(विरासत संभालने का वक्त)
जब हम किसी भाषा को सहेजने और उसके उन्नयन की बात करते हैं तो सही मायने में उस वक्त हम एक सांस्कृतिक विरासत और मानवी सभ्यता को संरक्षित करने का महत्वपूर्ण काम कर रहे होते हैं। संस्कृति, जिसमें हमारे संस्कार सिमटे हैं, हमारा साहित्य रचा जाता है, हमारी कलाएं, हमारे गीत-संगीत पनपते हैं, हमारे लोकरंग और हमारा लोकजीवन रचता-बसता है, उस समग्र को पीढ़ी दर पीढ़ी अग्रसर करने का काम भाषा ही तो करती है।
इस मायने में जब देव भाषा संस्कृत की बात हो तो अर्थ और गहरे हो जाते हैं। एक ऐसी भाषा जिसमें सनातनी संस्कार पल्लवित हुए हों, जिसमें प्राचीनतम सभ्यताओं ने सांस ली हो, जिसे देवों, ऋषियों और मुनियों ने गाया हो, रामायण और महाभारत सरीखे अनूठे वैश्विक ग्रंथ रचे गए हों, उस भाषा का लोक चलन से बाहर होना एक दु:खद आश्चर्य है।
भाषाओं के मामले में प्राचीन भारत अत्यंत समृद्ध रहा है। यहां कमोबेश हर क्षेत्र, जाति और समुदाय की अपनी-अपनी भाषा और उसकी बोलियां रही हैं। विरासत स्वरूप इन भाषाओं की हमारे पास लाखों-लाख साहित्यिक पांडुलिपियां उपलब्ध है जो इस बात की साख भरती हैं कि यह भाषाई विविधता कोरी कपोत कल्पना नहीं है। भाषाओं और बोलियों का इतना विषद् भंडार होते हुए भी संस्कृत सहित अनेक समृद्ध भाषाओं का चलन से बाहर होना चिंतनीय है।
संस्कृत की बात करें तो कुछ विद्वान साथी इसकी वर्तमान दशा को भारतीय उपमहाद्वीप पर पिछले 2 हजार वर्षों में हुए मध्य एशियाई और यूरोपीय आक्रमणों से जोड़कर देखते हैं, जबकि यह एक पहलू भर है। तथ्य यह है कि नालंदा और तक्षशिला में सुदूरपश्चिमी देशों से आने वाले विद्यार्थियों ने न केवल संस्कृत में अध्ययन किया बल्कि उसे दूर-दूर तक प्रसारित करने में महती भूमिका निभाई। यदि सिर्फ बाह्य आक्रमण से संस्कृत का चलन कम होता तो हमारी द्रविड़ियन भाषाएं भी विलुप्त होने की कगार पर होती। मगर हम देखते हैं कि अन्य विदेशी भाषाओं की उपस्थिति के साथ दक्षिण की भाषाएं निरंतर उत्तरोत्तर प्रगति करती रही हैं।
दरअसल, किसी भाषा के विलुप्त होने में बहुत से कारक होते हैं। भौगोलिक उथल-पुथल ने टेथिस सागर को जब थार के रेगिस्तान में बदल दिया तो फिर भाषा का मुद्दा तो बहुत गौण है। संस्कृत के चलन से बाहर होने में बाह्य आक्रमणों के
साथ-साथ प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारकों को भी शामिल किया जाना जरूरी है। यह कटु सत्य है कि सामाजिक विसंगतियां भी भाषाओं को प्रभावित करती हैं और संस्कृत भी इससे अछूती नहीं रही। वर्तमान में उदासीन लोकचेतना और तथाकथित शिक्षाविदों की भाषाई अज्ञानता के चलते संस्कृत भाषा भारतीय जनमानस में अपना चलन खो चुकी है। बोलचाल की तो बात छोड़िए, साहित्य सृजन में भी संस्कृत पिछड़ गई है। जो भाषा कभी भारतीयता का प्रतीक रही हो, उसे खुद अपने देश में तृतीय भाषा का दर्जा मिलना अत्यंत दु:खद है।
उन विद्वजनों का धन्यवाद करना चाहिए जो भावी भारतीय पीढ़ियों के लिए इसे जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं।
यहां हंस के पूर्व संपादक राजेंद्र यादव की बात याद आती है । उनका मानना था कि जो भाषाएं सिर्फ संवेदना से जुड़ी हैं उनका भविष्य अच्छा नहीं है। भाषा की समृद्धि के लिए संवेदना के साथ-साथ उसे व्यवहार में उतारना भी जरूरी है। भारतीय संस्कृति और सनातन को यदि सहेजना है तो उसकी आधार भाषा संस्कृत को न सिर्फ संरक्षण देना होगा बल्कि उसके उन्नयन की बात भी करनी होगी। यह दायित्व सिर्फ सरकार का नहीं है बल्कि सभी जागरूक और विद्वान शिक्षाविदों का है जो संस्कृत की महत्ता को भारतीय जनमानस पर पुनः स्थापित करें। ब्रिटिश काल में स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा दिया गया नारा ,'वेदों की ओर लौटो' आज भी प्रासांगिक है । भारत जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है, उस दौर में संस्कृत और उसकी विरासत एक पथ-प्रदर्शक के रूप में काम कर सकती है, बस इसे समझने की जरूरत है।
डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
(भाषाविद् और वरिष्ठ साहित्यकार)