतीस लाख एकड़ भूमि आवंटित की गई थी. इसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के दो लाख तीस हजार काश्तकार शामिल थे. देखने और पढ़ने में तो ये आंकड़े बहुत प्रभावी लगते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि इन भूमिहीनों में से कितने लोग इस ढंग से आवंटित भूमि पर काबिज हो सके ? वास्तविकता यह है कि आवंटित की गई अधिकांश जमीनों पर समर्थ और प्रभावशाली लोगों के कब्जे थे. उनसे पंगा कौन लेता. लिहाजा उन्होंने जमीन के आवंटियों से औने-पौने दामों में ये जमीनें अपने नाम हस्तांतरित करवा ली. नतीजा वही ढाक के तीन पात. आंदोलन काल के एक आलेख में एडवोकेट हरिशंकर गोयल लिखते हैं कि इन बेशकीमती जमीनों पर बड़े नेता और धनिक व्यापारी काबिज़ हैं. कुछ दलित लोगों की जमीनों पर तो खूंखार और शक्तिशाली लोगों ने जबरदस्ती कब्जे कर रखे हैं. उनके अनुसार गंगानगर जिले में किसानों के 3 वर्ग है. पहला संपन्न किसान, दूसरा तस्करी और व्यापार में लिप्त सफेदपोश व तीसरा साधारण किसान. उनकी मानें तो पहला और दूसरा वर्ग गंगानगर जिले ज्यादातर उपजाऊ भूमि पर कानूनन और गैरकानूनी ढंग से कब्जा जमा चुका है. गोयल यहीं बस नहीं करते बल्कि उस वक्त सत्ताधारी कांग्रेस के सांसदों, विधायकों, प्रधानों और कुछ मंत्रियों पर भी बाकायदा कब्जे करने और करवाने के आरोप लगाते हैं.

गौरतलब है कि आंदोलन में राजस्थान नहर से सिंचित होने वाली जिन जमीनों के सरकारी आवंटन की बात कही जा रही थी वह पाकिस्तान सीमा से लगता हुआ क्षेत्र है. वहां सीमा पर तस्करी में जुटे भूमाफियाओं ने भी सत्ताधारी नेताओं के साथ मिलकर सैंकड़ों बीघा जमीनों पर कब्जे किए. सरकार द्वारा की जाने वाली भूमि नीलामी में दरों को नियंत्रित करने के रास्ते भी इन लोगों ने पहले से निकाल रखे थे. भूमि चाहे नीलामी से आए या किसी दलित को होने वाले आवंटन से, हर हाल में जमीन उन्हीं की होनी थी, जिनके हाथ में लाठी थी. प्रत्यक्षत: दिखाई दे रहे इस पक्षपात पूर्ण भ्रष्टाचार के आचरण ने ही आम जनता में सरकार और उनके समर्थकों के विरुद्ध जनमानस तैयार किया जिसकी परिणति बड़े आंदोलन के रूप में हुई.

आंदोलन समाप्ति के बाद सरकार द्वारा विभिन्न आरक्षित श्रेणियों में इन जमीनों का आवंटन शुरू किया गया. अधिकांश आवंटन दस्तावेजों में जमीनों के स्वामी भूमिहीन और छोटे किसान नजर आते थे लेकिन भू माफिया और कुछ प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों की मिलीभगत के चलते अधिकांश बेशकीमती जमीनें देखते ही देखते प्रभावशाली लोगों के स्वामित्व में चली गई. विकास की इस बहती गंगा में सत्ता और विपक्ष के बड़े नेताओं सहित अनेक अधिकारियों और पटवारियों ने वारे न्यारे किए. आज भी इस क्षेत्र में ऐसे सफेदपोशों की हजारों बीघा जमीनें हैं जो सोना उगलती हैं.

लेकिन इस सब के बावजूद यह भी उतना ही सच है कि इस ऐतिहासिक भूमि आंदोलन की बदौलत ही प्रदेश के लाखों छोटे किसानों को भी जमींदार बनने का हक प्राप्त हुआ. आंदोलन के 50 साल बाद आज ऐसे दबे कुचले काश्तकारों की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रगति को देखकर उस वक्त के आंदोलनकारियों और जमीन से जुड़े नेताओं के प्रति स्वत: ही श्रद्धा का भाव उमड़ आता है. 
कामरेड श्योपत सिंह, कामरेड योगेंद्र नाथ पांडा, प्रो. केदार, राम चंद्र आर्य, कुंभाराम आर्य, सेवा सिंह, कॉमरेड हेतराम बेनीवाल, गुरदयाल सिंह, महावीर प्रसाद कंदोई सरीखे नेताओं में जनता के हक- हुक़ूक़ के लिए संघर्ष का जो माद्दा था वो किसी भी दृष्टि में आजादी के आंदोलन से कमतर नहीं था. वस्तुत: सत्ता के विरुद्ध यह हक की लड़ाई ही थी जिसमें गांव-गांव से गिरफ्तार हो रहे हजारों लोगों को ग्रामीण महिलाओं ने संघर्ष गीत गाकर खुशी खुशी पुलिस के साथ विदा किया था. यही कारण है कि सीमांत क्षेत्र के आंदोलनों की जब कहीं बात चलती है लोग बड़े गर्व के साथ इन नेताओं को याद करते हैं.

