पानी
पानी !
हम तुम्हे पाकर भी
नहीं पा सके
कीच में सने
इस पार ही रहे
उस पार
कहां जा सके.
हर पल खोते रहे
तुम्हारी निर्मलता
तुम्हारा अलौकिक स्वाद
खुद ही बिगाड़ कर
खुद ही रोते रहे
उगाना था जीवन
मृत्यु बीज बोते रहे.
और तुम हो
कि हर वक्त
हमें सतमासिये पूत सा
ढो रहे हो
हमारी गंदगी
हमारा मैल
अपनी स्तनधारा से धो रहे हो.
घट घट में राम हैं या नहीं
कौन जाने !
पर तुम हर घट में हो
मां की गर्भनाल से निकल
तिकूंटी पर झरते हुए
हर मरघट में हो.
तुम्हारे करीब रहकर भी
गीत होंठो पे धरे रहे
नहीं गा सके
पानी, हम तुम्हे पाकर भी
नहीं पा सके !
-रूंख
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