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Tuesday 5 April 2022

धरा की जिजीविषा है घग्घर


 
( डॉ. मदन गोपाल लढ़ा के कविता संग्रह 'सुनो घग्घर' को बांचते हुए...)


नदिया धीरे धीरे बहना
नदिया, घाट घाट से कहना
मीठी मीठी है मेरी धार
खारा खारा सारा संसार...

कवि प्रमोद तिवारी की यह कविता अनायास ही अवचेतन मस्तिष्क से उभरने लगती है जब आप घग्घर नदी को संबोधित कविताएं बांच रहे होते हैं.

'दरअसल, घग्घर केवल नदी भर नहीं है, धरा की जिजीविषा है.' यह कहना है थार के संवेदनशील रचनाकार डॉ मदन गोपाल लढ़ा का, जिनका ताजा कविता संग्रह 'सुनो घग्घर' इन दिनों चर्चा में है.

विश्व साहित्य में नदियों को संबोधित करते हुए पहले भी अनेक कविताएं लिखी गई हैं लेकिन जब थार का कोई कवि मन किसी नदी के नाम से अपनी अभिव्यक्ति दे तो उसे जानने की ललक उठना स्वाभाविक है. रेगिस्तान और नदी के संबंध को चुंबक के समान ध्रुवों की स्थिति से बेहतर समझा जा सकता है जो एक दूसरे से विकर्षित होते हैं. प्यास भर पानी को सहेजता थार नदी के स्वप्न अवश्य देखता है लेकिन उसकी किस्मत में हमेशा मृग मरीचिका ही रहती है.


.. इसे मेरी खुशकिस्मती ही कहिए कि मेरा बचपन घग्घर के बहाव क्षेत्र में गुजरा है जहां भूपत भाटी द्वारा स्थापित भटनेर के ऐतिहासिक किले पर पत्थर फेंकते हुए हमने कभी अठखेलियां की थी. हिमालय पर्वत श्रंखला की शिवालिक पहाड़ियों से निकलने वाली इस नदी के बहाव क्षेत्र को नाली के नाम से जाना जाता है. अखंड भारत में यह नदी पटियाला, अंबाला के रास्ते बीकानेर रियासत के गंगानगर जिले में प्रवेश करती थी. उन दिनों सरहद पार तक इस नदी का बहाव क्षेत्र था जो अब धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर है.

लेकिन इस संग्रह में संकलित कविताओं में घग्गर एक बार फिर पुनर्जीवित हो उठी है. मरु मन के सपनों में हरदम बहती घग्गर इतिहास के साथ कदमताल करती नजर आती है. इन कविताओं की बानगी देखिए-

पानी के मिस 
लेकर जाती है सरहद पार 
कथाएं पुरखों की 
अतीत के उपन्यास 
निबंध गलतियों के 
और रिश्तो की कविताएं 
कितना कुछ कहना चाहती है कितना कुछ सुनना चाहती है 
सृजन धर्मी घग्गर !

कवि घग्गर को धीरज और संबल के प्रतीक रूप में देखता है. उसे नदी के लुप्त हुए स्वर में वर्तमान के साथ-साथ भूत और भविष्य के संकेत स्पष्ट नजर आते हैं. तभी तो वह कहता है-
जो कहना चाहते हो 
पुरखों से 
घग्गर को कहो 
वह पहुंचा देगी संदेश 
अनंत लोक में भी..

इस संग्रह की कविताओं को तीन भागों में बांटा गया है. 'बिसरी हुई तारीखें' फूल से झरी हुई पंखुड़ी और 'घर-बाहर' नामक इन खंडों में वर्तमान और विरासत को जोड़ने वाली रचनाएं हैं. कालीबंगा के चित्र शीर्षक से लिखी गई कविताएं भाव और शिल्प सौंदर्य की दृष्टि से बेहतरीन कही जा सकती हैं. 'दर्द की लिपि को बांचना/आसान कहां होता है भला..., या फिर, केवल घग्घर जानती है/ खुदाई में मिली काली चूड़ियों की पीर.. सरीखी पंक्तियां इन कविताओं को सार्थक वक्तव्य में बदल देती हैं.

राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग और बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह कविता संकलन संग्रहणीय है. उम्मीद की जानी चाहिए कि डॉ. लढ़ा की लेखनी से अभी और बेहतरीन कविताएं रची जानी है जो जीवन को और सुंदर बनाने का काम करेंगी.

- डॉ. हरिमोहन सारस्वत 'रूंख'

1 comment:

  1. बहुत बढ़िया समीक्षा। साधुवाद

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