-रूंख

( जानकारी का स्रोत - तत्कालीन समाचार पत्रों की रिपोर्ट, प्रत्यक्षदर्शियों के वक्तव्य, सत्याग्रह स्मारिका, आंदोलन के संबंध में लिखे गए लेख और पुलिस रिपोर्ट)

सीमांत क्षेत्र का भूमि आंदोलन -1970 (3)

अलवर जेल में बंद गंगानगर के आंदोलनकारियों ने हड़ताल कर सुधरवाई थी जेल व्यवस्थाएं

1969-70 के गंगानगर भूमि आंदोलन को देश के बड़े आंदोलनों में शुमार किया जाता है. सरकार अपना खजाना भरने के लिए राजस्थान नहर से सिंचित होने वाली बेशकीमती जमीनों को अपने चहेतों और पूंजी पतियों के हाथों बेचने पर तुली थी जबकि यहां का भूमिहीन किसान इन जमीनों के सरकारी आवंटन की मांग कर रहा था. प्रदेश की सत्ता के विरुद्ध आमजन के हक की लड़ाई लड़ रहे इस आंदोलन को बिना किसी जात-पांत और वर्ग भेद के जनता का साथ मिला. यही कारण था कि इस आंदोलन के चलते समूचे बीकानेर संभाग की कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी. गंगानगर जिले में तो सेना, आरएसी और मध्य प्रदेश पुलिस भी तैनात की गई थी.

दस्तावेजी आंकड़ों के अनुसार 7 जनवरी 1970 को संगरिया और भादरा मैं हुए गोलीकांड के बाद यह आंदोलन प्रदेश भर में फैल गया. इस आंदोलन में 15,000 से अधिक लोगों ने सामूहिक गिरफ्तारियां दी. इन्हें दूरदराज स्थित अलवर, सिरोही, बीकानेर, नागौर, जोधपुर और भरतपुर की विभिन्न जेलों में रखा गया. पुलिस द्वारा आंदोलन के अगुआ नेताओं को भी गिरफ्तार कर अलग-अलग जेलों में ठूंस दिया गया.

गंगानगर जिले के अधिकांश बंदियों को अलवर और सिरोही जेल में रखा गया था. अलवर जेल में इन बंदियों ने तो भूमि आंदोलन के बीच जेल सुधार आंदोलन और शुरू कर दिया. जिसने सरकार की परेशानी बढ़ाई और अंततः सरकार को जेल व्यवस्थाओं में सुधार के लिए मजबूर होना पड़ा.

उपलब्ध तथ्यों के अनुसार घटनाक्रम कुछ इस ढंग से चलता है. अलवर जेल में 19 जनवरी 1970 तक इस आंदोलन में सामूहिक गिरफ्तारी देने वाले 140 सत्याग्रही लोगों को भेजा गया था. 25 और 26 जनवरी को गंगानगर जिले में विभिन्न स्थानों से गिरफ्तार हुए 187 और लोगों को भी यहां भेजा गया. 28 जनवरी को नोहर से गिरफ्तार 300 राजनैतिक कार्यकर्ताओं को अलवर जेल में शिफ्ट किया गया जिसमें संसोपा नेता महावीर प्रसाद कंदोई भी शामिल थे. इस प्रकार कुल मिलाकर 627 आंदोलनकारी में बंद थे.

इस जेल की हालत अत्यंत दयनीय थी. कैदियों की आवास समस्या तो थी ही, शौचालयों की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी. सफाईकर्मी भी नहीं आता था. भोजन व्यवस्था तो और ज्यादा खराब थी. न तो राशन पूरा मिलता था न ही भोजन की कोई गुणवत्ता थी. जेल में चिकित्सकीय सुविधाओं का भी अभाव था. इन व्यवस्थाओं को दुरुस्त करवाने के लिए जेल में एक संघर्ष समिति बनाई गई जिसमें सूरतगढ़ के गंगाजल जाखड़ को अध्यक्ष, मन्नी वाली के लादूराम तरड़ को मंत्री, और नोहर के संसोपा नेता महावीर प्रसाद कंदोई को कोषाध्यक्ष बनाया गया.

26 सदस्यीय इस समिति ने गठन के तुरंत बाद जेल अधीक्षक को व्यवस्थाओं में सुधार और नए मैनुअल के हिसाब से प्रति बंदी को 6.25 पैसे प्रतिदिन की दर से खाने हेतु दिए जाने का नोटिस दिया. संयोगवश उसी दिन शाम को प्रथम श्रेणी दंडनायक वेद प्रकाश गोयल और अन्य अधिकारी जेल में आए. समिति के सदस्यों और अन्य कार्यकर्ताओं ने उन्हें जेल के भीतर ही घेर लिया. मांगों के संबंध में पहले तो उनसे कोई बात नहीं की गई लेकिन अचानक समिति अध्यक्ष गंगाजल जाखड़ द्वारा कह दिया गया कि समाधान होने तक आपको बाहर नहीं जाने दिया जाएगा. स्थिति बिगड़ती देख दंड नायक ने जिलाधीश से फोन पर बात की और उसके बाद जेल अधीक्षक को सभी मांगे मान लेने के निर्देश दिए. देर रात्रि 12 बजे घेराव समाप्त कर दिया गया. सत्याग्रहियो का जेल में यह पहला कदम सफल रहा.

