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Friday 30 October 2020

संघर्षशील नेताओं से डरी हुई सरकारें !


जो लोग सरकारों को ताकतवर और निडर बताते नहीं थकते उन्हें नहीं पता कि सरकारें वास्तव में भीतर से कितनी डरपोक और आशंकित रहती हैं. विधानसभा सत्र से पूर्व राजस्थान सरकार का एक आदेश इस अज्ञात भय का ताजा उदाहरण है. प्रदेश भर के कुछ नेताओं को विधानसभा में सत्र चलने के दौरान प्रवेश से वर्जित किया गया है और उन्हें पाबंद करने की पुलिस प्रक्रिया प्रारंभ हुई है. गंगानगर जिले से भी 13 लोगों के नाम इस प्रक्रिया के अंतर्गत चिन्हित किए गए हैं. इनमें से अधिकांश जन आंदोलनों से जुड़े हुए उन नेताओं के नाम है जो या तो कामरेड है या फिर मजदूर और किसानों के हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं.
 

श्रीगंगानगर के संघर्षशील नेता

  इनमें भूरामल स्वामी, श्योपत मेघवाल, राकेश बिश्नोई, लक्ष्मण सिंह, कालू थोरी, अनिल गोदारा, रणजीत सिंह राजू, कालूराम मेघवाल, संतवीर सिंह मोहनपुरा, तेजेंद्र पाल सिंह टिम्मा, वी.एस. राणा, राजेश भारत व गुरचरण सिंह मोड शामिल है. यहां तक कि सीआईडी सुरक्षा द्वारा दो पूर्व विधायकों हेतराम बेनीवाल और पवन दुग्गल के फोटोग्राफ भी मांगे गए हैं. सरकार की नजरों में उक्त लोग व्यवस्था को बिगाड़ सकते हैं लिहाजा उनके खिलाफ विधि सम्मत कार्यवाही होनी जरूरी है. विचारणीय तथ्य यह है कि इनमें किसी भी भाजपा नेता का नाम शामिल नहीं है. तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि या तो सत्ता और विपक्ष का गठजोड़ हो चुका है या फिर सरकार को अपने मुख्य विपक्षी दल भाजपा से किसी प्रकार भय नहीं है.


शांति भंग और कानून व्यवस्था के नाम पर सरकारों द्वारा संसद और विधानसभाओं के विशेष नियम बनाए गए हैं जिनके तहत इस ढंग से जन आंदोलनों से जुड़े नेताओं को पाबंद करने का खेल रखा जाता है. विशेषाधिकार की आड में सरकार अपने सूचना तंत्र के जरिए विपक्ष के मुखर नेताओं पर नकेल डालने की कोशिश करती है. इस प्रक्रिया में वामपंथी और जन आंदोलनों से जुड़े नेताओं को सबसे अधिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है क्योंकि अन्य राजनीतिक दलों की अपेक्षा सड़कों पर आमजन की लड़ाई में उनकी भागीदारी ही सबसे अधिक रहती है. वर्तमान संदर्भ में भी बात करें तो प्रदेश का विपक्ष सोया हुआ प्रतीत होता है जिसे जन समस्याओं से ज्यादा मतलब नहीं है. भाजपा के नेता और कार्यकर्ता इन दिनों सिर्फ विज्ञप्तियां जारी करने वाले विरोध प्रदर्शन की शैली अपना रहे हैं. विद्युत बिलों का मामला हो अथवा प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था, दोनों मामलों पर भाजपा मुखरित होकर विरोध नहीं कर पाई है. भाजपा प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया जहां अपने संगठन की मजबूती का राग अलाप रहे हैं वहीं पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे 'साइलेंट मोड' पर हैं.

