- पालिका बैठक में उघड़े पार्षदों के नये पोत
(आंखों देखी, कानों सुनी)
- डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
प्रधान, ओ सूरतगढ़ है !
खबरनामा
प्रधान, ओ सूरतगढ़ है !
सूरतगढ़, 17 जून । निर्जला एकादशी के पहले दिन अपेक्स विमेंस क्लब द्वारा मीठे शरबत की छबील लगाई गई। राजकीय चिकित्सालय के सामने आयोजित इस कार्यक्रम में क्लब के सदस्यों द्वारा राहगीरों को रूहअफजा और दूध मिश्रित मीठा शरबत पिलाया गया। बस स्टैंड से बाजार की तरफ आ रहे सैकड़ो राहगीरों ने तपती धूप के बीच इस छबील पर ठंडा शरबत पीकर प्यास बुझाई । इस अवसर पर अपेक्स क्लब के सदस्यों के अलावा शहर के गणमान्य नागरिक भी उपस्थित हुए ।
गुलेरी की गलियों से गुज़रते हुए...
(समीक्षा-प्रेमलता सोनी)
"चैटिंग !"
"ओ हो, वा अठै कद पूगी ?"...
‘गरागाप’ कहाणी सूं ही लेखक आपरो मकसद पाठकां रै सांम्ही राख दियो। सबदां रा इसा बाण चलाया है कहाणीकार, कै सीधा जाय'र पाठकां रै दिमाग में धंस जावै। आ कहाणी पढ्या पाछै हिवड़ो याद करण लाग जासी कै कद भायलां-भायली सागै हथाई होयी। सगळी खोज-खबर बातां-चीतां तो फेसबुक अर व्हाट्सएप ग्रुप में ही होयी। लेखक परभातियै सुपनै सूं सगळां नै चेतावै "सबदां री बैकुंठी त्यार है !‘’
नौ कहाणियां रै इण झूमकै में सगळी कहाणियां मांय लेखक रै कैवण रो ढंग इस्यो सांतरो कै कहाणी कठैई सुस्त कोनी पड़ै। कहाणी रो अनूठो विषय अर सागै ही किरदार इसा लागै जाणै घणी जाण-पिछांण हुवै। कहाणी पढ़तां थकां लागै जाणै कहाणी रा किरदार आंख्यां सांम्ही आय'र खड़ा हो जावै अर हाथ पकड़ियां ठिरड़'र ले जावै आप नै कहाणी रै मांय !
"संकै री सींव" अेक छोटै सै गांव री कहाणी, जठै त्यारी चाल रही ही कंडोम फैक्ट्री री, इत्तौ घणो हुवै गांव में चरचा तांई। अेक कहाणी, पण अंत दो गांव रै बिगसाव सागै लुगाई जात रा बदळियोड़ा तेवर।
'पांख्यां लिख्या ओळमां' कहाणी में लेखक दो जमानां नै अेक सागै राख'र अेक अनूठो प्रेम दरसावै। तीस-पैंतीस बरस पुराणों संदेस ऑडियो कैसट में रिकॉर्ड हुयोड़ो फेसबुक अर इंस्टाग्राम सूं होय'र धणी तंई पूग्यो।
Premlata Soni |
‘मा कूड़ बोलै!’ कहाणी सूं लेखक मां ने ओळमों देवै, आपरै बखत री बातां बतावती मां सगळां नै साव कूड़ बोलती दीसै। मां री बातां भेजै नै कठै जचै ? पाठक इण कहाणी सूं खुद नै जुड़तौ मैसूस करै ।
"कुमांणस" कहाणी अेक मिस्त्री रो दरद बतावै के किंयां चूनै-ईंट-भाठै रो काम करातां थकां धणी रो काळजो भाठै सरीखो होय जावै।
रोडवेज बस मांय उपराथळी सवारियां, थापा-मुक्की..झींटम-झींटा..गाळियां रा गुचळकां सागै हरेक बात री खाल उतारतो लेखक, जाणै कहाणी नीं कविता रौ करतब दिखावतो हुवै। लेखक सबदां रा जोरदार चबड़का मारतो बोलै, "जावण द्यो ,के पड़्यो है !"
