इन दिनों
मेरे आस-पास से
लोग ऐसे जुदा हो रहे हैं
जैसे पतझड़ के मौसम में
झड़ रहे हों पत्ते
किसी दरख़्त के.
उसी पेड़ की
शाखाओं पर उगे
छोटे-बड़े
अनगिनत पत्तों के बीच
मैं भी छिपा हूं
मौन नि:शब्द
मौसमी प्रहार को झेलता
मौत को धकेलता.
पर कब तक ?
मैं जानता हूं
आजकल
जहरीली हवा बह रही है
मेरे वजूद को लीलने का
कह रही है.
महज इस डर से
क्या मैं जीना छोड़ दूं
वक्त से पहले खुद को
अपनी शाख से तोड़ दूं
या फिर
मेरे भीतर का हरापन
हवाओं में निचोड़ दूं ?
नहीं...,
ऐसा कुछ भी
नहीं करूंगा मैं
हरियाली बांटने से पहले
नहीं मरूंगा मैं !
-रूंख
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