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Thursday 7 May 2020

गोगे माण्डने में छिपा है सृजन का सुख


'गोगा मांडो हो के रे.... !' बालू रेत की धरती पर जब कोई राहगीर रेत का संसार रचते बच्चों से पूछता है तो वे मुस्कुरा देते हैं. थार में बारिश के दिनों में सोनल धोरों पर 'गोगे माण्डना' बाल संस्कारों के साथ-साथ प्राचीन रचनात्मक परम्परा मानी जाती है. गीली बालू रेत पर सृजन करता बाल मन जब अपने हाथों से रचे हुए घर को थपथपा कर आकार देता है तब लगता है साक्षात विश्वकर्मा धरती पर उतर आए हों. राजस्थानी लोक संस्कृति में गोगा शब्द ''थान' का भावार्थ देता है जो घर में बने देवस्थान का पर्यायवाची है. उत्तरी पश्चिमी राजस्थान में लोक देवता गोगा पीर के थान अधिकांश गांवों में देखे जा सकते हैं.

गोगे माण्डने की यह परंपरा थार में शुभ मानी जाती है क्योंकि यह वर्षा से उपजे आनंद और खुशहाली का प्रतीक है.

रेगिस्तान में शीतकाल की बारिश को मावठ के नाम से जाना जाता है. यह बारिश किसानों के लिए अत्यंत लाभदायक होती है. उनकी वर्षा आधारित फसलें इस समय पानी के रूप में अमृतपान करती हैं. ऐसी बारिश के बाद बच्चे घर के दालान में या फिर अपनी ढाणी के आसपास पसरे धोरों में रेत के घर बनाते हैं जिन्हें गोगा कहा जाता है. बात ही बात में घर और गली के बच्चों द्वारा रेत पर पूरा गांव बना दिया जाता है और उसे अनेक प्रकार की साज-सज्जा से संवारा जाता है. बच्चे अपने सधे हुए हाथों से गीली बालू रेत के अनेक घर, आंगन, मंदिर, कुएं बावड़ी और चौपाल तक बना देते हैं. वे अपने पैर के पंजे को गीली रेत से ढक देते हैं और फिर उसे थपथपा कर मंदिर के गुंबद का आकार दे देते हैं. कभी-कभी तो कोरी रेत का यह गुंबद तीन-साढ़े तीन फुट तक ऊंचा बना दिया जाता हैं. उसके बाद धीरे से पंजे को निकाल लिया जाता है. इस प्रकार बालू रेत के बनाए गए 'गोगे' में प्रवेश द्वार तैयार हो जाता है. इसी ढंग से बच्चों द्वारा कमरे और झोपड़ियां भी बनाई जाती हैं जिन्हें थार में उपलब्ध वनस्पति की पत्तियों और फूलों से सजा दिया जाता है. बबूल के पीले फूल इन गोगों की शोभा बढ़ा देते हैं. जब कई बच्चे मिलकर गोगो का बना देते हैं तो वह उसकी सुरक्षा के लिए चारों तरफ किले जैसी चारदीवारी भी खड़ी कर देते हैं. गोगे बनने के बाद बच्चों का उल्लास देखने लायक होता है. हो भी क्यों ना ! घंटों की कारीगरी के बाद वे अपने सपनों का गांव खड़ा करने में सफल होते हैं. इसी बीच आपसी बाल-विवाद के चलते कोई उच्चंखृल बालक अपने पैर से गोगों को गिरा देता है तो उसे बनाने वाले बच्चों, खासतौर से लड़कियों में रुलाई फूट पड़ती है. सपनों के बिखरने का एहसास रचनात्मकता से जुड़े इन बच्चों को समय से पहले ही हो जाता है जिससे उनकी संवेदनशीलता बढ़ती है. यही गोगे मांडने की सच्ची सीख है.

सूचना क्रांति के युग में रचाव की इन परंपराओं से बच्चे विमुख होते जा रहे हैं जबकि मिट्टी में सृजन का यह आनंद अपने आप में अनूठा है. गोगे माण्डने का सौभाग्य सिर्फ थार के बच्चों को ही मिला है. आप कहेंगे ऐसा क्यों ? तो जनाब, सोने जैसी चमकती रेत सिर्फ थार में ही नसीब है. लंदन, पेरिस, दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ के बच्चे इस सृजन आनंद सिर्फ थार में आकर ही ले सकते हैं. यदि आपने गोगे मांडने का आनंद लिया है तो आप भाग्यशाली हैं. और यदि नहीं, तो फिर पधारिए ना थार में...!
-रूंख

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