इस जेल में 263 बंदियों को 3 घुड़सालों में रखा गया था जो चारों तरफ से खुली थी. जनवरी की सर्दी में वहां बंदी बहुत परेशान थे. संघर्ष समिति की एक मांग पर उन्हें तुरंत सरिस्का जेल में शिफ्ट कर दिया गया. समिति के कोषाध्यक्ष महावीर प्रसाद कंदोई ने जेल अधीक्षक को अखबार और खेलों का सामान उपलब्ध करवाने का ज्ञापन अलग से सौंपा जिस पर त्वरित कार्रवाई हुई.

इसी बीच बीकानेर जेल में बंद विधायक प्रो. केदार के आह्वान पर राजस्थान की समस्त जेलों में बंद आंदोलनकारियों द्वारा व्यवस्थाओं को सुधारने हेतु जेल में ही धरना आयोजित किया गया. इस धरना प्रदर्शन में निम्न मांगें उठाई गई :-
1. जयपुर केंद्रीय कारावास की समस्त महिला सत्याग्रहियों को बी श्रेणी की सुविधा प्रदान की जाए.
2. जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को उनके घरों से बाहर गिरफ्तार कर जेल भेजा गया है, उन्हें पहनने के कपड़े और रोजमर्रा की जरूरत का सामान उपलब्ध करवाया जाए.
3. गंगानगर जिले से सेना आरएसी और मध्य प्रदेश पुलिस को तुरंत हटाया जाए.
4. गिरफ्तारी के स्थान से लेकर जेल तक के रास्ते का खर्च नियमानुसार दिया जाए.
5. आंदोलनकारियों की तारीख पेशी बार-बार न बदली जाए.
प्रदेशभर की जेलों में हुए इस धरना प्रदर्शन के चलते आंदोलनकारियों की सभी मांगें मान ली गई. अलवर जेल में बंद आंदोलनकारियों से उसी दिन संसद सदस्य मधु लिमए मिलने के लिए पहुंचे.
उन्होंने इस ऐतिहासिक आंदोलन को सफल बनाने के लिए सभी लोगों का आभार व्यक्त किया.

सूरतगढ़ नगरपालिका में लगातार सात बार पार्षद बनने वाले सत्यनारायण छिंपा इसी जेल में बंद थे. वे बताते हैं कि उनके पिता को सिरोही जेल में रखा गया था. दोनों के जेल चले जाने से घर और खेत को संभालने वाला कोई नहीं था. लेकिन एक आश्चर्यजनक तथ्य वह बताते हैं कि उस साल हमारे खेत में सबसे ज्यादा अनाज हुआ था. अलवर जेल में ही सूरतगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार माल चंद जैन भी आंदोलनकारियों के साथ बंद थे. मजेदार वाकया देखिए कि जैनसाहब की शादी की तारीख तय की हुई थी लेकिन उनके अचानक गिरफ्तार होने से गड़बड़ हो गई. परिजनों द्वारा भागादौड़ी कर जैनसाहब के विवाह का निमंत्रण पत्र प्रस्तुत किया गया और बड़ी मुश्किल से जमानत करवाई गई. जेल में ही महावीर प्रसाद कंदोई ने गंगानगर किसान आंदोलन पर एक सत्याग्रह स्मारिका प्रकाशित करवाने का प्रस्ताव रखा था जिसे सब ने स्वीकार किया. आंदोलनकारियों के साथ ही जेल में बंद सूरतगढ़ के एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार दिलात्म प्रकाश जैन को स्मारिका के संपादन का दायित्व सौंपा गया. यह स्मारिका आज भी आंदोलन के इतिहास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है.


इस ऐतिहासिक भूमि आंदोलन के जाने कितने किस्से हैं जो समय की फाइलों में बंद हैं. जरा सोचिए, अनूपगढ़ क्षेत्र की जमीनों के लिए रायसिंहनगर से आंदोलन शुरू होता है. संगरिया में गोलियां चलती है. भादरा में नौजवान मरते हैं सूरतगढ़ के कार्यकर्ता गिरफ्तारी देते हैं. अलवर जेल में उन्हें बंद किया जाता है. जयपुर में बैठी सरकार झुकती है और दिल्ली से आदेश आता है. यह आंदोलन की ताकत होती है जिसमें कभी-कभी व्यक्ति ही समूचा देश बन जाता है.
-रूंख

( जानकारी का स्रोत - तत्कालीन समाचार पत्रों की रिपोर्ट, प्रत्यक्षदर्शियों के वक्तव्य, सत्याग्रह स्मारिका, आंदोलन के संबंध में लिखे गए लेख और पुलिस रिपोर्ट)

सीमांत क्षेत्र का भूमि आंदोलन - 1970 (2)

रायसिंहनगर में लाठीचार्ज के बाद नीलामी स्थगित, सरकार सकते में !