सरकारों द्वारा जनता की आवाज को बुलंद करने वाले नेताओं की छवि धूमिल करने के षडयंत्र नए नहीं हैं. कानून व्यवस्था के नाम पर पाबंद करने के अधिकार का दुरुपयोग करना सरकार के लिए बाएं हाथ का खेल है. इसी का नतीजा है कि देश और प्रदेश में संघर्षशील नेताओं की छवि फितरती और जन भावनाओं को भड़काने वाली बना दी गई है और उनकी पग-पग पर मानहानि की जाती है. इन षड़यंत्रों के सबसे बड़े शिकार कामरेड नेता हुए हैं जिनकी फजीहत करने में सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है. जनमानस में यह धारणा बनाने का कुत्सित प्रयास किया जाता है कि कामरेड का मतलब ही लड़ाई और झगड़े और दंगे हैं. यह अलग बात है कि जन संघर्ष करने वाले इन नेताओं की सभाओं में आज भी अपार जनसमूह जुटता है जबकि कांग्रेस और भाजपा की सभाओं में भीड़ जुटाने को लेकर विशेष कवायद होती है. 

हां, इतना अवश्य है कि हर सत्ता अपने प्रतिद्वंदी को परास्त करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर अक्सर संघर्षशील नेताओं की छवि को धूमिल करने में कामयाब हो ही जाती है. इसी का नतीजा चुनाव के वक्त देखने को मिलता है जब जनता संघर्षशील नेताओं की बजाय बड़े झंडों में लिपट कर रह जाती है. लुभावने वायदे और झूठे जुमले जनता के दिमाग से संघर्ष के जज्बे को मिटा देते हैं. परिणाम यह होता है कि 'संघर्ष' एक बार फिर सड़कों पर रह जाता है और ' फर्जी विज्ञप्तियां' संसद और विधानसभा में पहुंच जाती है.

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
(वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक चिंतक)

Friday 23 October 2020

अन्नदाता की उम्मीदों पर मंडराती नई आशंकाएं

(कृषि कानूनों से उपजे विवाद पर कवर स्टोरी )

जब देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह नए कृषि कानूनों पर बयान देते वक्त खुद के किसान होने का दावा करते हैं तो उनके वक्तव्य पर हंसी आती है. वे जमींदार हो सकते हैं, उनके नाम कृषि जमीनें हो सकती है, आयकर विवरणी में कृषि आय हो सकती है, घर में ट्रैक्टर हो सकते है, गेहूँ के भण्डार हो सकते हैं लेकिन माफ कीजिए वे किसान नहीं हो सकते. किसान होने के लिए जो चीजें चाहिए वे उन्हें बहुत पहले गवां चुके हैं. दर असल, खादी के कलफ लगे कुर्ते पायजामे पहनकर भाषण देने वाले नेताओं के लिए 'किसान' एक राजनीतिक शब्द हो गया है जिसे वे वक्त-बेवक्त अपने नाम के साथ टंगा लेते हैं. आजादी के बाद कृषि क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या भी यही है कि किसान के नाम पर लगातार राजनीति होती रही है. 

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'कृषि ने मनुष्य को सिर्फ पेट भरने के संसाधन ही नहीं दिये हैं बल्कि उसे ठहरना भी सिखाया है.'

भारत में कृषि महज अन्न उत्पादन का जरिया नहीं, बल्कि जीवन जीने की पुरातन शैली है. यहां की खेती पूर्णतया व्यावसायिक न होकर सामाजिक मूल्यों की परंपरा का निर्वहन करने वाली है. आज भी भारतीय किसान अपने खेत में हल चलाने से पहले 'स्यावड़ (रिद्धि-सिद्धि ) माता सत करी, खूड़ां में बरकत करी...' की प्रार्थना करता है. हळोतिये के इन गीतों में किसान 'वसुधैव कुटुंबकम्' की भावना से प्रेरित होकर सिर्फ मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि प्रकृति में वास करने वाले सभी पांख-पखेरू, जीव-जिनावरों का पेट भरने के लिए अन्न देने की प्रार्थना करता है. भारतीय लोक जीवन में प्राचीन काल से स्थापित इन नैतिक मूल्यों का भले ही अवमूल्यन हुआ हो लेकिन आज भी देश का किसान अपने खेत में बाजारवाद की अपेक्षा बहुजन हिताय की भावना से काम करता है. भारतीय कृषक की यह सोच यूरोप और पश्चिमी देशों की आधुनिक प्रतिस्पर्धात्मक विपणन शैली से पूरी तरह भिन्न है. 


