(सामयिक आलेख)
मानव ने अपने जन्म से ही आत्मनिर्भर बनने के प्रयास जारी रखे हैं. मनुष्य के इन प्रयासों में प्राकृतिक संसाधनों ने हमेशा अपना योगदान दिया है. यह अलग बात है कि आदमी ने इस सहयोग का आभार करने के बजाए इन संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर स्वयं को ही नुकसान पहुंचाया है. अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की यही इंसानी प्रवृत्ति आत्मनिर्भरता की अवधारणा को स्वार्थ लिप्सा में बदल देती है जिसका मूल्य पूरी मानव सभ्यता को चुकाना पड़ता है.
वर्तमान कोरोना संकट भी जानबूझकर की गई ऐसी ही मानवीय गलतियों का नतीजा है जिसने समूचे विश्व को खतरे में डाल दिया है. इस महामारी के आतंक ने एक बार फिर दुनिया के सभी देशों और सामान्यजन को आत्मनिर्भर होने के लिए प्रेरित किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो लॉकडाउन-3 में अपना उद्बोधन पूरी तरह से इसी विषय पर केंद्रित रखा है और समस्त देशवासियों से आत्मनिर्भर बनने का आह्वान किया है. हालांकि आज वैश्विक परिस्थितियां ऐसी बन चुकी है कि प्रत्येक देश अपनी जरूरतों के लिए एक दूसरे पर निर्भर है लेकिन उसके बावजूद समय की मांग है कि देश में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करते हुए अधिकांश जरूरी वस्तुओं और सेवाओं का निर्माण देश के भीतर ही किया जाए. स्वदेशी आंदोलन भी इसी आत्मनिर्भरता पर बल देता है.
किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में कृषि, उद्योग-धंधे और सेवा क्षेत्र आधारभूत घटक होते हैं. इन्हीं में मनुष्य अपने जीवन यापन के साधन खोजता है और अपने प्रयासों को गति देने के लिए संसाधनों को जुटाता है. इन तीनों क्षेत्रों का समग्र और सामूहिक विकास ही देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाता है. इसमें भी कृषि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जो प्रत्येक अर्थव्यवस्था का आधार है. इसका सीधा सा कारण खाद्यान्न है जो मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता है. शायद इसीलिए प्राचीन भारत में उत्तम खेती, मध्यम व्यापार और निकृष्ट नौकरी की बात कही गई है.
हमारे देश के संदर्भ में कृषि क्षेत्र की बात करें तो स्थिति ज्यादा बेहतर नहीं है. छोटी जोत का या भूमिहीन किसान आज भी दो जून की रोटी के लिए दिन भर कड़ी मेहनत करता है लेकिन फिर भी उसे अपना पेट पालने के लिए कर्ज का सहारा लेना पड़ता है. बड़े जमीदारों की बात छोड़ दें तो साधारण किसान आज भी जीवन यापन के लिए जूझ रहा है. पूंजी की अनुपलब्धता, संसाधनों का अभाव, पानी की कमी, विद्युत संकट, अशिक्षा के चलते नवीन तकनीक का ज्ञान न होना, परंपरागत खेती और कर्जे का बोझ भारतीय किसान को उबरने ही नहीं दे रहा है. इसके बावजूद वह इन कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने खेत में फसल उगाता है लेकिन ये फसलें बाजार में पहुंचने तक उसके सारे सपने लील जाती हैं. आज भी भारत में फसलों का मूल्य निर्धारण किसान के लिए सबसे बड़ी समस्या है. कभी-कभी तो उसे अपनी उपज का लागत मूल्य ही नहीं मिल पाता. ऐसी स्थिति में उसके पास भाग्य को कोसने के अलावा कोई चारा नहीं रहता. सरकार द्वारा घोषित फसलों का समर्थन मूल्य हमेशा विवादित रहा है. समर्थन मूल्य निर्धारण पर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें यथावत लागू करने से हर सरकार घबराती रही है. फसल मूल्य निर्धारण में रही सही कसर कमोडिटी एक्सचेंज यानी सट्टा बाजार ने पूरी कर दी है. किसान की फसल को प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए यूं तो देश में कृषि फसल बीमा योजना भी लागू है लेकिन यथार्थ के धरातल पर यह योजना अपनी खामियों के चलते कारगर सिद्ध नहीं हो पाई है. इसकी आड़ में कृषि बीमा कंपनियां तो अरबों रुपए के मुनाफे से फल फूल गई हैं लेकिन किसान हमेशा शोषण का शिकार हुआ है.
