(80 के दशक में उत्तरी भारत के किसी गुमनाम कस्बे की छोटी सी गली में बिखरी यादों की खुशबू, जहां बड़े दिल वाले लोग रहा करते थे...)
' बब्बू गी मां, टोनी की स्वेटर मांय कित्ता घर घालूं ?'
'70
बहुत होंगे. खुल्ले-खुल्ले डालना.' बड़े सलीके और तेजी से सलाइयां चला रही
सक्सेना आंटी ने अपना चश्मा ठीक करते हुए मां की ओर देखा.
दिसंबर
के सर्द मौसम की दुपहरी में मोहल्ले की कुछ औरतें मूंज की दो चारपाइयों
और सूत के पीढ़ों पर बैठी स्वेटर बुनते हुए बातों का आनंद ले रही थी. बतरस
के आगे स्वर्ग के सातों सुख भी फीके जान पड़ते हैं. सूचना क्रांति के इस
दौर में मनुष्य से यह बतरस सुख छिन सा गया है तभी तो वह बार-बार यादों के
समंदर में गोता लगाने को आतुर होता है.
'कम तो कोनी रैसी ?' मां ने पूछा.
'ओहदे वास्ते बोत है, किड्डाक तां हैगा !' गोडों में ऊन की लच्छी का घेरा डाले गोले बना रही गेजो मासी बोली.
...और मां ने सहेलियों के विश्वास से आश्वस्त होकर सलाइयों में अपने बेटे के लिए 'घर' डालने शुरू कर दिए.
घर
चाहे स्वेटर के हों या ईंट-पत्थर के, बड़ी शिद्दत के साथ बनाए जाते हैं.
सलाइयों में डाला गया घर जहां स्वेटर का आधार बनता है तो सीमेंट गारे से
बनने वाला घर परिवार का. इस प्रक्रिया में यदि जरा भी चूक रह जाए तो स्वेटर
और परिवार दोनों असहज लगने लगते हैं. शायद इसी वजह से दूसरी औरतों की तरह
मां और दीदी भी सलाइयों में घर डालने वक्त बड़ा एहतियात बरतते. हाथों से
स्वेटर बुने जाने के दौर में अक्सर अनुभवी महिलाओं से सलाइयों में घर डलवाए
जाते ताकि आधार मजबूत और सुंदर बन सके.
पगडंडियों
के उस जमाने में सर्दियां शुरू होते ही बाजारों में ऊन की लच्छियों और
गोलों से दुकानें सज जाती. इतनी सारी ऊन और इतने सुंदर रंग कि मत पूछो !
महिलाएं अपनी पसंद के रंग और क्वालिटी की ऊन खरीदने के बाद उसे पूरे
मोहल्ले में दिखाती. लच्छी वाली ऊन गोलों से सस्ती होती. यह ऊन ओंस या
ग्राम में तोल कर बेची जाती थी जिसका औसत भाव 15 से ₹20 प्रति 100 ग्राम
तक होता था. लुधियाना उन दिनों भी देश में ऊन का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता
था. इस ऊन के साथ-साथ सलाइयां, जिन पर स्वेटर के बहाने सपने बुने जाते थे,
भी महत्वपूर्ण होती थी. एल्यूमीनियम की बनी विभिन्न मोटाई की सलाइयां अपने
नंबर से बिका करती थी. पोनी कंपनी अपनी सलाइयों के लिए प्रसिद्ध थी.
सलाइयों
में ऊन से डाले गए फंदानुमा दो घरों के जोड़े को 'जोटा' कहते हैं. सलाइयों
पर डले इन्हीं घरों से स्वेटर बुनने की शुरुआत होती है. परंपरागत स्वेटर
के शुरू में 3 से 4 इंच का बॉर्डर बुना जाता था उसके बाद डिजाइन शुरू होता
था. स्वेटर के अगले हिस्से में डिजाइन होता था और पिछले भाग में अक्सर
साधारण बुनाई की जाती थी. अगर जर्सी बुनी जा रही हो तो उसके बाजू अलग से
बुने जाते थे. इन बुने गए हिस्सों को ऊन से ही सिला जाता था.
स्वेटरों
के डिजाइन में प्रतिस्पर्धा का मत पूछिए. बेहतर डिजाइन की उम्मीद में जाने
कस्बे की कितनी गलियां और मोहल्ले लांघती हुई महिलाएं अनजान घरों तक पहुंच
जाती. हमेशा की तरह रचनात्मक सोच रखने वाली औरतें स्वेटरों के नए-नए
डिजाइन बुनती. मजे की बात देखिए कि ये गुणी महिलाएं बिना किसी पेटेंट या
नाज नखरे के अपना डिजाइन आगंतुक महिला को सिखा देती. उस दौर में उनके लिए
इतनी खुशी ही पर्याप्त थी कि कोई उनके पास सीखने के लिए आया है. पंजाबी
परिवारों की महिलाएं नए डिजाइन तैयार करने में निपुण मानी जाती थी. उन
दिनों जालीदार पत्तियां, बेल-बूटे, घुमावदार फंदे, दो रंगी पट्टियां, मोटी
मक्खी वाले डिजाइन बेहद चलन में थे. मुझे याद है नए डिजाइन की स्वेटर पहने
गली-मोहल्ले से गुजरने वाले स्कूली बच्चों को अक्सर महिलाएं रोक लेती और
उनका डिजाइन समझने की कोशिश करती. मेरे जैसे बड़ाईखोर बच्चे गर्व से उन्हें
बताते की यह स्वेटर मेरी मां या फिर दीदी ने बुना है. बच्चे ही नहीं
बल्कि पापा और चाचा भी नया स्वेटर पहनने के बाद इतराए घूमते थे. मफलर पहनने
के बाद तो वे खुद को अभिनेता राजकुमार से कम कहां समझते थे. हाथ से
बुना कॉलर वाला कार्डिगन पहनने वाली लड़कियों के अंदाज़ तो क्या ही कहने !
लेकिन
अफसोस, आज के मशीनी दौर में सलाइयां, ऊन और स्वेटर बुनने वाली महिलाएं
जाने कहां गायब हो गई हैं. हाथ के बुने स्वेटर पहनने वाले लोग भी कहां रहे !
अब तो स्वेटर की ऊन, डिजाइन और क्वालिटी सहित सब कुछ मशीन और तकनीक पर
आधारित हो चुका है जिसमें मनमाफिक रंग और आकर्षक डिजाइन तो उपलब्ध हो सकते
हैं लेकिन सलाई के साथ शिद्दत से बुने गए स्वेटरों सी सुगंध उनमें चाह कर
भी आ नहीं सकती. शायद इसीलिए उस खुशबू और गर्माहट को तलाशता हुआ मन अक्सर
अतीत के द्वार खटखटाता है. वाकई स्मृतियों की सीपियां जाने कितना कुछ सहेज
कर रखती है.
- डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
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