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सिक्कों का जमाना

 

पगडंडियों के दिन (13)


सिल्वर की दस्सी, पीतल की बीसी और गिल्ट की चवन्नी-अठन्नी. चौकोर पंजी के तो कहने ही क्या ! कभी बचपन के खजाने की सबसे अनमोल धरोहर थे खनकते सिक्के. लेकिन वक्त का सितम देखिए आज खनक तो दूर, बच्चों की जेब से सिक्के ही गायब हो चुके हैं. अजी साहब, यही जिंदगी है जो खनकती हुई अचानक गायब हो जाती है !


सबसे कम मूल्य होने के बावजूद 'पंजी' बच्चों की पहली पसंद थी. वह अगर जेब में होती तो एक अनूठी खुशी का एहसास रहता. यह 'पंजी' रोते हुए बच्चे को चुप करा सकती थी. स्कूल से आनाकानी करने वालों को स्कूल भिजवा सकती थी. नुक्कड़ की दुकान से दो फांक खरीद सकती थी. गली में साइकिल पर लकड़ी की पेटी बांधकर घूमते कुल्फी वाले भाई से संतरा छाप कुल्फी दिला सकती थी. दो रूठे हुए दोस्तों को बारी बारी से उस कुल्फी को चूसा कर मना सकती थी. सच पूछिए तो इसी 'पंजी' के दम पर अपनी औकात एक बार तो जमाने भर की खुशियां खरीदने की ताकत रखती थी.


सिक्कों का जमाना भी क्या जमाना था ! सब खनकते थे. यहां तक कि जिसकी जेब में पड़े होते वह भी बाकायदा खनक रहा होता. बेचारे नोटों की विडंबना देखिए, भले ही मूल्य कितना भी क्यों न हो, खनकने का आनंद उनकी किस्मत में लिखा ही नहीं. नोट बहुत बार टेंशन भी दे देते हैं लेकिन बचपन के सिक्के ! वे तो अगर थोड़ी बहुत टेंशन होती भी, तो उसे मिटाने की सामर्थ्य रखते थे.


इक्की, दुग्गी, तिग्गी, पंजी, दस्सी, बीस्सी और अठन्नी के सिक्के एक रुपए के सिक्के से कहीं अधिक आकर्षक लगते थे. कारण सीधा सा था. उन दिनों हम बच्चों की औकात ही इतनी हुआ करती थी. रुपए का सिक्का तो कभी-कभार घर आने वाले मामा या मौसी दे जाते, जिसे मां मिट्टी के गुल्लक में डलवा देती. मुझे इन सिक्कों में सबसे अधिक 'चवन्नी' पसंद थी. आकार में सब सिक्कों से छोटी और गोल मटोल 'चवन्नी' जिस दिन पेंट की जेब में होती मेरा हाथ जेब से बाहर निकलता ही नहीं था. अंगूठा और तर्जनी उस चवन्नी को यूं थामें रहते मानो उन्मुक्त गगन के तले किसी प्रियतम ने अपनी प्रेयसी का हाथ पकड़ रखा हो.
स्कूल की आधी छुट्टी के समय दालमोठ, गुड पापड़ी, कुल्फियां या फिर बुढ़िया के बाल जैसी कोई भी चीज खरीदने की ताकत मेरी 'चवन्नी' में थी. यह 'चवन्नी' दो चार दोस्तों के साथ तो पार्टी कर ही सकती थी. 

सच पूछिए तो मुझे बहुत दु:ख होता है जब इसी करामाती 'चवन्नी' का मुहावरे में प्रयोग सस्ते और हल्के लोगों के लिए किया जाता है. जरूर कुछ चवन्नी छाप विद्वानों ने ही ढेरों खुशियां खरीदने वाली 'चवन्नी' का कद कम करने की कोशिश की होगी. इसी के चलते 30 जून 2011 को सरकार ने चवन्नी और उससे कम मूल्य के सारे सिक्कों को एक आदेश के साथ ही इतिहास के बस्तों मे बंद करवा दिया. लेकिन साहब, दिल के पन्नों पर लिखी दास्तां को कहां मिटाया जा सकता है !


सिक्कों के संसार में बच्चे वाकई बहुत खुश थे. इस खुशी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये सिक्के कभी-कभी जेब, हथेली और मुट्ठी से होते बच्चों के मुंह में पहुंच जाते थे. मुंह से गला और गले से पेट और फिर मत पूछिए. कोई गले पर थपकी मारता तो कोई पीठ सहला रहा होता. डॉक्टर दिलासा देकर घर भेज देता चिंता की कोई बात नहीं है. कैसे-कैसे उस चवन्नी और दस्सी को अगले दिन सुबह ढूंढा जाता.


आज भले ही जेब में गुलाबी रंग का कड़कड़ाता 'फर्जी चिप वाला' दो हजार का नोट पड़ा हो लेकिन मन बचपन की पंजी दस्सी और चवन्नी जैसी खुशियां ढूंढता है. सच्चाई यही है दुनिया के किसी बाजार में बचपन के सिक्कों सरीखी. की खुशी नहीं मिलती.
                                                                                                                    -रूंख



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