(पूनमचंद गोदारा री पोथी अंतस रै आंगणै बांचतां थकां...)
हिंदी रा जगचावा कवि गोपालदास 'नीरज' रो एक दूहो है-
आत्मा के सौंदर्य का,
शब्द रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है,
कवि होना सौभाग्य।
म्हारी जाण में इण सौभाग रै साथै कवि नै आखै जगती पीड़ री एक मिणिया माळा अर दरद रो दुसालो ई ओढण नै मिलै, उण सूं मुगत नीं हो सकै बो कदेई। दरद अर पीड री आ पोट उण नै बेताल दांई ढोवणो ई पड़ै। जे कोई आखतो होय'र आं भारियां नै छोड छिटका देवै, तो पछै उणनै कवि कैवै ई कुण !
सांची बात तो आ कै हर कवि रै अंतस आंगणै घरळ-मरळ चालती रैवणी चाइजै। इणी अळोच सूं मोती निपजै। सबदां रा सोनलिया मोती, जिकां री छिब मिनखपणै में बधेपो करै। कवि नै म्हूं गोताखोर मानूं जिको आपरै अंतस में गोता लगा बो'करै। गोता खावणा सोरा कोनी, सांस अर काळजा दोनूं ठामणा पड़ै एकर तो ! फेरूं ई जरूरी कोनी, मोती लाध ई जावै। कणाई चिलकता मोती, कणाई कादो अर गार, घणी बिरियां तो खाली हाथ बावड़नो पड़ै। पण सांची बात आ कै जित्ता ऊंडा, जित्ता लाम्बा गोता लागसी, बित्तो ई सांतरो रचाव सामीं आसी। किनारै उभ्यै लिखारां नै तो खंख भरिज्योड़ी सिप्यां अर फूट्योड़ा संख ई पल्लै पड़सी, जिका नै धो-पूंछ'र मेळा-मगरियां में भलंई बेच लो, अमोलक अर जगचावा नीं बण सकै बै ! अबै बात आं लिखारां माथै ई छोड़ देवां कै बान्नै कांई चाइजै !
पूनमचंद गोदारा |
इण पोथी में 80 कवितावां है जिकां रा तार कणाई कसीजै अर कठैई मोळा पड़ै। पण सरावणजोग बात आ है कै गोदारा कन्नै आपरी एक निरवाळी दीठ है जिणमें कविता री संवेदना है। बान्नै लिखणै सारू अठी-उठी जोवणो नीं पड़ै, अंतस सूं उठता भतूळिया नै बै आपरी कलम रै मिस ढाबै अर कविता रचीजै । बां रा सबद चितराम छोटा होवतां थकां ई पाठकां रै हियै ऊंडा उतरै अर सोचण सारू मजबूर करै। गोदारा आं कवितावां में घर परिवार, प्रेम, प्रकृति, काण कायदा, मिनखपणो, मायड़ भासा अर आपरै ओळै-दोळै रै चितरामां नै लेय'र आपरा मंडाण मांडै। आं कवितावां में थळी री सोरम भेळै पसवाड़ा फोरती अंतस री चींत ई लाधै। बानगी देखो-
सुणां कै/बै ढक्योड़ा मतीरा है/पण मतीरा कित्ता'क दिन रैसी ढक्योड़ा/अर कित्ता'क दिन/दबसी/लड़ सूं लड़/साच है कै/ छेकड़ तो/उघड़ना है पोत/अर उघड़ना है लड़ !
मिनख रै हारयोड़ै सुभाव नै बतावती दूजी कविता 'चीकणो घड़ो' ई सांतरो रचाव है-
अब/रीस कोनी आवै/ना ई आवै कदै बांवझळा/ना घुटै मन/ना आवै झाळ/ना काढूं गाळ !/स्सो कीं सैवतां-खैवतां/नीं ठाह म्हूं/कद बणग्यो चीकणो घड़ो !
सूत रो मांचो बुणतां देख कवि गिरस्ती नै ई मांचै री उपमा देवै।
मांचै अर गिरस्त री बुणगट इण बात पर टिक्योड़ी है कै कुण सी लड़ नै दाबणो अर कुण सी नै उठावणो। मिनखा जियाजूण ईं इणी ढाळै आगै बधै।
मांचै री उठती दबती लड़ां में जियाजूण रै रंगां अर ब्याध्यां नै सोधणो ई तो कविता कानीं बधणै रो पांवडो हुवै। सबदां री न्हाई में तप्यां ई तो सरावणजोग घड़त बणै।
'अंतस रै आंगणै' री कवितावां रा सैनाण देखता भरोसै सूं कैयो जा सकै, कै आवतै बगत में गोदारा री दीठ दिनोदिन और ऊंडी होवैला, बां री कलम सूं ऊजळो रचाव सामीं आवैला। पैली पोथी सारू मायड़ भासा रा हेताळू पूनमचंद गोदारा नै घणा-घणा रंग, गाडो भर बधाइयां !
-रूंख