मुद्दा यह है कि मोदी सरकार कृषि विकास और सुधारों के नाम पर लागू किए गए नए कानूनों के जरिए खेत और खलिहानों को पश्चिमी देशों जैसी खुली बाजार व्यवस्था के अंतर्गत लाने की बात कर रही है जो सिर्फ लाभ के लिए काम करते हैं. सरकार का कहना है इन कानूनों के लागू होने से भारतीय किसान को बिचौलियों के बंधन से आजादी मिली है और अब वह अपनी फसल कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र है. जबकि यह सर्वविदित है कि खुली बाजार व्यवस्था हमेशा कॉरपोरेट्स द्वारा संचालित की जाती है जो लाभ के उद्देश्य से आरम्भ में गलाकाट प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करते हैं और अंततः अपना एकाधिकार स्थापित कर लेते हैं.

अचरज की बात यह है कि सरकार द्वारा जिस ढंग से नये कृषि कानूनों को पारित करवाने की कवायद की गई है वह लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के अनुरूप नहीं है. कोरोना संकटकाल में, जब समूचा विश्व महामारी से जूझ रहा था तब सरकार द्वारा अचानक कृषि सुधारों के नाम पर अध्यादेश जारी करने का औचित्य ही समझ नहीं आता. इतना ही नहीं संसद शुरू होते ही आनन-फानन में भारी विरोध और आधी अधूरी चर्चा के बीच अध्यादेशों को कानूनी जामा पहनाया जाना सरकार की तानाशाही प्रवृत्ति का संकेत देता है. राज्यसभा में तो जिस ढंग से इन बिलों को भारी शोर-शराबे के बीच ध्वनि मत से पारित करवाया गया वह संसद की गरिमा के पूर्णतया प्रतिकूल था. सदन में उस वक्त ध्वनी ज्यादा और मत कम थे लेकिन इसके बावजूद सरकार ने समस्त लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखते हुए कृषि सुधार कानून पारित कर दिए हैं.


इन कानूनों को लेकर देशभर में बवाल मचा है और विरोध में उत्तर भारत से लेकर बंगाल और दक्षिण के किसान सड़कों पर हैं. पंजाब और हरियाणा में तो हालात बेहद नाजुक हैं. भाजपा सरकार के सहयोगी रहे अकाली दल ने भी इन कानूनों का पुरजोर विरोध किया है. केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल तो किसानों के पक्ष में अपना त्यागपत्र भी दे चुकी है. नए कानूनों का विरोध कर रहे किसान संगठनों और विपक्षी दलों का आरोप है कि ये कानून किसानों के हित में कतई नहीं है बल्कि कॉरपोरेट को कृषि क्षेत्र में सुनियोजित प्रवेश देने के लिए बनाए गए हैं. संभावना जताई जा रही है कि इससे किसानों के खेतों और कृषि उत्पाद के बाजारों पर बड़े कॉरपोरेट घरानों का कब्जा हो जायेगा जो सिर्फ मुनाफे के लिए काम करते हैं. 
 
क्या कहते हैं नए कृषि कानून ?

मोदी सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में सुधारात्मक उपायों के तहत दो नए कानून लागू किये गए हैं तथा पूर्व में विद्यमान 'आवश्यक वस्तु एवं सेवा अधिनियम' में संशोधन किया गया है. 
 
पहला कानून कृषक उपज, व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) अधि. 2020 है जिसके प्रावधानों के तहत किसानों को एपीएमसी की मंडी से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी दी गई है. कानून में इसका लक्ष्य किसानों को उनकी उपज का प्रतिस्पर्धी वैकल्पिक व्यापार माध्यमों से लाभकारी मूल्य उपलब्ध कराना बताया गया है. इस कानून के तहत किसानों से उनकी उपज की बिक्री पर कोई सेस या फीस नहीं ली जाएगी. 

