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सुन मेरे शहर ! ( कविताएं)

कोई शहर किसी व्यक्ति के लिए कितना महत्वपूर्ण हो सकता है इसकी संवेदना अगर महसूस करनी हो तो आपको डॉ. मदनगोपाल लढ़ा की सूरतगढ़ को संबोधित करते हुए लिखी गई बेहतरीन कविताएं अवश्य बांचनी चाहिए.



सिर्फ मैं ही क्यों !

आश्चर्य की बात हो सकती है
इक्कीसवीं सदी में भी 
किसी को प्रेम हो जाए 
किसी शहर से.

पूछा जा सकता है 
इस रोंए फूटते शहर में 
ऐसा क्या है 
जिस पर फिदा हुआ जा सके.

जायज बात-
यहां मेट्रो नहीं 
मल्टीप्लेक्स मॉल नहीं
नहीं है सिटी बसों की व्यवस्था
सीवरेज भी नहीं है ढंग से
महानगरों से नहीं कर सकता 
यह कोई होड़ 
जहां होती हैं सभी सुविधाएं.

पर ऐसे सवालों का उत्तर 
सिर्फ मैं क्यों दूं
ओ शहर ! तू भी तो कुछ बोल
इकतरफा प्रेम तो नहीं है मेरा
तेरा भी तो होगा 
मेरे संग कुछ हेत !

2.
रहोगे तो जानोगे

भग्गू वाला कुआं
भगत सिंह चौक 
पुराना बाजार 
लाइन पार 
सिर्फ नाम ही नहीं है 
जगह के
बल्कि पहचान कराते हैं 
एक जीवित शहर 
सतरंगी संस्कृति की.

वैसे बताने के लिए 
थर्मल फार्म और छावनी को छोड़
कुछ ऐसा खास-अनूठा नहीं है 
जिस पर हो सके गुमेज
या घर आए किसी मेहमान को 
घुमाया जा सके.

लेकिन 
साथ रहने से पता चलता है 
इन छोटे-छोटे घरों में 
बसने वाले बड़े दिलों का !

3.
यात्री है शहर

इस शहर की नींद कम है 
आधी रात को 
कभी भी पुकार लो 
झट बोल पड़ेगा 
जैसे अभी-अभी सोया हो.

कम नींद का यह मतलब नहीं
कि सपने ही न हों
जागती आंखों से 
यह देखता है
सुनहरे भविष्य के सतरंगी सपने
जिला बनने के
आगे बढ़ने के
एजुकेशन हब बनने के लिए तो 
कदम बढ़ा ही चुका है.

एक यात्री है यह शहर 
जिसे चलना है युगों-युगों !

4. 
स्मृतियां

मैं आया हूं खोजने 
उन पैरों के निशान 
जो पड़े थे बरसों पहले 
इन गलियों में
उनके बाद तो
लाखों लोग गुजरे होंगे 
लेकिन फिर भी भरोसा है
कहीं तो मिलेंगे
कोई निशान
उस युग के.

मेरे निशान भी पड़े होंगे 
इन रास्तों पर 
जब मैंने जीवन यात्रा में 
यहां चलना सीखा था.

मेरी प्रतिज्ञा होगी पूरी 
ओ शहर !
ढंग से याद तो कर 
उन पुरानी स्मृतियों को.

5.
सब कुछ वही है

सब कुछ वही है 
गलियां वैसी ही है 
जैसी होती है दूसरे शहरों में 
रेलवे स्टेशन 
बस अड्डा 
बाजार 
और घर 
सब कुछ वैसा ही है 
इस शहर में.

सूर्यदेव रोज उगते हैं 
जैसे उगते हैं किसी दूसरी जगह 
बस कुछ तेज हो जाते हैं 
गर्मी के दिनों में
चलते ही मना लेते हैं छुट्टियां 
सर्दी के मौसम में.

भरपूर पानी है 
कल कल बहती इंदिरा गांधी नहर 
खेतों में लहराती है फसलें 
हां कभी-कभी 
घग्गर गुस्सा आने पर
पीछे दौड़ती हुई
घुस आती है घरों में.




डॉ. मदनगोपाल लढ़ा

6 comments:

  1. संवेदनाओं से भरी पूरी कविताएं बांच कर मुझे भी सूरतगढ़ के अपने दिन याद आ गए। बहुत बधाई।

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  2. वाह शानदार कविताएं। बधाई पहुंचे लढ्ढा जी तक

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  3. चीकणा दिन संग्रह में शामिल इन राजस्थानी कविताओं का बेहतरीन अनुवाद कवि-पत्रकार अग्रज डॉ हरिमोहन सारस्वत ने किया है जिससे इनकी अर्थवत्ता बढ़ गई है। सूरतगढ से अथाह हेत करने वाला व्यक्ति ही ऐसा अनुवाद कर सकता है जो मूल से भी एक कदम आगे जान पड़े। अंतस से आभार।

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  4. वाह! आज फिर सूरतगढ़ की यादों में खो गए।

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  5. बहुत शानदार मेरे जीवन को राह दिखाने वाले गुरुवर श्री मदन गोपाल जी लढ़ा जी
    साक्षात् भगवान

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  6. बहुत ही सुंदर कविता लिखी है सूरतगढ़ शहर के लिए। धन्यवाद गुरुदेव 🙏🙏

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