70 के दशक में हरित क्रांति की बदौलत भले ही हम खाद्यान्नों के उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गए हो लेकिन किसान के हालात बद से बदतर होते गए हैं. देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था ने किसान को हमेशा वोट बैंक की राजनीति से जोड़कर देखा है. उसे सपने तो बड़े-बड़े दिखाए गए लेकिन उनका लाभ जमींदार से राजनीतिज्ञ बने लोग उठाते रहे. असली किसान आज भी अपने हक से वंचित बैठा है. देश की कर व्यवस्था में भले ही कृषि आय को कर मुक्त रखा गया हो लेकिन सच्चाई यह है कि इस करमुक्त आय का लाभ लेने वाले अधिकांश करदाता खेत की ओर मुंह ही नहीं करते हैं. वे तो अपने स्वामित्व की कृषि भूमि पर फसलें नहीं, आंकड़े उगाते हैं जो अंततः उनकी रिटर्न भरने के काम आते हैं. छलने का यह सारा खेल करमुक्त कृषि आय के नाम पर होता है जिसकी जानकारी हर सरकार को है.
ऐसी परिस्थितियों में अर्थव्यवस्था की नींव कहे जाने वाले किसान को आत्मनिर्भर बनाना आसान नहीं है. उसका मनोबल कर्जे के बोझ और जमीन के कुर्की नोटिस से इतना गिर चुका है कि उसे आत्महत्या भी एक विकल्प दिखने लगी है. यदि सरकार किसान को आत्मनिर्भर बनाने का सपना देखती हैं तो उसके लिए सामूहिक प्रयासों की जरूरत है..ऐसी घातक स्थिति से उबरने के लिए केंद्र और प्रदेश सरकार के साथ-साथ खुद किसान को नए हौंसले के साथ उठना होगा.
केन्द्र सरकार को दो बिंदुओं पर तुरंत समीक्षा कर कृषि नीति में बदलाव करने चाहिए. पहला कृषि जिंसों का समर्थन मूल्य निर्धारण और दूसरा फसल बीमा योजना. यदि सरकार ईमानदारी से इन दोनों मुद्दों पर किसान हित में काम करती है तो बेहतर परिणाम आ सकते हैं. फसल बीमा कंपनियों द्वारा नुकसानी दावों के मामलों में नियम कायदों का कड़ाई से पालन होना बेहद जरूरी है. जब तक कृषि बीमा फसल योजना में वाहन दुर्घटना बीमा के समकक्ष दावों के भुगतान की प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती, इस बीमा के उद्देश्यों की प्राप्ति में संशय है. तीसरे काम के रूप में केंद्र सरकार को राष्ट्रीय बीज निगम का पुनर्गठन कर उसकी जवाबदेही तय करनी चाहिए. यह बहुत गंभीर तथ्य है कि इस संस्थान की उपस्थिति के बावजूद बीजों के उत्पादन और गुणवत्ता के मामले में निजी कंपनियां कहीं बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं.