दूसरे कानून कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध अधि. 2020 के तहत किसानों को उनके कृषि उत्पादों को पहले से तय दाम पर बेचने के लिये कृषि व्यवसायी फर्मों, प्रोसेसर, थोक विक्रेताओं, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ अनुबंध करने का अधिकार देने की बात कही गई है. दावे किए जा रहे हैं कि किसान का अपनी फसल को लेकर जो जोखिम रहता है वह उस खरीदार की तरफ जाएगा जिसके साथ उसने अनुबंध किया है. 

इन दो कानूनों के अलावा सरकार द्वारा आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 भी पारित करवाया गया है. इस संशोधन के पश्चात आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, दाल, तिलहन, प्याज और आलू जैसी कृषि उपज को युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि व प्राकृतिक आपदा जैसी 'असाधारण परिस्थितियों' को छोड़कर हटा दिया गया है. इससे इन वस्तुओं पर अब तक लागू रही भंडार सीमा समाप्त हो गई है. इसका उद्देश्य कृषि क्षेत्र में निजी निवेश / एफडीआई को आकर्षित करने के साथ-साथ मूल्य स्थिरता लाना बताया गया है.
 

क्या नये कृषि कानून किसान हित में है ?


जबकि इसके विपरीत सरकार दावा कर रही है कि कृषि कानूनों में लाए जा रहे बदलावों से किसानों की आमदनी बढ़ेगी, उन्हें नए अवसर मिलेंगे. बिचौलिए खत्म होंगे. इससे सबसे ज्यादा फायदा छोटे किसानों को होगा. किसान मंडी से बाहर भी अपना सामान ले जाकर बेच सकते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आश्वासन दे रहे हैं कि वे एमएसपी और कृषि मंडियों को कभी लुप्त नहीं होने देंगे और किसानों की कमाई 2022 तक दोगुनी कर देंगे. यह अच्छी बात है लेकिन एमएसपी और कृषि मंडियों पर दिए जा रहे आश्वासनों को एक बिल के रूप में लाने से उन्हें परहेज़ है. यदि वे इन दोनों बातों को अपने नए कानूनों में समाहित कर लेते कहीं विरोध की गुंजाइश ही नहीं बचती. कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर अपनी सफाई में बयान दे रहे हैं कि किसानों के लिये फसलों के न्युनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था जारी रहेगी और नया कानून राज्यों के कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) कानूनों का अतिक्रमण नहीं कर रहा है.

लेकिन वे भूल जाते हैं कि यदि किसान अपनी उपज को पंजीकृत कृषि उपज मंडी समिति के बाहर बेचेगा तो राज्यों को 'मंडी शुल्क' के रूप में प्राप्त होने वाले राजस्व का बड़ा नुकसान होगा. उसकी भरपाई कैसे होगी. मण्डियों में व्यापार कर रहे कमीशन एजेंट्स यानी परंपरागत आढ़तियों का धंधा चौपट हो जाएगा. सरकार कह रही है कि कृषि मंडियां बंद नहीं हो रही है और सिर्फ किसानों को ऐसी व्यवस्था दी जा रही है जिसके तहत वह किसी भी खरीदार को अच्छे दाम पर अपनी फसल बेच सकता है. लेकिन सवाल उठता है कि जब किसान खुले बाजार में अपना माल बेचेगा तो देशभर में विद्यमान मंडियों में फिर क्या बिकेगा ?

सरकार ने नए कृषि कानूनों में बिचौलियों, यानी आढ़तियों की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं और किसानों को उनसे मुक्ति दिलाने की बात कही है. लेकिन क्या यह संकेत नहीं है कि सरकार मंडियों की व्यवस्था को सुधारने में नाकाम रही है. होना तो यह चाहिए था कि बिचौलियों की व्यवस्था में व्याप्त गड़बड़ियों को सुधारा जाता लेकिन कॉरपोरेट्स के हाथों में खेल रही सरकार ने तो किसानों को कुंए से निकाल कर खाई में धकेलने का काम किया है. एक पूर्व स्थापित व्यवसायिक ढांचे को तोड़कर कॉरपोरेट कल्चर का नवाचार लाने का प्रयास किसी भी ढंग से भारतीय खेती के हित में नहीं कहा जा सकता

