(कोयले वाले रेल इंजिनों के दिन)
'अंजण की सिटी में म्हारो मन डोलै...'
इकराम राजस्थानी का यह लोकप्रिय चुलबुला गीत उस गुजरे वक्त की सुनहरी यादों को बयां करता है जब भारतीय रेल्वे स्टेशनों पर कोयले से चलने वाले इंजिन की सीटियां गूंजा करती थी. जी हां ! इन रेल इंजिनों की सुरीली सीटी इतनी मधुर होती थी कि बड़े-बड़ों का दिल डोल जाए. यकीं न हो तो आप एक बार 'शोले', 'विधाता' या फिर 'गदर' के रेल इंजिन वाले वो सीन याद कीजिए जो इन 'सुपरहिट' फिल्मों की जान कहे जाते हैं. और ज्यादा जज़्बात जगााऊं तो पाकीजा के मशहूर गीत 'चलते चलते, यूं ही कोई मिल गया था...' में बज रही इंजिन की सीटी और मीना कुमारी की बेचैनी को याद कर लीजिए.आज के दौर में, जब बुलेट ट्रेन की बात हो रही है, तब कोयले वाले काले-कलूटे इंजिन भले ही बिसरा दिए गए हों, लेकिन उनकी अमिट छवि स्मृति पटल पर अक्सर जाग उठती है क्योंकि मेरे बचपन के खजाने में कोयले वाले इंजिन भी शामिल रहे हैं. मेरे पिता उत्तर रेल्वे में ड्राइवर थे, इसलिए स्वाभाविक है कि मुझे इन इंजिनों को न सिर्फ करीब से देखने का मौका मिला बल्कि बचपन की जाने कितनी यात्राएं मैंने इन्हीं में खड़े होकर की.
स्मृतियों का एक पन्ना पलटता हूं तो 1982 का समय याद आता है, मैं कक्षा 6 में हनुमानगढ़ के कैनाल कॉलोनी स्कूल में पढ़ा करता था जो हमारी रेल्वे मेडिकल कॉलोनी से लगभग 3 किलोमीटर दूर था. उन दिनों मैं अपने दोस्त शैलेंद्र और प्रकाश के साथ अक्सर यार्ड में शंटिंग कर रहे इंजिन से ही स्कूल जाया करता था. 'रेल्वे हमारी और हम रेल्वे के', तो फिर इंजिन किसका हुआ ! हमें देखते ही शंटर अंकल इंजिन रोक लेते और हम शाही सवारी पर स्कूल जाया करते. आप में से शायद ही किसी को ऐसे अनूठे स्कूल वाहन में बैठने का सौभाग्य मिला हो !
उन दिनों 9 जोन्स में विभाजित भारतीय रेल में उत्तर रेल्वे सबसे बड़ा जोन हुआ करता था जिसका लोको शेड हनुमानगढ़ में भी था. लोको शेड वह खास जगह थी जहां दिन-रात इंजिनों की मेंटेनेंस का काम चलता रहता था. लोको शेड में सुबह और शाम रेल कर्मचारियों के लिए निश्चित समय पर 'हूटर' बजा करता था जिसे सुनकर लोग अपनी घड़ियां मिलाया करते थे. उस वक्त गूगल और ऑटोमेटेड टाइम के ऑप्शन कहां थे ! हां, दिन-रात कर्मचारियों और अधिकारियों की आवाजाही से रेल्वे के लोको शेड जगमगाया करते थे.
कोयले वाले इंजिन को तीन सदस्यीय टीम संचालित करती थी जिसमें खलासी, फायरमैन और ड्राइवर शामिल थे. गाड़ी रवाना होने से लगभग दो घंटे पहले, रेलवे का एक कर्मचारी, जिसे 'कॉल बॉय' कहा जाता था, ड्राइवर के घर जाकर 'ड्यूटी' का संदेश दिया करता था. घर पर जब तक ड्राइवर साहब का टिफिन तैयार होता तब तक वे लोको शेड में जाकर इंजिन का चेकअप कर लेते. इस काम में फायरमैन और खलासी उनका सहयोग करते जो 'कॉल बॉय' की सूचना पर उनसे पहले ही वहां पहुंच जाते.
