(शिव बटालवी की 'लूणा' का राजस्थानी अनुवाद)
'लूणा' (महाकाव्य नाटक) पंजाबी के सिरमौर कवि शिव कुमार बटालवी की एक अनूठी काव्य कृति है जिसने साहित्य अकादमी में एक नया इतिहास रच दिया था. 1967 में शिव को जब इस सृजन के लिए अकादमी पुरस्कार दिया गया तब उनकी आयु मात्र 30 वर्ष की थी. सबसे कम उम्र में अकादमी सम्मान पाने का रिकॉर्ड शिव के खाते में दर्ज है, जिसे कोई नहीं तोड़ पाया है.
इस कृति में शिव ने पूरण भगत की प्रसिद्ध लोककथा की खलनायिका लूणा के चरित्र को नई दृष्टि से प्रस्तुत किया था. कथा में एक प्रौढ़वय राजा सलवान निम्न जाति की नवयौवना लूणा से विवाह रचा लेता है. विवाह से नाखुश लूणा, सलवान के युवा पुत्र पुरण से प्रणय निवेदन करती है जिसे पूरण ठुकरा देता है. इस अपमान से ग्रसित लूणा पूरण पर झूठे अनैतिक आरोप लगाती है और सलवान के हाथों उसके पुत्र को मरवा देती है. यह कृति एक स्त्री की मनगत और उसकी बेबसी की गहरी काव्यात्मक प्रस्तुति की बदौलत शिव को अपने समकालीन रचनाकारों से अलग मुकाम देती है.
इस कृति का राजस्थानी अनुवाद करना मेरे लिए पीड़ा के क्षणों में प्रार्थना करने जैसा रहा है. कई बार तो ऐसा महसूस हुआ मानो शिव ने अर्ध रात्रि में खुद आकर जटिल पंक्तियों के शब्द और भाव मेरे सिरहाने रख दिए जिन्हें मैंने हुबहू पिरो दिया है. इस अनुवाद प्रक्रिया के दौरान आध्यात्मिकता और रहस्यवाद का गहन अनुभव हुआ है जिसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है. दरअसल, 'बिरहा के सुल्तान' के नाम से मशहूर शिव नितांत अनछुई उपमाओं का प्रयोग करते हैं. ऐसी उपमाएं और अनूठा शिल्प साधारणतया बहुत कम रचनाकारों के पास देखने को मिलता है. शिव की खासियत यह है कि वे अपने रचना कर्म में हर बार नया बिंब लेकर आते हैं और कहीं भी दोहराव नहीं करते. पंजाबी भाषा के गूढतम शब्दों का चयन और पात्रों की संवेदना को चरम पर ले जाने की कला शिव बखुबी जानते हैं. शायद यही कारण है कि शिव बटालवी के सृजन की ख्याति सात समंदर पार तक गूंजती है.
साहित्य अकादमी से प्रकाशित हो रही इस अनुदित कृति का कवर प्रूफ आज अनुमोदन के लिए प्राप्त हुआ है. रंगों के त्योहार पर मिले इस विशेष उपहार के लिए साहित्य अकादमी का शुक्रिया. विशेष स्नेह रखने वाले अग्रज श्री मधु जी आचार्य, डॉ. मंगत जी बादल, दिल्ली से मखमली आवाज के शायर भाई प्रदीप 'तरकश', मानसा के श्री सुरेंद्र जी बांसल, आकाशवाणी उद्घोषक राजेश जी चड्ढा, आशाजी शर्मा, अनुज राज बिजारणियां और डॉ. मदन लड्ढा का विशेष आभार, उनके मार्गदर्शन और सहयोग के बिना यह रामसेतु कार्य संभव नहीं था. यारियां जिंदाबाद !
डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'
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