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Wednesday 28 December 2022

श्श...लाइब्रेरी रो रही है !

 


सही पढ़ा है आपने ! सच में 'लाईब्रेरी' रो रही है। अंधी दौड़ में किसे पड़ी है, जो घड़ी भर रूके, उसे चुप करवाए। पर जरा सोचिए, अगर कोई दबे पांव आकर आपके कंठ मोस दे और घर पर आधिपत्य जमा ले तो कैसा लगेगा ?

दरअसल, 'लाइब्रेरी' के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। व्यावसायिकता के दौर में बाज़ार ने दबे पांव आकर न सिर्फ इस शब्द के अर्थ बदल दिए हैं बल्कि एक गरिमापूर्ण स्थान से लाकर उसे गली-मोहल्लों में टपोरी की तरह खड़ा कर दिया है। ऐसा मानवीय व्यवहार देख शायद शब्द भी अपनी अस्मिता पर रोते होंगे।

ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब शब्दकोशों के खजाने में 'लाइब्रेरी' शब्द ज्ञान का भंडार और विद्वता सहेजने का केन्द्र हुआ करता था। दुनिया के हर देश में 'लाइब्रेरी' को अपनी महत्ता के चलते अद्भुत सम्मान प्राप्त था। किताबों का यह संसार इतना अनूठा था कि वहां दुनियाभर के ज्ञान पिपासु लोग बैठ कर शब्द साधना करते थे। इन पुस्तकालयों में जाने कितने नए आविष्कारों का जन्म हुआ, कितने सपने पल्लवित हुए, साकार हुए, वैश्विक विकास की कितनी ही नवीन संभावनाएं इन्हीं किताबों के संसार में गढ़ी गई। नालंदा से तक्षशिला और हावर्ड से कैंब्रिज के बीच फैले समृद्ध पुस्तकालयों की महिमा चहुंओर चर्चित थी।


लेकिन आज...। इस गंभीर शब्द की वो दुर्गति हुई है कि मत पूछिए !गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह उगी इन तथाकथित लाइब्रेरियों की हालत देख शब्द रोते हैं। बाजारवाद के चलते आज की लाइब्रेरी से पुस्तकें गायब हो चुकी हैं, उनका स्थान झूठे सपने दिखाने वाली गाइड्स और कॉपी किये गए नोट्स ने ले लिया है। उन गुरू घंटालों की क्या कहिए, जिन्होंने निजी स्वार्थों के चलते 'लाइब्रेरी' के अर्थ ही बदलवा दिए। ऐसे गुरूओं से क्या उम्मीद की जा सकती है जिन्हें 'लाइब्रेरी' और 'वाचनालय' में फर्क करना तक नहीं आता ! शिक्षाविद् कहलाने के शौकीन, ये जगद्गुरु बड़ी शान से अपने चेलों की 'लाइब्रेरी' का उद्घाटन करते हैं।उधार लिए शब्दों में व्यक्त अपने उद्बोधन में लाइब्रेरी की महत्ता को बयान करते हैं और सरकारी नौकरी की सिद्धि देने के बड़े-बड़े दावे करते हैं। अपने हित साधते यही गुरू सीधे-साधे विद्यार्थियों को एकांत में अध्ययन करने की बजाय इन लाइब्रेरियों में जाने के लिए प्रेरित करते हैं।

गली-मोहल्लों के नुक्कड़ पर खुली इन लाइब्रेरीज का पुस्तकों से दूर-दूर तक संबंध नहीं है। यहां सिर्फ बैठकर पढ़ने की सुविधा रहती है। ज्यादा हुआ तो वाईफाई और ड्रिंकिंग वॉटर...। भीड़ में एकांत तलाशते विद्यार्थी इन लाइब्रेरीज में अपने नोट्स और बुक्स लेकर पहुंचते हैं। वहां बैठने के लिए वे संचालकों को घंटों के हिसाब से भुगतान करते हैं। इन लाइब्रेरीज में भी भीड़ भरी होती है लेकिन आज के दौर में कानों में ईयर-फोन लगाने से ही आदमी भीड़ में अकेला हो जाता है, खुद में खो जाता है।

जरा सोचिए क्या लाइब्रेरी शब्द इतना छोटा है कि महज 10X10 के कमरे में समा जाए ! क्या पढ़ने की एकांत सुविधा को लाइब्रेरी कहना उचित है ? जहां ज्ञानवर्धक पुस्तकों का अभाव हो उसे लाइब्रेरी कैसे कहा जा सकता है ? चंद रोजगारपरक पत्रिकाओं और दो-चार अखबारों से कोई स्थान लाइब्रेरी नहीं बन जाता, वहां तो किताबों की खुशबू होना लाजिमी है।

लेकिन जहां सरकारी नौकरी का तिलिस्म ज्ञान पिपासा और जिज्ञासा से बड़ा हो जाए, युवाओं के सुनहरे सपने कोचिंग की गाइड्स और पेपर लीक के जाल में उलझे हों, वहां पर लाइब्रेरी जैसे कितने ही संवेदनशील शब्द अपनी अस्मिता पर बुक्का फाड़कर रोएं नहीं तो क्या करें ! आभासी सपनों की भीड़ में उन्हें ढाढ़स बंधाने वाला कोई नहीं है।

-रूंख

2 comments:

  1. सत्य कहा। ये सिर्फ बिज़नेस है,, लाइब्रेरी नहीं

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  2. सच है इन्हें लाइब्रेरी के स्थान पर सीटिंग रूम कहना ज्यादा ठीक होगा । लाइब्रेरी के बदलते मायने व स्वरुप पर सटीक आलेख

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