( सितंबर 1969 के मध्य में शुरू हुई हल्की ठंड के बीच)


सुबह सवेरे सुरजाराम किसी काम से मंडी आया था. बाजार में स्थित तहसील के पास जब उसने बैरीकेड्स और चूने की लाइनिंग देखी तो उत्सुकतावश वह भी वहां खड़ी भीड़ का हिस्सा बन गया. भीड़ में अधिकांश लोग काश्तकार और मजदूर थे जो आस-पास के गांवों से आए थे. सरकारी आदेश के मुताबिक आज रायसिंहनगर तहसील परिसर में राजस्थान नहर से सिंचित होने वाली कमांड जमीनों की खुली बोली की जानी थी. पड़ोसी राज्यों के अनेक पूंजीपति और जमींदार बड़ी-बड़ी गाड़ियों में इन बेशकीमती जमीनों की बोली देने पहुंचे थे. वहीं बोली का विरोध कर रहे प्रोफेसर केदार, कामरेड श्योपत सिंह, कामरेड हेतराम बेनीवाल, राम चंद्र आर्य, योगेंद्रनाथ हांडा, सांसद कुंभाराम आर्य, गुरदयाल सिंह, दौलत राम और हरचंदसिंह सिधू आदि खाड़कू नेता भी बैरीकेड्स के पास खड़े मंत्रणा कर रहे थे. ठेठ देहाती अंदाज में सुरजा राम ने कुछ आगे बढ़ कर हरचंद सिंह से पूछा-


'थे के तोड़न तूड़ाण गी बात कर रया हो ?'


युवा वकील हरचंदसिंह ने बताया कि आज सरकार राजस्थान नहर से सिंचित होने वाली जमीनों की नीलामी करने जा रही है. बैरिकेट्स के उस तरफ धारा 144 लगी हुई है. यदि यह नहीं टूटी तो सरकार जीत जाएगी और हमारी हार होगी. बरसों से काश्त कर रहे किसानों की जमीनें पूंजी पतियों के हाथ में चली जाएंगी.


यह सुनकर सुरजा राम ने वहां खड़े सभी नेताओं को गाली निकाली और साइड में जाकर अपनी जूती और कंबल उतार कर रख दिया. प्रोफेसर केदार ने हरचंदसिंह से पूछा यह आदमी क्या कह रहा है. हरचंद ने हंसते हुए कहा कि यह हम सबको 'गंडमरा' बता रहा है. 


अचानक सब ने देखा कि सुरजाराम कबड्डी खेलने के अंदाज में अपनी जांघ पर थाप देकर बैरीकेड्स पर जा चढ़ा और ललकारते हुए तहसील परिसर तरफ कूद गया जहां धारा 144 लगी हुई थी. उसे कूदते देख पुलिस के जवान दौड़े और एक लाठी उसके सिर में जचाकर ठोकी. यह देख नेताओं सहित उपस्थित भीड़ को भी जोश आ गया और सब ने बैरिकेड्स तोड़ते हुए पुलिस घेराबंदी को ध्वस्त कर दिया. अब पुलिस लाठियां भांज रही थी और लोग चीखते चिल्लाते हुए इधर उधर दौड़ रहे थे. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि बिना प्लान किए यह सब कैसे हो गया. सुरजाराम के सिर से बहुत ज्यादा खून बह रहा था. हरचंद सिंह ने जब पास जाकर उसे संभालना चाहा तो उसने अनदेखी करते हुए पूछा-


'रै सरदार, सिर की छोड, आ बता तेरी धारा धूरा टूटगी के, या कोई सी बचगी !'


हरचंद ने उसे बताया कि सब कुछ टूट गया है, बस किसी भी ढंग से यहां से निकलो. जैसे ही हरचंद ने उसका हाथ पकड़ कर उठाने की कोशिश की तो एक पुलिस वाले ने सुरजा राम की पीठ में लाठी का जोरदार वार किया. इस अफरातफरी में हाय तौबा मच गई. जिसको जहां जगह मिली, वहीं भाग छूटा. तहसील परिसर की पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्थाएं ध्वस्त हो चुकी थी.


सितंबर 1969 ! राजस्थान की सुखाड़िया सरकार ने राजस्थान नहर के नक्शे में स्थित अनूपगढ़-घड़साना क्षेत्र की कमांड अनकमांड जमीनों को खुली नीलामी के जरिए बेचकर अपना खजाना भरने का मानस बना रखा था. उसी संबंध में आज रायसिंहनगर तहसील में नीलामी रखी गई थी जिसका क्षेत्र के किसान और जागरूक नेता लगातार विरोध कर रहे थे. यही कारण था कि सरकार ने नीलामी स्थल पर पुलिस की चाक चौबंद व्यवस्था की थी.


सुरजाराम के देहाती दुस्साहस ने पल भर में ही इस व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया और पुलिस को लाठीचार्ज करने के लिए मजबूर कर दिया. इस उपद्रव का परिणाम यह हुआ कि सरकार को नीलामी स्थगित करनी पड़ी. लेकिन सरकार ने अपना सख्त रवैया दिखाया और 03 नवंबर 1969 को अनूपगढ़ में फिर नीलामी करने की घोषणा जारी कर दी.