किसान को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रदेश सरकारों को भी कमर कसनी होगी. उन्हें चाहिए कि वे इसकी शुरुआत भू राजस्व कानूनों का सरलीकरण कर राजस्व अधिकारियों की समयबद्ध जवाबदेही तय करने से करें. अक्सर देखा गया है कि बहुत से किसान खातेदारी, गैर खातेदारी, अस्थाई काश्त, भूमि बंटवारे और राजस्व संबंधी अनेक मामलों में लचर कानून व्यवस्था के चलते जीवन भर उलझे रहते हैं. तहसील और वकील के चेंबर में समाधान तलाशता किसान आशंकाओं से घिरा रहता है. मानसिक तनाव की यह स्थिति कृषि और कृषक दोनों के लिए चिंता का विषय है. राज्य सरकारें पड़ोसी राज्यों के साथ हुए जल समझौतों में भी अक्सर लापरवाही बरतती हैं जिसका खामियाजा अंततः किसान को भुगतना पड़ता है. यदि समय पर खेत को पानी न मिले तो काश्तकार की सारी मेहनत व्यर्थ चली जाती है. प्रदेश सरकारों की जिम्मेदारी है कि खेतों में सिंचाई हेतु पर्याप्त पानी मिले और उसके लिए किसान को आंदोलनों का सहारा न लेना पड़े. नलकूपों से सिंचाई व्यवस्था के मामलों में राज्य सरकार को पर्याप्त विद्युत आपूर्ति सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करने होंगे. कई राज्यों में हालात यह है कि दसियों साल से किसानों के विद्युत कृषि कनेक्शन आवेदन बकाया पड़े हैं.
प्रदेश के किसान उन्नत तकनीक का प्रयोग करते हुए अच्छी गुणवत्ता की फसलें उगाने की तरफ कैसे अग्रसर हों, इसके लिए सरकारों को कृषि विशेषज्ञों की कार्यशालाओं का ब्लॉक स्तर पर निरंतर आयोजन करना चाहिए. कृषि विभाग के अतिरिक्त राज्य सरकार के पास पटवारी और ग्राम सचिव नामक दो कार्मिक ऐसे हैं जो किसान मित्र की भूमिका निभा सकते हैं. इन दोनों कार्मिकों की परंपरागत भूमिका में बदलाव की सख्त आवश्यकता है. कृषि कार्यों में गुणवत्ता प्रोत्साहन के लिए पटवारी और ग्राम सेवक की जवाबदेही तय होनी चाहिए. राज्य सरकारों को चाहिए कि वे प्रतिवर्ष बेहतर प्रदर्शन करने वाले किसानों को सम्मानित करने का नव प्रकल्प प्रारंभ करें.
सरकारों के अथक प्रयासों के बावजूद जब तक किसान खुद अपनी कृषि में नवाचारों को लागू नहीं करेगा तब तक बेहतर परिणामों की उम्मीद करना व्यर्थ है. किसान को समझना होगा कि परंपरागत कृषि फसल चक्र को समय की मांग के अनुसार बदलना बेहद जरूरी है. कम लागत में अधिक मुनाफा देने वाली फसलों पर विचार करना होगा. किसान को शिक्षा और तकनीक का महत्व समझते हुए अपनी भावी पीढ़ी को पढ़ने के लिए प्रेरित करना होगा. आज सूचना क्रांति की बदौलत कृषि संबंधी बेहतर मार्गदर्शन और सुझाव किसान की मुट्ठी में है. उसे सिर्फ उनका प्रयोग करना सीखना है. देश में अनेक ऐसे प्रगतिशील किसान है जिन्होंने अपने प्रयासों से न सिर्फ आत्मनिर्भरता हासिल की है बल्कि वे देश के विकास में भी वे अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं.
इन किसानों ने कृषि के प्रति उदासीन होती धारणा को बदल दिया है और इस बात को पुनर्स्थापित किया है कि कृषि में अपार संभावनाएं हैं जिनकी बदौलत देश की अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है. किसान को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हमें संकल्पित होकर काम करने की जरूरत है.
-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
No comments:
Post a Comment
आलेख पर आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है. यदि आलेख पसंद आया हो तो शेयर अवश्य करें ताकि और बेहतर प्रयास किए जा सकेंं.