हरिमोहन सारस्वत 'रूंख' रो औ अेक न्यारी भांत रौ जबरो कहाणी संग्रै है, जिण री कहाणियां राजस्थानी पाठकां में तो कोतुहळ जगावै ई, हिन्दी अर दूजी भारतीय भासावां में ई राजस्थानी कहाणी री साख नै बधावै। आ बात पण लागै के जे 'पांख्यां लिख्या ओळमां', री अै कहाणियां हिन्दी अर दूजी केई भासावां में अनुवाद रै जरियै बडै पाठक वरग तांई पूगै तो निस्चै ई कहाणी रा पाठकां नै राजस्थानी कहाणी री मिठास अर अनूठैपण री आछी पिछांण हो सकै।
-प्रेमलता सोनी
( समीक्षक हिंदी और राजस्थानी की नवोदित उपन्यासकार और बेहतरीन कथाकार हैं)
* पांख्यां लिख्या ओळमां (कहाणी संग्रह) – डाॅ हरिमोहन सारस्वत
* सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर संस्करण 2023, पृष्ठ --- 80
* मूल्य --- ₹250
आज लगभग बीस बरस बाद एक बार फिर हाथ घड़ी पहनी है ! सोचा, इस घड़ी के बहाने ही सही, पगडंडियों के दिनों की कुछ यादों को संजोया जाए।
दरअसल, कुछ रोज पहले अचानक एक ख्याल उमड़ा था, क्यों ना ब्लैक स्ट्रेप वाली हाथ घड़ी पहनी जाए ! ख्याल तो ख्याल था, जिस गति से आया था उससे दुगुनी चाल में लौट गया। दो-तीन दिन से तबियत कुछ नासाज़ थी। घर पर थर्मामीटर तलाशा तो पता चला उसकी बैटरी डाउन है। बैटरी चेंज करवाने के लिए जनसंघर्ष के साथी राजवीर भाजी की दुकान पर पहुंचा। वहां घड़ियों को देख एक बार फिर पुराने ख्याल ने दस्तक दी।
बस भाई राजवीर ने तुरंत अपनी पसंद की हाथ घड़ी पहना दी। स्मार्ट वॉच के जमाने में एचएमटी की सुइयों वाली घड़ी ! सच पूछिए तो स्मार्ट वॉच मुझे कभी पसंद ही नहीं आयी। मेरा दिल तो हमेशा टिक-टिक करने वाली सुइयों वाली घड़ी पर ही रीझता है। फिर एचएमटी से तो स्वदेशी वाली फीलिंग भी आनी है !
1982-83 का वक्त रहा होगा। उन दिनों हाथ घड़ी का बड़ा क्रेज हुआ करता था। अपने-अपने रुतबे के हिसाब से लोग घड़ी पहना करते थे। मैं हनुमानगढ़ के रेलवे स्टेशन पर स्थित सरकारी स्कूल में सातवीं जमात का विद्यार्थी था। स्कूल में कुछ बच्चे घड़ियां पहन कर आते थे, उन्हें देखकर मेरा भी मन घड़ी पहनने को ललचाया करता। उन्हीं दिनों पापाजी एचएमटी की नई घड़ी ले आए थे, सो उनकी सफेद डायल वाली पुरानी वेस्टर्न वॉच मेरी लालसा और अकड़ की तुष्टि करने के लिए पर्याप्त थी। संयोगवश मेरे जिगरी दोस्त संजय गुप्ता के पास भी अपने दादाजी से मिली वैसे ही घड़ी थी। हम दोनों उन एंटीक घड़ियों को पहनकर बेवजह इतराया करते थे। उस घड़ी में नियमित रूप से चाबी भरनी पड़ती थी। काले स्ट्रेप में गोल डायल मेरी नन्ही कलाई पर क्या खूब फबता था ! उन दिनों जब राह चलता कोई समय पूछता तो एक अनूठी अनुभूति का एहसास होता। वह घड़ी भले ही पूरा दिन टिक-टिक करती थी लेकिन बकौल मां के, उन दिनों मेरे पैर घर में टिकते ही नहीं थे। अन्नाराम 'सुदामा' के शब्दों में कहूं तो गधा पच्चीसी उम्र थी वह !
फिर 1986 में मैट्रिक परीक्षा में जब स्कूल टॉप किया तो वादे के मुताबिक पापाजी ने गुरुद्वारा गली स्थित प्रहलाद जी मोदी की दुकान से गोल्डन कलर की एचएमटी 'जयंत' घड़ी दिलवाई थी। उसमें सुनहरी चैन लगी थी। जाने कितने दिन तक मैं उस नयी घड़ी के नशे में झूमता फिरा था। भटनेर फोर्ट स्कूल से नेहरू मेमोरियल कॉलेज तक के सफ़र में मेरे पास वही घड़ी थी। यादों भरा बेहद शानदार वक्त बिताने वाली उस घड़ी के साथ मैंने सफलता के कई आयाम छुए थे।
उसके बाद तीसरी घड़ी सौगात के रूप में ससुराल से मिली। विवाहोत्सव में समठणी के वक्त टाइटन की खूबसूरत सुनहरी घड़ी पहनाई गई जिसमें बैटरी लगी थी। यानी चाबी भरने का झंझट ही नहीं ! उसे पहनते ही जीवन बड़ी तेजी से दौड़ने लगा था। जाने कितने दिनों तक उसे पहना होगा याद ही नहीं ! हां, इतना जरूर याद है कि 2003 के आसपास हनुमानगढ़ में मोबाइल फोन आने के बाद से घड़ी की जरूरत ही महसूस नहीं हुई।
आज एक बार फिर जब हाथ में घड़ी पहनी है तो गुजरे वक्त का शुक्रिया अदा करने को जी चाहता है ! प्रमोद तिवारी की कविता की कुछ पंक्तियां याद आती है-
याद बहुत आते हैं गुड्डे-गुड़ियों वाले दिन
दस पैसे में दो चूरण की पूड़ियों वाले दिन
बात-बात पर छूट रही फुलझडियों वाले दिन
कॉलर खड़े किए हाथों में घड़ियों वाले दिन....!
-रूंख
- पालिका बैठक में उघड़े पार्षदों के नये पोत (आंखों देखी, कानों सुनी) - डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख' पालिका एजेंडे के आइटम नंबर...