वस्तुतः स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह प्रदेश का सबसे बड़ा किसान आंदोलन था जो रायसिंहनगर से शुरू होकर पूरे प्रदेश में फैल गया था. आंदोलन के समर्थन में संभाग के चारों जिलों से हजारों लोगों ने अपनी गिरफ्तारियां दी थी. इस आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वालों में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा,), भारतीय क्रांति दल, दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां, किसान यूनियन और आंदोलन के दौरान गठित की गई किसान संघर्ष समिति शामिल थी.


उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक सरकार द्वारा इन जमीनों की नीलामी घोषणा के बाद असाधारण ढंग से लगभग 96 हजार दरख्वास्तें लगी थी. लोगों में भूमि खरीद के प्रति जबरदस्त रुझान को देखते हुए सरकार का उत्साह बढ़ गया था. प्रोफेसर केदार, जो उस समय संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के विधायक थे, ने भारतीय क्रांति दल के विधायक रामचंद्र आर्य के साथ मिलकर सरकार के इस निंदनीय कार्य का घोर विरोध किया. इन दोनों ने अपने डेरे रायसिंहनगर में लगा लिए और नीलामी को येन केन प्रकरेण रोकने के लिए गंगानगर किसान संघर्ष समिति का गठन करने में अहम भूमिका निभाई.


राम चंद्र आर्य को समिति का अध्यक्ष बनाया गया. श्रीनिवास थीरानी, उपाध्यक्ष और सेवा सिंह किसान संघर्ष समिति के संचालक बने. समिति में जमीन से जुड़े 11 बड़े नेताओं को भी शामिल किया गया. समिति द्वारा अपनी 33 सूत्री मांगों का ज्ञापन सरकार को सौंपा गया. दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा संचालित किसान सभा ने भी अपनी मांगों के समर्थन में संघर्ष समिति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इस आंदोलन की लड़ाई लड़ी. कम्युनिस्ट इन मांगों में सीलिंग एक्ट को लागू किए जाने पर जोर दे रहे थे. तत्कालीन सांसद कुंभाराम आर्य ने सत्याग्रह का आह्वान करते हुए प्रतिदिन सांकेतिक गिरफ्तारियां देने की बात की लेकिन कामरेडों ने सामूहिक गिरफ्तारियों का आह्वान कर संघर्ष को तेज कर दिया. इस निर्णय से जनमानस में अपूर्व जोश का संचार हुआ और आंदोलन को नई गति मिली. कामरेड श्योपतसिंह, योगेंद्रनाथ हांडा, हेतराम बेनीवाल सरीखे अगुआ नेताओं की समर्पित कार्य शैली का परिणाम था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इस आंदोलन में हस्तक्षेप करना पड़ा. प्रदेशभर में हो रही गिरफ्तारियां और उग्र ढंग से फैलते जा रहे आंदोलन को समाप्त करवाने के लिए इन नेताओं को वार्ता के लिए दिल्ली बुलाया गया. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद आंदोलनकारियों के नेताओं से बातचीत की और तुरंत प्रदेश सरकार को भूमि नीलामी प्रक्रिया बंद करने के निर्देश दिए.


इस आंदोलन के दौरान संगरिया और भादरा गोलीकांड में हुए शहीदों के अलावा सैकड़ों लोग पुलिस गोलाबारी और लाठीचार्ज में घायल हुए. हजारों लोगों को महीनों जेल में बंद रहना पड़ा. प्रदेश की पुलिस और प्रशासन व्यवस्था पूरी तरह से अस्त-व्यस्त रही लेकिन एक लंबे संघर्ष के बाद अंततः इस जन आंदोलन की जीत हुई. इस जीत के लिए चुकाई गई बड़ी कीमत का ही परिणाम है कि आज इंदिरा गांधी नहर द्वारा सिंचित यह जमीनें प्रदेश के काश्तकारों के स्वामित्व में है.

-रूंख


( जानकारी का स्रोत - तत्कालीन समाचार पत्रों की रिपोर्ट, प्रत्यक्षदर्शियों के वक्तव्य, सत्याग्रह स्मारिका, आंदोलन के संबंध में लिखे गए लेख और पुलिस रिपोर्ट)

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Monday 20 July 2020

सीमांत क्षेत्र का भूमि आंदोलन-1970 (1)

संगरिया भादरा गोलीकांड ने झुका दी थी सुखाड़िया सरकार 

(07 जनवरी 1970)

'धांय...., धांय...'