गाड़ी माल हो या सवारी, लोको से इंजिन के निकलने से पहले उसकी पूरी जांच की जाती थी. इंजिन के पिछले हिस्से में कोयला रखा जाता था जिसे खलासी हथौड़े से तोड़ता रहता था. इस हिस्से में एक बड़ी टंकी भी होती थी जो भाप बनाने के लिए पानी की आपूर्ति करती थी. फायरमैन तोड़े गए कोयले को कड़छीनुमा 'सब्बल' से इंजन के 'फायर बॉक्स' में डालता रहता था. 'फायर बॉक्स' खुलने का सीन देखने लायक होता था. पीली, सुनहरी और लाल लपटें उठाती भट्टी, जिस का तापमान करीब 2500 डिग्री होता था, एक जीवंत दृश्य प्रस्तुत करती थी. ड्राइवर स्टीम वॉच पर नजर रखता और एक लम्बे रॉड़नुमा हत्थे, जिसे हैंडल कहा जा सकता है, से इंजिन को संचालित करता था. टीम के तीनों सदस्यों का काम अत्यंत मेहनत भरा होता था. थार के रेगिस्तान में, जहां गर्मियों के दिनों में तापमान 50 डिग्री तक पहुंच जाता है, वहां इन कोयले वाले इंजिनों को चलाना आग की भट्टी में उतरने के समान दुष्कर कार्य होता था. शायद इसी महत्ता के चलते ब्रिटिश राज व्यवस्था के समय से ही लोको रनिंग स्टाफ को सबसे अधिक अहमियत दी जाती थी.
जब लोको से निकलकर इंजिन स्टेशन पहुंचता तब तक खलासी या फायरमैन अपने टिफिन के साथ ड्राइवर साहब के घर से भी टिफिन ले आते. पिताजी को पान खाने का शौक था. मुझे अच्छी तरह याद है कि स्टेशन से बाहर निकलते ही भंवरजी पनवाड़ी की दुकान हुआ करती थी जहां पिताजी का पान बनता था. वे अपना पान ज्यादातर खुद तैयार करवाते थे. कभी-कभी इंजिन पर पान लाकर देने की ड्यूटी मेरी भी लगती थी. 'मद्रास पत्ता और 80 नंबर' सुनते भंवर जी समझ जाते, किसका पान है. ड्यूटी जाते समय अपने दो पान लेना पिताजी शायद कभी नहीं भूले.
स्टेशन पर जब कोयले वाला इंजिन खड़ा होता तो जाने कितनी सवारियां उत्सुकता भरी निगाहों से उसे निहारती रहती. इंजिन जब स्टीम छोड़ता तो नजारा देखने लायक होता. उसके वैक्यूम पाइप से निकलती भाप की आवाज से यूं लगता मानो किसी अजगर ने फूफकारा हो. स्टीम वॉच को जांचने के बाद ड्राइवर जब इंजन की छत में लगे तार को खींचकर सिटी देता तो सबके कान खड़े हो जाते, जाने कितनों के दिल धड़कने लगते. अवधारणा थी कि इंजिन तीन सिटी देगा और तीसरी सिटी के बाद ट्रेन के अंदर डिब्बे में खड़ा गार्ड हरी झंडी दिखाएगा.
ट्रेन जब धीरे-धीरे प्लेटफार्म से सरकना शुरू करती तो इंजिन का शोर ट्रेन के डिब्बों के साथ मिलकर ऐसा संगीत प्रस्तुत करता मानो संतूर और बांसुरी पर शिव-हरि' की जुगलबंदी हो रही हो. इस संगीत में जब पटरियां भी तबले सरीखी ताल मिला लेती तो पूरा वातावरण अद्भुत संगीत से गुंजायमान हो उठता था. ड्राइवर इंजिन की खिड़की से मुंह बाहर निकालकर गार्ड की हिलती हरी झंडी को दोबारा देखता और फिर धीरे धीरे गाड़ी स्पीड पकड़ लेती. काला धुआं उड़ाता इंजिन सबको अपने गंतव्य की ओर यूं ले जाता मानो लंका दहन के बाद हनुमान जी अपनी पूंछ बुझाने के लिए समुद्र की ओर उड़े चले जा रहे हो.
....भाप के इंजिनों की इस विरासत कथा को एक आलेख में समेट पाना संभव ही नहीं है. इस इतिहास के जाने कितने अनछुए आयाम हैं जिन पर बहुत कुछ लिखा जाना शेष है. फिलवक्त विधाता फिल्म में इंजिन चला रहे ड्राइवर दिलीप कुमार और फायरमैन शम्मी कपूर की जुगलबंदी का खूबसूरत गीत 'हाथों की चंद लकीरों का, ये खेल है बस तकदीरों का...' याद किया जा सकता है. वक्त के प्रहार से कोयले वाले इंजिन भले ही पंचभूत में विलीन हो गए हों लेकिन रेल इतिहास में उनकी महागाथा आज भी अमर हैं.
-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
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