Search This Blog

मेरे होने में



कई बार
कीड़ियां भी 
पोंछती रही हैं
मेरे आंसू.

चुप कराया है मुझे 
बहुत बार 
उन्होंने  
देकर 
अपना बलिदान.


छुटपन में 
चलते-चलते गिर पड़ना
बिना किसी चोट के 
बुक्का फाड़कर रोना
और मां का यह कहना 
अरे, वो देखो कीड़ी मर गई !


मेरा बालमन
हतप्रभ हो 
मरी हुई कीड़ी की देह तलाशता 
भूल जाता
कि मुझे रोना भी है
मामूली से दर्द को 
ढोना भी है.


मगर मरी हुई कीड़ी 
मुझे कभी नहीं मिली
मिला तो सिर्फ 
संवेदना का सबक.


उसी संवेदना के साथ 
मैं जिंदा हूं
उन कीड़ियों की मौत पर 
आज तक शर्मिंदा हूं !

No comments:

Post a Comment

आलेख पर आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है. यदि आलेख पसंद आया हो तो शेयर अवश्य करें ताकि और बेहतर प्रयास किए जा सकेंं.

देश, काल और समाज की चिंताओं का नवबोध कराती कहानियां

  (पुस्तक समीक्षा) राजस्थानी भाषा के आधुनिक कथाकारों में मदन गोपाल लढ़ा एक भरोसे का नाम है। मानवीय संबंधों में पसरी संवेदनाओं को लेकर वे अपने...

Popular Posts