(गुलेरी की गलियों से गुजरते हुए...)
गुरू बाजार की उसी दही वाली गली से गुलेरी का लहना आज भी गुजरता है. यह और बात है कि उसे सूबेदारनी होरां तो दूर, उसकी परछाई तक नहीं दिखती. दिखते तो आजकल बंबू कार्ट वाले भी नहीं है जिनके शोर से कभी अमृतसर की गलियां गूंजा करती थी. 'बचके भा'जी, 'हटो बाशा', परां हट नीं करमांवालिए' , 'हट जा पुत्तांवालिए', नीं जीणजोगिए' जैसे जुमले सूबेदारनी की परछांई की तरह गुम हो चुके हैं.
सौ बरस से अधिक हुए, यूं कहिए 'बंबू काट' वाले जमाने में, अमृतसर के गुरू बाजार मोहल्ले की जिस गली में लहना कभी दही लेने आया करता था वो गली आज बाजार की चमक से गुलज़ार है. बाजार में दही है, लस्सी है, तरह-तरह की कुल्फियां और मिल्क बादाम है लेकिन उनमें 'कुड़माई' वाले प्रेम की मिठास कहां ! आंख वाले अंधों के इस भयावह दौर में, जबकि आंखों की नमी थार के जोहड़ों सी सूखती जा रही है, लहने का दर्द बांचने की फुर्सत किसके पास है ! ये दीगर बात है कि मुझ सरीखे ढफोल़ आज भी लस्सी के बहाने लहने की छोटी सी प्रेमकथा की खुशबोई अमृतसर की गलियों में तलाशने पहुंच ही जाते हैं.
मजे की बात यह है कि ऐसे सिरफिरों को 'द सीक्रेट' की परिकल्पना अनायास ही उसी गली में लहना सिंह से मिलवा ही देती है. इसे संयोग कहिए कि दो दिन पूर्व अमृतसर साहित्यिक यात्रा के दौरान मैं लहनासिंह की स्मृतियों को तलाशता उसी गली में जा पहुंचा जिसकी कल्पना चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने हिंदी साहित्य की सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ कहानी 'उसने कहा था' में की थी. जलियांवाला बाग के दर्द को समेटने वाली इन गलियों पर भले ही आधुनिकता का मुल्लम्मा चढ गया हो लेकिन गुरू रामदास और गुरू अर्जुनदेव द्वारा स्थापित हरमंदिर साहब और गुरबाणी के प्रभाव से आज भी ये गलियां महकती हैं. आज भी यहां से गुजरने वाले हर आदमी का शीश गुरूओं की महिमा के समक्ष स्वत: ही नतमस्तक हो उठता है.
शाम के वक्त, उसी गली के नुक्कड़ की एक दुकान, जहां दही और लस्सी दोनों उपलब्ध थे, के बाहर पड़े मुड्ढे पर मैं बैठ गया. बाजार में खासा चहल-पहल थी. मैं 'उसने कहा था' की कड़ियों को जोड़ता हुआ, उस गली मे बिखरी गुलेरी की संवेदनाओं को फिर से सहेजने का यत्न कर रहा था. दही और बड़ियों की दुकान...चश्मा लगाए लाला... जूड़े पर सफेद रुमाल बांधे हुए लहना... वही बारह-तेरह साल की 'कुड़माई' वाली लड़की...धत...!
भावनाओं के उभार में दस मिनट बमुश्किल से गुजरे होंगे कि गली के दूसरे छोर पर मंथर गति से चलता हुआ एक शख्स दिखाई दिया. सिर पर पगड़ी, आंखों पर नज़र का चश्मा, कुर्ता पायजामा पहने यह आदमी जब थोड़ा नजदीक पहुंचा तो उसमें मुझे लहना सिंह का अक्स साफ-साफ दिखाई दिया जिसकी दाढ़ी सफेद पड़ चुकी थी. यकीनन वो मेरे बेतरतीब ख्यालों का लहना ही तो था. हाथ में स्टील की डोली लिए, मानो आज भी दही लेने जा रहा हो. तमाम दुनिया से बेखबर, अपनी नजरें झुकाए लहना हमेशा की तरह चुपचाप चल रहा था.
एकबारगी तो लगा कि मुझे उस शख्स से बात करनी चाहिए. फिर दिमाग में एक ख्याल उभरा, "नहीं, कहीं लहना दर्द के समंदर में डूबा प्रेम की प्रार्थना न बुदबुदा रहा हो." मैं जड़वत हुआ उसे सधे हुए कदमों से जाते हुए एकटक देखता रहा. फिर जैसे कोई ख्वाब हौले-हौले शून्य में विलीन हो गया हो...
दरअसल, किस्सों और यादों की खासियत यही होती है वे जे़हन में बार-बार उमड़ते हैं, ख्वाब बुनते हैं फिर पंखुड़ियों की तरह बिखर जाते हैं. हां, उनकी खुशबू हमें देर तक महकाती रहती है.
-रूंख
बहुत ही बढ़िया। कालजयी कहानियों के पात्र भी कालजयी
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