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सीमांत क्षेत्र का भूमि आंदोलन-1970(4)

 

आंदोलन के बावजूद बड़ी मछलियां निगल गई हजारों बीघा जमीनें

लोकतंत्र का एक कलुषित चेहरा यह भी होता है कि यहां कमजोर और दबे कुचले लोगों को पगोथिये (सीढियां) बनाकर चतुर चालाक कारीगर ऊपर पहुंच जाते हैं. सीमांत क्षेत्र का भूमि आंदोलन 1969-70 भी इससे अछूता नहीं रहा. प्रदेश सरकार ने जनाक्रोश और उग्र आंदोलन के चलते राजस्थान नहर से सिंचित होने वाली अनूपगढ़ घड़साना क्षेत्र की सरकारी जमीनों की नीलामी को रद्द तो कर दिया लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से होने वाली जमीनों की सौदेबाजी पर लगाम नहीं लगा सकी. लगाती भी कैसे ! आखिर, भूमाफिया किस्म के सफेदपोश लोग तो सरकार के भीतर और बाहर पैर पसार कर बैठे थे.

सन 1951 से लेकर 1967 तक राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में पांच लाख साठ हजार भूमिहीन किसानों को पैंतीस लाख एकड़ भूमि आवंटित की गई थी. इसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के दो लाख तीस हजार काश्तकार शामिल थे. देखने और पढ़ने में तो ये आंकड़े बहुत प्रभावी लगते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि इन भूमिहीनों में से कितने लोग इस ढंग से आवंटित भूमि पर काबिज हो सके ? वास्तविकता यह है कि आवंटित की गई अधिकांश जमीनों पर समर्थ और प्रभावशाली लोगों के कब्जे थे. उनसे पंगा कौन लेता. लिहाजा उन्होंने जमीन के आवंटियों से औने-पौने दामों में ये जमीनें अपने नाम हस्तांतरित करवा ली. नतीजा वही ढाक के तीन पात. आंदोलन काल के एक आलेख में एडवोकेट हरिशंकर गोयल लिखते हैं कि इन बेशकीमती जमीनों पर बड़े नेता और धनिक व्यापारी काबिज़ हैं. कुछ दलित लोगों की जमीनों पर तो खूंखार और शक्तिशाली लोगों ने जबरदस्ती कब्जे कर रखे हैं. उनके अनुसार गंगानगर जिले में किसानों के 3 वर्ग है. पहला संपन्न किसान, दूसरा तस्करी और व्यापार में लिप्त सफेदपोश व तीसरा साधारण किसान. उनकी मानें तो पहला और दूसरा वर्ग गंगानगर जिले ज्यादातर उपजाऊ भूमि पर कानूनन और गैरकानूनी ढंग से कब्जा जमा चुका है. गोयल यहीं बस नहीं करते बल्कि उस वक्त सत्ताधारी कांग्रेस के सांसदों, विधायकों, प्रधानों और कुछ मंत्रियों पर भी बाकायदा कब्जे करने और करवाने के आरोप लगाते हैं.

गौरतलब है कि आंदोलन में राजस्थान नहर से सिंचित होने वाली जिन जमीनों के सरकारी आवंटन की बात कही जा रही थी वह पाकिस्तान सीमा से लगता हुआ क्षेत्र है. वहां सीमा पर तस्करी में जुटे भूमाफियाओं ने भी सत्ताधारी नेताओं के साथ मिलकर सैंकड़ों बीघा जमीनों पर कब्जे किए. सरकार द्वारा की जाने वाली भूमि नीलामी में दरों को नियंत्रित करने के रास्ते भी इन लोगों ने पहले से निकाल रखे थे. भूमि चाहे नीलामी से आए या किसी दलित को होने वाले आवंटन से, हर हाल में जमीन उन्हीं की होनी थी, जिनके हाथ में लाठी थी. प्रत्यक्षत: दिखाई दे रहे इस पक्षपात पूर्ण भ्रष्टाचार के आचरण ने ही आम जनता में सरकार और उनके समर्थकों के विरुद्ध जनमानस तैयार किया जिसकी परिणति बड़े आंदोलन के रूप में हुई.

आंदोलन समाप्ति के बाद सरकार द्वारा विभिन्न आरक्षित श्रेणियों में इन जमीनों का आवंटन शुरू किया गया. अधिकांश आवंटन दस्तावेजों में जमीनों के स्वामी भूमिहीन और छोटे किसान नजर आते थे लेकिन भू माफिया और कुछ प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों की मिलीभगत के चलते अधिकांश बेशकीमती जमीनें देखते ही देखते प्रभावशाली लोगों के स्वामित्व में चली गई. विकास की इस बहती गंगा में सत्ता और विपक्ष के बड़े नेताओं सहित अनेक अधिकारियों और पटवारियों ने वारे न्यारे किए. आज भी इस क्षेत्र में ऐसे सफेदपोशों की हजारों बीघा जमीनें हैं जो सोना उगलती हैं.

लेकिन इस सब के बावजूद यह भी उतना ही सच है कि इस ऐतिहासिक भूमि आंदोलन की बदौलत ही प्रदेश के लाखों छोटे किसानों को भी जमींदार बनने का हक प्राप्त हुआ. आंदोलन के 50 साल बाद आज ऐसे दबे कुचले काश्तकारों की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रगति को देखकर उस वक्त के आंदोलनकारियों और जमीन से जुड़े नेताओं के प्रति स्वत: ही श्रद्धा का भाव उमड़ आता है. 
कामरेड श्योपत सिंह, कामरेड योगेंद्र नाथ पांडा, प्रो. केदार, राम चंद्र आर्य, कुंभाराम आर्य, सेवा सिंह, कॉमरेड हेतराम बेनीवाल, गुरदयाल सिंह, महावीर प्रसाद कंदोई सरीखे नेताओं में जनता के हक- हुक़ूक़ के लिए संघर्ष का जो माद्दा था वो किसी भी दृष्टि में आजादी के आंदोलन से कमतर नहीं था. वस्तुत: सत्ता के विरुद्ध यह हक की लड़ाई ही थी जिसमें गांव-गांव से गिरफ्तार हो रहे हजारों लोगों को ग्रामीण महिलाओं ने संघर्ष गीत गाकर खुशी खुशी पुलिस के साथ विदा किया था. यही कारण है कि सीमांत क्षेत्र के आंदोलनों की जब कहीं बात चलती है लोग बड़े गर्व के साथ इन नेताओं को याद करते हैं.

-रूंख

( जानकारी का स्रोत - तत्कालीन समाचार पत्रों की रिपोर्ट, प्रत्यक्षदर्शियों के वक्तव्य, सत्याग्रह स्मारिका, आंदोलन के संबंध में लिखे गए लेख और पुलिस रिपोर्ट)

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