डीएसपी डालचंद की सर्विस रिवाल्वर से 2 गोलियां चली और रेलवे लाइन की तरफ दौड़ रहा खाट जालू, शाहपीनी का नौजवान देवेंद्र सिंह वहीं ढेर हो गया. पुलिस की बहादुरी देखिए कि एक हंसते-खेलते विद्यार्थी की पीठ में गोली मारने से नहीं चूकी. जयपुर गोलीकांड में प्रमुख भूमिका निभाने वाले इस डीएसपी ने वहीं खड़े एक और शख्स पर गोली दागी. सादी वर्दी में पुलिस ज्यादती का शिकार हुआ यह व्यक्ति हरियाणा पुलिस का सिपाही रामपहर था जो मौके पर ही मारा गया. उसके गिरते ही डायर बना डालचंद तितर-बितर होती भीड़ के पीछे भागा और अपने रिवाल्वर से रतनपुरा के एक अन्य पंजाबी नौजवान रूड़ सिंह को अपना निशाना बनाया. कॉलेज जाने को तैयार रूड़़सिंह की लाश की शिनाख्त ही बड़ी देर से हो सकी थी.

संगरिया कचहरी परिसर में 07 जनवरी 1970 को दोपहर 1:00 बजे करीब हुई गोलियों की इस बौछार ने वहां जमा भीड़ को इधर-उधर भागने के लिए मजबूर कर दिया. अफरा-तफरी और भय के माहौल में एक तरफ डीएसपी डालचंद दनादन गोलियां दाग रहा था तो वहीं पुलिस जाब्ता मौके पर उपस्थित भीड़ पर लाठियां भांज रहा था. थानेदार गिरधारी सिंह ने धान मंडी की दुकान से निकलते हुए नाथवाना के चौधरी केसरा राम सियाग को गोली से उड़ा दिया. केसराराम का जवान पुत्र जब अपने पिता की लाश को उठाने के लिए आगे बढ़ा तो गिरधारी सिंह ने उसके भी पैर में गोली मारी. पुलिस की क्रूरता के सामने एक असहाय पुत्र निढाल होकर अपने पिता की लाश पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया. पुलिस जाब्ते में शामिल एक अन्य थानेदार सुमेर सिंह ने तो क्रूरता की हदें लांघते हुए तह बाजारी की दुकान के पीछे छिपे हुए चंदू राम नायक को टारगेट पर लेकर गोली मारी. गोली लगने के बाद घबराए चंदू राम ने जब सिर उठाया तो सुमेर सिंह ने अपने बूंट की ठोकर के साथ उसके सीने पर एक गोली और दाग दी. देखते ही देखते संगरिया कचहरी परिसर के समीप हुए इस गोलीकांड में 5 निर्दोष लोगों की लाशें बिछ गई और बीसियों लोग घायल हुए. घटना के बाद पूरे कस्बे में मौत का सन्नाटा छा गया और दो दिनों तक घरों में चूल्हे नहीं जले.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद श्रीगंगानगर जिले में पुलिस की बर्बरता का यह अनूठा मामला था. राजस्थान नहर के आसपास की जमीनों के आवंटन को लेकर सुलग रहे भूमि आंदोलन की लपटें प्रदेश भर में फैल चुकी थी. सरकार इन बेशकीमती जमीनों को नीलामी के जरिए बेचकर अपना खजाना भरना चाहती थी वहीं आंदोलनकारी भूमिहीन, निम्न वर्ग और लंबे समय से कब्जा काश्त कर रहे किसानों को ये जमीनें आवंटित करने की मांग कर रहे थे. श्रीगंगानगर जिले के अनूपगढ़ सीमांत क्षेत्र में स्थित इन जमीनों की नीलामी के लिए राज्य सरकार दो बार प्रयास कर चुकी थी. रायसिंहनगर और अनूपगढ़ में होने वाली भूमि नीलामी सिरे नहीं चढ़ पाने के कारण सुखाड़िया सरकार आक्रोश में थी जिसकी परिणति इस गोलीकांड के रूप में हुई.

जिस वक्त संगरिया में गोलियां चल रही थी ठीक उसी वक्त लगभग 80 किलोमीटर दूर भादरा में भी पुलिस अपनी बर्बरता दिखाने पर तुली थी. हिसार-भादरा रोड पर स्थित तहसील परिसर के आसपास जमा भीड़ को भगाने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज के साथ गोलियां दागनी शुरू की. गोलियों की गूंज से अबोध किशोरों की चीत्कारें गूंज उठी. देखने वालों का कहना है कि पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोलियां नहीं चलाई थी बल्कि भूखे भेड़िए की तरह पुलिस ने प्रदर्शन कर रहे छात्रों का पीछा किया और जहां जी चाहा अंधाधुंध तरीके से गोलियां बरसाई. हरियाणा बस स्टैंड का कार्यालय इस बात का प्रमाण है.

गौरतलब है कि भादरा तहसील परिसर में उस दिन भादरा हाई स्कूल के विद्यार्थी अपनी छोटी-मोटी समस्याओं को लेकर प्रदर्शन करने आए थे लेकिन पुलिस में उन्हें आगे निकलने ही नहीं दिया. इस पर कुछ छात्रों ने तत्कालीन पुलिस अधीक्षक प्रताप सिंह की तानाशाही के विरुद्ध नारे लगाए. किसान सत्याग्रह आंदोलन के चलते जिले भर की पुलिस में झुंझलाहट तो थी ही, जिसके चलते बिना किसी चेतावनी के उन्होंने लाठियां भांजते हुए गोलियां चलानी शुरू कर दी.