नए कानूनों के तहत किसान और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के बीच उपजे विवाद को न्यायिक प्रक्रिया में ले जाने से वंचित कर दिया गया है. अब ऐसे विवादों का निस्तारण प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा किया जाएगा जिनमें से अधिकांश आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं. कृषि सुधारों में यह अव्वल दर्जे की मूर्खता है जो न्यायपालिका में कार्यपालिका के हस्तक्षेप को प्रत्यक्ष तौर पर बढ़ावा देती हुई दिखती है. इस पर सरकार का कोई जवाब नहीं है. 


इसी प्रकार आवश्यक वस्तु और सेवा (संशोधन) अधिनियम 2020 के नये प्रावधानों ने कृषि उत्पादों की जमाखोरी और कालाबाजारी के रास्ते खोल दिए हैं. भंडारण के नाम पर होने वाली बाजार व्यवस्था को सरकार कैसे नियंत्रित कर पाएगी, यह समझ से परे है. 

कुल मिलाकर देश के अन्नदाता पर आशंकाओं के बादल मंडराने लगे हैं. भले ही किसान संगठनों और विपक्ष पर सरकार राजनीतिक हित साधने के लाख आरोप लगाए लेकिन इतना तय है कि महज इन कृषि सुधार कानूनों से किसान का भला नहीं होने वाला. यदि सरकार वाकई किसानों के प्रति गंभीर हैं तो उसे चाहिए कि कृषि क्षेत्र को खुले बाजार के हवाले करने से पूर्व किसानों और बाजार में विद्यमान अन्य घटकों के हितों को भी पर्याप्त संरक्षण दे. यदि सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो बहुत सारी गलतियों को सुधारा जा सकता है. सरकार अपने नए कानूनों में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी, विवाद की स्थिति में न्यायिक प्रक्रिया में जाने का अधिकार और आवश्यक वस्तुओं के भंडारण पर पूर्ववत नियंत्रण के प्रावधान करते हुए संशोधन ले आती है तो देशभर में उपजे आक्रोश को समाप्त किया जा सकता है, किसानों, मजदूरों और व्यापारियों का भरोसा लौटाया जा सकता है. लेकिन यदि सरकार राज हठ पर उतरती है तो फिर भारतीय कृषि और किसान का भगवान ही मालिक है.
 
 भारतीय कृषि कितनी पुरानी है ?

भारत में लगभग नौ हजार वर्ष (ई. पू.) पूर्व फसल उगाने, पशुपालन और कृषि कार्य शुरू होने के प्रमाण मिलते हैं. उपलब्ध तथ्यों के अनुसार नवपाषाण काल में ही यहां के मानव ने व्यवस्थित जीवन जीना शुरू कर दिया था और कृषि के लिए सामान्य औजार व तकनीक भी विकसित कर ली थी. 
 
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में कहा गया है कि अश्विन देवताओं ने मनु को हल चलाना सिखाया. इसी के चौथै मण्डल में खेती की प्रक्रिया का वर्णन है. ऋग्वेद में ही खनित्रिमा (खोदकर प्राप्त किया गया जल) और स्वयंजा (प्राकृतिक जल) सिंचाई पद्धतियों का उल्लेख मिलता है. इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में हंसिया (दात्र, सृणि), कोठार (स्थिति), गठ्टर (वर्ष), छलनी (तिउत), सूप (शूर्प), अनाज का ओसने वाला (धान्यकृत) आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है. यजुर्वेद में 5 प्रकार के चावल  महाब्राहि, कृष्णव्रीहि, शुक्लव्रीही, आशुधान्य और हायन का उल्लेख है तो अथर्ववेद के अनुसार सर्वप्रथम पृथुवेन्य ने ही कृषि कार्य किया था. शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में कृषि विषय पर पूरी प्रक्रिया की जानकारी मिलती है. इसी में खेत जोतने के लिए कर्षण, बीजने के लिए (वपन), काटने के लिए (कर्तन) तथा मारने के लिए मर्दन का उल्लेख किया गया है. अथर्ववेद में 6, 8 और 12 बैलों को हल में जोते जाने का वर्णन है. अथर्ववेद में कृषि दासियों का उल्लेख मिलता है, इसी में सिंचाई के लिए नहर खोदने तथा टिड्डियों द्वारा फसल नष्ट होने की जानकारी मिलती है. वैदिक काल में श्रमिक वर्ग के अन्तर्गत भूसी साफ़ करने वाले को उपप्रक्षणी कहा जाता था. खिल्य भूमि की माप ईकाई थी. इस समय तक भूमि का व्यक्तिगत स्वामित्व शुरू हो गया था जिसके लिए उर्वरासा, उर्वरापत्ति, क्षेत्रसा और क्षेत्रपति शब्द वैदिक संहिताओं में मिलते हैं. पशुओं के कानों पर स्वामित्व के चिह्न लगा दिये जाते थे. 

