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असमंजस

(हिंदी कहानी)

'भाई जी, एक बात करनी है.'

हां, बोलो.'

'आनंद कॉलोनी में वो जो गोपाल गर्ग है ना ! उसने मेरा पर्ल फायनेंस कंपनी में खाता खोला था. मेरे बयालीस हजार रूपये जमा है वह मुझे पैसे नहीं दे रहा है. आप एक बार साथ चल कर उससे बात करो ना ! मुझे भांजी का भात भरना है.' सुरेंद्र कुछ रूआंसा हो गया.

' अच्छा वो गोपाल ! जो सहारा और पोस्ट ऑफिस का एजेंट था.'

'हां जी भाई जी वही.'

'लेकिन उसने तो कलेक्शन का काम छोड़ दिया.'

'हां, मैं जब उसके घर गया तो उसने मुझे यही बताया. वह कहता है कंपनी का केस चल रहा है. जब भी निपटारा होगा तो कंपनी ही पैसे देगी. अब आप ही बताओ मैं कंपनी को क्या जानूं ? मैंने तो पैसे गोपाल को दिए थे. अब मुझे जरूरत है तो वह वापस नहीं दे रहा है. आप कुछ करो ना !'

मैं जानता था कि ज्यादातर फाइनेंस कंपनियां और क्रेडिट सोसायटीज अपने एजेंटों की मार्फत दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लोगों को अक्सर चूना लगा कर गायब हो जाती हैं. सालों तक कोर्ट में उनके केस चलते रहते हैं लेकिन गरीबों की जमा पूंजी वापस नहीं मिलती. लेकिन फिर भी सुरेंद्र का मन रखने के लिए मैंने कह दिया की गोपाल गर्ग से बात करूंगा.

सुरेंद्र पिछले पांच-छ: सालों से हमारे कपड़े प्रेस करता है. उसका घर हमारी कॉलोनी से खासा दूर पड़ता है. वह अक्सर रात दस-साढ़े दस बजे साइकिल पर कपड़ों की गठरी लिए आता है. श्रीमतीजी तो उसे देखते ही बरस पड़ती है -

'ये आने का टाइम है !'

'माफ करना बीबीजी, आते-आते लेट हो जाता हूं. अगली बार जल्दी आ जाऊंगा.'

उसका अगली बार कभी जल्दी नहीं आता. बीस-बाईस साल का यह लड़का अपना काम पूरी जिम्मेदारी से करता है. बस एक गंदी आदत है कि वह प्रेस किए हुए कपड़े कई दिनों बाद लेकर आता है. श्रीमती जी लगभग रोज बड़बड़ाती है.

'सुरेंद्र आज भी नहीं आया, अबकी बार उसे कपड़े नहीं दूंगी.'

कल भी वह देरी से आया था. कपड़े देने और श्रीमतीजी की झिड़की खाने के बाद उसने मुझसे पूछा

'भाईजी, गोपाल गर्ग से बात हुई क्या ?'

ओ, हां ! हुई थी. उसने कहा है कि वह कोशिश कर रहा है. जल्दी ही करवा देगा.' मैंने उसे डिप्लोमेटिक उत्तर देते हुए संतुष्ट करने की कोशिश की.

'पर भाई जी पन्द्रह दिन बाद मेरी भांजी की शादी है. मां की आंखों की आप्रेशन भी करवाना है. एक बार आप कुछ मदद कर दो ना ! गोपाल के पैसे आते ही आप ले लेना.'

'अरे नहीं यार, अभी बहुत दिक्कत है. मैं नहीं कर पाऊंगा.' मैंने पीछा छुड़ाना चाहा.

'देख लो भाई जी, थोड़े बहुत ही करा देना. मेरा काम निकल जाएगा.'

'पक्का नहीं कह सकता. कोशिश करूंगा.'

घर से प्रेस के लिए मिले कपड़ों की गठरी उठाकर वह चला गया. मैं उसे जाते हुए देखकर सोचता रहा. इसने कितनी मेहनत से पाई-पाई कर पैसा जोड़ा होगा. इसके खून पसीने की कमाई को फाइनेंस कंपनी लेकर फरार हो गई है. गोपाल गर्ग को तो कलेक्शन के समय ही अपना कमीशन मिल गया होगा. अब वह बात पर कान क्यों धरेगा ? और यह बेचारा इस उम्मीद पर बैठा है कि वह इसकी रकम ब्याज सहित लौटा देगा. मेरे डिप्लोमेटिक झूठ ने भी तो इसकी उम्मीद बढ़ाई ही होगी. वाकई कभी-कभी सच इतना बेबस हो जाता है कि उसके पास झूठ का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं रहता.

जीवन की आपाधापी में बात आई-गई हो गई. पांच-सात दिनों बाद श्रीमती जी का पुराना राग कानों में पड़ा-

'सुरेंद्र नहीं आया. कमबख्त, मेरा फोन भी नहीं उठाता. आप फोन करो ना उसे !'

' आ जाएगा. थोड़ी तो सब्र रखा करो.' मैंने खीझते हुए कहा.

'अच्छा, मुझे क्या ! मैंने तो उसे आपके धुले हुए सारे कपड़े दे दिए थे. अब मंगवाते रहना.' श्रीमती जी तुनतुनाई.