इस गोलीकांड में भादरा हाई स्कूल में पढ़ने वाले नवीं कक्षा के छात्र सुभाष को गोली लगी और अगले दिन उसकी मौत हो गई. छठी कक्षा के 13 वर्षीय एक अन्य विद्यार्थी बिहारी के सिर में भी गोली मारी गई जिसे इलाज के लिए दिल्ली ले जाया जा रहा था लेकिन उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया. इस गोलीकांड में लोहिया कॉलेज का एक पूर्व छात्र काशीराम, जो कि लाखनसर का निवासी था भी गंभीर रूप से घायल हुआ जिसकी बाद में अस्पताल में मृत्यु हो गई. भादरा गोलीकांड में घायल होने वाले अधिकांश छात्र 20 वर्ष से कम आयु के थे. प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि उस दिन भादरा बस स्टैंड विद्यार्थियों के खून से भर गया था. उपलब्ध साक्ष्यों और तत्कालीन समाचारों के अनुसार पुलिस ने सुल्तान सिंह सुनार, आशाराम सिकलीगर के घर में घुसकर भी गोलियां चलाई थी. गूगनराम सुनार के घर पर तो गोली चलने से आग भी लग गई थी.

भादरा गोलीकांड की पृष्ठभूमि में पुलिस सूत्र बताते हैं कि 6 जनवरी यानी घटना से 1 दिन पहले, छात्रों ने अपनी मांगों को लेकर तहसील पर प्रदर्शन किया था. इस प्रदर्शन में कई छात्रों को गिरफ्तार किया गया. पुलिस को आशंका थी कि अगले दिन गांव निनाण और बड़ी छानी से भारी संख्या में लोग प्रदर्शन के लिए आ सकते हैं. 7 जनवरी यानी गोलीकांड वाले दिन तहसील परिसर में सुबह 10:00 बजे लगभग 400 छात्र जमा हो गए थे. पुलिस ने उन्हें वहीं रोकने की कोशिश की मगर छात्र जोर जबरदस्ती से आगे बढ़ते रहे. इस पर पुलिस ने आंसू गैस का प्रयोग भी किया लेकिन उस दिन हवा विपरीत दिशा में थी. नतीजा यह हुआ कि पुलिस स्वयं आंसू गैस की चपेट में आ गई. प्रदर्शन कर रहे छात्रों ने पुलिस पर पथराव करना शुरू कर दिया. बताया जाता है कि पथराव में 43 पुलिस कर्मचारी घायल हुए. अंततः गुस्साई पुलिस ने बिना किसी सूचना के लाठीचार्ज शुरू कर दिया और 56 राउंड गोलियां चलाई. कस्बे में हुए इस तांडव से हर कोई स्तब्ध रह गया. इसी बीच संगरिया गोलीकांड के समाचार जब लोगों तक पहुंचे तो जनाक्रोश और ज्यादा भड़क गया.

वस्तुतः संगरिया और भादरा गोलीकांड उन दिनों गंगानगर जिले के ग्रामीण दौरे पर निकले सुखाड़िया सरकार के चार मंत्री बृज प्रकाश गोयल, मुल्क राज मनफूल सिंह और गुरदीप सिंह के प्रति उपजे हुए जनाक्रोश का परिणाम था. यह आक्रोश राजस्थान नहर के भूमि आवंटन मामले में जन भावनाओं की निरंतर अनदेखी के कारण सरकार के विरुद्ध पनपा था जिसे जमीन से जुड़े नेताओं और विपक्ष ने बखूबी एक जन आंदोलन के रूप में खड़ा कर दिया था. कहा जाता है कि संगरिया में शहीद हुए लोगों के दाह संस्कार पर जयपुर से भैरो सिंह भी पहुंचे थे और उन्होंने बड़ा मार्मिक भाषण दिया था. उन्होंने अपने भाषण में जनता से 15 मिनट राज सौंपने की अपील की थी जिसमें उन्होंने तुरंत राज्य सरकार की भूमि नीलामी योजना को सिरे से खारिज करने का वचन दिया था.

1970 के भूमि आंदोलन पर पूरा इतिहास लिखा जा सकता है जिसने तत्कालीन कांग्रेस सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया. इसी आंदोलन का सार्थक परिणाम है कि आज राजस्थान नहर से सिंचित सोना उगलने वाली जमीनें प्रदेश के हजारों भूमिहीन और निम्न वर्ग के बाशिंदों के स्वामित्व में भी है. जनता को उसका हक दिलाने वाले इस भूमि आंदोलन पर भाई गंगासागर, महिपाल सारस्वत और एडवोकेट नवरंग चौधरी लगातार लिख रहे हैं. उन्हें हार्दिक बधाई और साधुवाद. आंदोलन के कुछ अनछुए पहलू पर लेखन जारी है. प्रतीक्षा कीजिए !