शनै: शनैः इस भौगोलिक क्षेत्र में दोहरा मानसून होने के कारण एक ही वर्ष में दो फसलें भी ली जाने लगीं. इसके फलस्वरूप भारतीय कृषि उत्पाद तत्कालीन वाणिज्य व्यवस्था के द्वारा विश्व बाजार में पहुँचने शुरू हो गए. दूसरे देशों से भी कुछ फसलें भारत में आयी और. खूब फली फूली.


आखिर कौन है किसान !

कुण जमीन रो धणी
ओ धणी, कै बो धणी
हाड़ मांस चाम गाळ, खेत में पसेव सींच,
लू लपट ठंड मेह, सै सवै दांत भींच,
फाड़ चौक कर करै, जोतणी’र बोवणी
बो जमीन रो धणी’क, 
ओ जमीन रो धणी.... ?

स्व. श्री कन्हैयालाल सेठिया की उक्त कविता 'कुण जमीन रो धणी' बहुत बड़ा सवाल खड़ा करती है.

आजादी के 70 साल गुजरने के बाद भी हमारे देश के कानून यह तय नहीं कर पाए हैं कि आखिर किसान है कौन ? लेकिन साहब लड़ाई किसान के नाम पर है. आप खुद तय करें, क्या जिसके सैंकड़ों बीघा जमीन है वह किसान है या फिर छोटी जोत का वह काश्तकार, जो अपनी जमीन पर खुद अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर खेती करता है. वे बड़े जमींदार, पूंजीपति और राजनेता जो अपने दूसरे व्यवसायों के साथ इनकम टैक्स रिटर्न में करोड़ों रुपए की कर मुक्त कृषि आय दर्शाते हैं या फिर वह भूमिहीन मजदूर, जो अपने खून-पसीने से किसी दूसरे के खेत में मिट्टी को सींचकर सोना उगाता है और बदले में तीसरा या चौथा हिस्सा, या फिर मजदूरी पाता है ! 
इसी भ्रामक स्थिति का परिणाम है कि किसान को मिलने वाले फायदों और सब्सिडी का एक बड़ा हिस्सा तथाकथित किसानों के हिस्से में आता है जबकि खेत में जूझ रहे काश्तकारों के पास अपनी खस्ता माली हालत के लिए किस्मत को कोसने के सिवाय कोई चारा नहीं होता. दरअसल वोट बैंक की राजनीति के चलते सरकारों ने किसान कहलाने के वास्तविक हकदारों के लिए कभी गंभीरता से प्रयास ही नहीं किए. किसानों की बदकिस्मती रही कि उनके नाम पर राजनीति करने वाले सैंकड़ों लोग किसान नेता बनकर देश की संसद और विधानसभाओं में प्रवेश पा गए और आज तक किसान का पट्टा गले में लटकाए घूम रहे हैं. इसी स्वार्थी मानसिकता वाली राजनीति का नतीजा है कि भौगोलिक विविधता वाले इस देश में सौ बीघा बारानी जमीन के मालिक मजदूरी करते हुए देखे जा सकते हैं.

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने सामाजिक चिंतक हैं)

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