'कोई बात नहीं. कल देखेंगे.' मैंने अपनी व्यस्तता देखते हुए बात टाल दी.

अगला दिन भी निकल गया. सुरेंद्र का कोई अता पता नहीं. श्रीमती जी ने तो बात मुझ पर डाल ही दी थी. आज संकट उठ खड़ा हुआ. अलमारी में वाकई मेरे पहनने के कपड़े नहीं थे. बड़ा गुस्सा आया.

' क्या तुमने सुरेंद्र को सारे कपड़े एक साथ दे दिए थे ? पहनने के लिए एक भी ढंग पैंट शर्ट नहीं है.' मैंने सवाल दागा.

'मैंने तो पहले ही कहा था. गुरूवार के अगले दिन आपके लगभग सारे कपड़े धोए थे. दस दिन हो गए. वह नहीं आया तो मैं क्या करूं ! चार दिनों से आपको कह रही हूं.' श्रीमती जी ने अपनी सफाई पेश की.

मैंने सुरेंद्र का फोन मिलाया तो नंबर स्विच ऑफ आ रहा था. बड़ा गुस्सा आया लेकिन कोई चारा नहीं था. पिछले दिनों भाई से विवाद के चलते उसने घर भी बदल लिया था जो लाइनपार की किसी बस्ती में था. कई दिन पहले छोड़ दिए गए एक पुराने पेंट शर्ट को पहनकर ऑफिस पहुंचा तो सहकर्मियों के व्यंग बाण सहने पड़े. जितने मुंह उतनी बात. गालिब ने सही कहा था यहां कपड़े इंसान की औकात तय करते हैं. खैर, ऑफिस की व्यस्तता में सब बातें गौण हो गई.

दोपहर करीब तीन बजे सुरेंद्र का फोन आया. नंबर देख कर एक बार तो झल्लाहट हुई.

'हैलो'

'क्या यार सुरेंद्र ! तुम आदमी हो क्या. आज दस दिन हो गए. फोन भी नहीं उठाते हो' मेरा स्वर तल्ख था.

' गलती हो गई भाई साहब. आपसे एक जरूरी बात करनी है.'

' क्या बात करोगे तुम. मिसेज ठीक ही कहती है तुम भरोसे लायक ही नहीं हो.'

' सुनो तो सही भाई साहब. एक गलती हो गई है.'

' अब क्या हुआ ?'

'बात ये है कि आपके कपड़े जल गए हैं. मैं बहुत शर्मिंदा हूं. आप जैसे कहोगे वैसे कर लेंगे.'

'हैं..... कौन सा कपड़ा जल गया ? पैंट या शर्ट ?

' भाई जी, सारे कपड़े ही जल गए.' उसके स्वर में उदासी थी.

'अरे, ऐसे क्या हुआ ! कुछ बताओगे भी ?'

'भाई साहब, मैंने कल शाम को आपके सारे कपड़े प्रेस कर गठरी बांध दी थी. जब मैं कोयला लाने के लिए बाजार गया हुआ था तो पीछे से बड़ा भाई आया. शराब के नशे में वह भात की बात को लेकर मां से झगड़ा करने लगा. गुस्से में आकर उसने आप वाले कपड़ों की गठरी पर दारू छिड़क कर आग लगा दी. मां चिल्लाती रह गई. मैं घर पहुंचा तब तक कपड़े जलकर राख हो चुके थे. मुझे देखकर वह भाग गया.'

मैं सन्न रह गया. श्रीमती जी ठीक ही कहती थी कि मैं उसे टोकता क्यों नहीं. मुझे लगा कि आज मैं उसी लापरवाही का खामियाजा भुगत रहा हूं.

'अरे......, तो अब ?' मैंने उससे नाराजगी से पूछा.

' आप चिंता मत करो भाई साहब. आपका सारा नुकसान चुका दूंगा. बस थोड़ी मोहलत दे दीजिए.' उसने ठंडे स्वर में कहा.

' अरे क्या चुका देगा ! पता है, मेरे सारे कपड़े थे उसमें.'

' कोई ना भाई जी आप कीमत बता देना. मैं जैसे तैसे चुका दूंगा.'

मुझे लगा कैसा बेवकूफ आदमी है. मैंने हां हूं करते हुए फोन काट दिया. मेरा मन गठरी में जले हुए कपड़ों की कीमत का अंदाजा लगाने लगा. मेरे अलावा बच्चों के कपड़े भी होंगे. श्रीमती जी ने भी अपनी एक आध साड़ी तो यकीनन दी ही होगी. बैठे-बिठाए नुकसान गले में आ गया.

तभी मेरे सामने सुरेंद्र का मजबूरियों भरा चेहरा घूमने लगा. उसे तो अपनी भांजी का भात भी भरना है. अपनी मां का मोतियाबिंद ऑपरेशन करवाना है. गोपाल गर्ग की फाइनेंस कंपनी में बयालीस हजार रूपये पहले ही डुबो चुका है. मुझसे तो वह मदद मांग रहा था. ऐसी हालत में वह मेरे कर्जे को कैसे चुकाएगा. बैठे-बिठाए नुकसान तो उसे हुआ है.

फिर भी उसकी हिम्मत को दाद देता हूं. उसने मेरे जले हुए कपड़ों की कीमत चुकाने की बात कही है. अब आप ही राय दें कि मैं उससे कितने पैसे मांगूं !

डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'


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