( जानकारी का स्रोत - तत्कालीन समाचार पत्रों की रिपोर्ट, प्रत्यक्षदर्शियों के वक्तव्य, आंदोलन के संबंध में लिखे गए लेख और पुलिस रिपोर्ट)
-रूंख

Tuesday 7 July 2020

सिक्कों का जमाना

पगडंडियों के दिन (13)


सिल्वर की दस्सी, पीतल की बीसी और गिल्ट की चवन्नी-अठन्नी. चौकोर पंजी के तो कहने ही क्या ! कभी बचपन के खजाने की सबसे अनमोल धरोहर थे खनकते सिक्के. लेकिन वक्त का सितम देखिए आज खनक तो दूर, बच्चों की जेब से सिक्के ही गायब हो चुके हैं. अजी साहब, यही जिंदगी है जो खनकती हुई अचानक गायब हो जाती है !


सबसे कम मूल्य होने के बावजूद 'पंजी' बच्चों की पहली पसंद थी. वह अगर जेब में होती तो एक अनूठी खुशी का एहसास रहता. यह 'पंजी' रोते हुए बच्चे को चुप करा सकती थी. स्कूल से आनाकानी करने वालों को स्कूल भिजवा सकती थी. नुक्कड़ की दुकान से दो फांक खरीद सकती थी. गली में साइकिल पर लकड़ी की पेटी बांधकर घूमते कुल्फी वाले भाई से संतरा छाप कुल्फी दिला सकती थी. दो रूठे हुए दोस्तों को बारी बारी से उस कुल्फी को चूसा कर मना सकती थी. सच पूछिए तो इसी 'पंजी' के दम पर अपनी औकात एक बार तो जमाने भर की खुशियां खरीदने की ताकत रखती थी.


सिक्कों का जमाना भी क्या जमाना था ! सब खनकते थे. यहां तक कि जिसकी जेब में पड़े होते वह भी बाकायदा खनक रहा होता. बेचारे नोटों की विडंबना देखिए, भले ही मूल्य कितना भी क्यों न हो, खनकने का आनंद उनकी किस्मत में लिखा ही नहीं. नोट बहुत बार टेंशन भी दे देते हैं लेकिन बचपन के सिक्के ! वे तो अगर थोड़ी बहुत टेंशन होती भी, तो उसे मिटाने की सामर्थ्य रखते थे.


इक्की, दुग्गी, तिग्गी, पंजी, दस्सी, बीस्सी और अठन्नी के सिक्के एक रुपए के सिक्के से कहीं अधिक आकर्षक लगते थे. कारण सीधा सा था. उन दिनों हम बच्चों की औकात ही इतनी हुआ करती थी. रुपए का सिक्का तो कभी-कभार घर आने वाले मामा या मौसी दे जाते, जिसे मां मिट्टी के गुल्लक में डलवा देती. मुझे इन सिक्कों में सबसे अधिक 'चवन्नी' पसंद थी. आकार में सब सिक्कों से छोटी और गोल मटोल 'चवन्नी' जिस दिन पेंट की जेब में होती मेरा हाथ जेब से बाहर निकलता ही नहीं था. अंगूठा और तर्जनी उस चवन्नी को यूं थामें रहते मानो उन्मुक्त गगन के तले किसी प्रियतम ने अपनी प्रेयसी का हाथ पकड़ रखा हो.
स्कूल की आधी छुट्टी के समय दालमोठ, गुड पापड़ी, कुल्फियां या फिर बुढ़िया के बाल जैसी कोई भी चीज खरीदने की ताकत मेरी 'चवन्नी' में थी. यह 'चवन्नी' दो चार दोस्तों के साथ तो पार्टी कर ही सकती थी. 

सच पूछिए तो मुझे बहुत दु:ख होता है जब इसी करामाती 'चवन्नी' का मुहावरे में प्रयोग सस्ते और हल्के लोगों के लिए किया जाता है. जरूर कुछ चवन्नी छाप विद्वानों ने ही ढेरों खुशियां खरीदने वाली 'चवन्नी' का कद कम करने की कोशिश की होगी. इसी के चलते 30 जून 2011 को सरकार ने चवन्नी और उससे कम मूल्य के सारे सिक्कों को एक आदेश के साथ ही इतिहास के बस्तों मे बंद करवा दिया. लेकिन साहब, दिल के पन्नों पर लिखी दास्तां को कहां मिटाया जा सकता है !


सिक्कों के संसार में बच्चे वाकई बहुत खुश थे. इस खुशी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये सिक्के कभी-कभी जेब, हथेली और मुट्ठी से होते बच्चों के मुंह में पहुंच जाते थे. मुंह से गला और गले से पेट और फिर मत पूछिए. कोई गले पर थपकी मारता तो कोई पीठ सहला रहा होता. डॉक्टर दिलासा देकर घर भेज देता चिंता की कोई बात नहीं है. कैसे-कैसे उस चवन्नी और दस्सी को अगले दिन सुबह ढूंढा जाता.


आज भले ही जेब में गुलाबी रंग का कड़कड़ाता 'फर्जी चिप वाला' दो हजार का नोट पड़ा हो लेकिन मन बचपन की पंजी दस्सी और चवन्नी जैसी खुशियां ढूंढता है. सच्चाई यही है दुनिया के किसी बाजार में बचपन के सिक्कों सरीखी. की खुशी नहीं मिलती.
                                                                                                                    -रूंख



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