1.
कहां झेल पाया
बदलते वक्त की मार
बिलौने की मशीन
तोप की तरह
निगल गई
हाथों से लड़ने वाले
मक्खन के
राजा की सत्ता.
2.
मशीनी बिलौने में
तेजी से घूमता
मक्खन का लोंदा
याद कर ही लेता है
झेरणिये से
मथे जाने का आनंद
अब चाह कर भी
नहीं उठ पाती
उसके भीतर
चूंटिये सी महक !
3.
बूढ़े बिलौने के आनंद सागर में
गोते लगाता चूंटिया
अक्सर देर से आता
दादी की झिड़कियां खाता.
मशीन आने के बाद
पता चला
चूंटिया तो था
झरड़ मरड़ के संगीत का रसिया !
4.
खूंटी पर टंगी लालटेन का
लटका हुआ मुंह
अर्से से नहीं देखा है किसी ने
फूटे हुए शीशे से झांकती
उसकी सूखी बत्ती
अब भी उम्मीद करती है
मिटिया तेल में भीगकर
रोशनी देने की.
उसे नहीं पता
इच्छाओं के अनंत अंधकार में
मुट्ठी भर उजियारे से
कैसे गुजारा हो !
5.
नहीं बच पाई
चसती हुई चिमनी
ताउम्र अंधेरों से जूझती
आखिर मारी गई
अपनों के हाथ से.
टिमटिमाते प्रकाश पर
दूधिया रोशनी छा गई
बड़ी मछली
छोटी को खा गई.
6.
रसोई के कोने में
फूटा हुआ चूल्हा
अपना वक्त याद कर
अक्सर रोता है
अर्सा हुआ
उसे किसी ने नहीं पोता है
आग ठंडी न होने देने की सीख
कब की हो चुकी है ठंडी
मगर चूल्हा है
कि अब भी किसी रोज
जलने की आस लिए बैठा है
जिस दिन गैस खत्म होनी है
धिराणी ने उसी पर
रोटियां पोनी है.
7.
चूल्हे से उठते धुंऐ ने
फोड़ ही डाली थी
मां की आंखें
परन्तु टाबरों को
भोभर पर सिकी
रोटियां जीमते देख
उन फूटी हुई आंखों में
उतर आए थे
खुशी के आंसू
फूंकणी से
एक ही सांस में
जगा दिया था
धुंआ भरा चूल्हा.
8.
मां ने सीख दी थी
चूल्हे की आग
न बुझे कभी
आग उधारी नहीं मांगी जाती.
मगर मेरे चूल्हे की आग
वक्त से पहले बुझ चुकी है
और बुझा हुआ मैं
उधारी आग की तलाश में हूं.
चूल्हे की आग
न बुझे कभी
आग उधारी नहीं मांगी जाती.
मगर मेरे चूल्हे की आग
वक्त से पहले बुझ चुकी है
और बुझा हुआ मैं
उधारी आग की तलाश में हूं.
9.
दो पाटों के बीच फंसा
बेचारा घटूलिया
साल भर उडीकता है
सातूड़ी तीज को
जब बांधी जाएगी
उसके हत्थे पर मोली
झाड़ पोंछ कर
मां उस पर पीसेगी
भुने हुए गेहूं, चावल और चने
कुछ दिन के लिए ही सही
वह काम तो आएगा
पत्थर है
बिक नहीं सका कबाड़ में
इसी घर के कोने में पड़ा
किसी दिन बेमौत मर जाएगा.
10.
मां
अब भी
गाहे बगाहे
दल ही लेती है
कबाड़ में पड़े घटूलिये पर
मोठ या चने की दाल
वरना उडीक भरे दिन
बेवजह के ताने
कर देते हैं
उसका हाल बेहाल.
सच मानिए
अन्न का स्वाद चख
उस दिन घटुलिया
हो जाता है निहाल !
-रूंख
वा सा सांतरी कवितावां गांवा रै पुराणै बखत नै उजागर करती।
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