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Wednesday, 23 March 2022

उस मुड़़े हुए पन्ने से आगे...


(23 मार्च 1931)

भगत सिंह के नाम से ब्रिटिश सरकार ही नहीं डरती थी अपितु स्वतंत्र भारत की सरकारें भी आज तक  खौफ खा रही हैं.

इन सरकारों का डर देखिए कि भगतसिंह सरीखे राजनीतिक विचारक को देश के  विश्वविद्यालयी  पाठ्यक्रमों में पढ़ाया ही नहीं जाता. विडंबना यह है कि कुछ महाविद्यालयों के नाम तो शहीद-ए-आजम के नाम पर रख दिए गए हैं लेकिन वहां  के पाठ्यक्रमों में भी राजनीतिक विचारक के रूप में भगत सिंह को कोई स्थान नहीं मिल सका है.

 इसका सीधा सा कारण है शहीदे आजम का राजनीतिक चिंतन, जो हमें सिखाता है कि आजादी के मायने यह नहीं होते की सत्ता गोरे हाथों से काले हाथों में आ जाए. यह तो सत्ता का अंतरण हुआ. असली आजादी तो तब आएगी जब अन्न उपजाने वाला भूखा नहीं सोए, कपड़ा बुनने वाला नंगा न रहे और मकान बनाने वाला खुद बेघर न हो. दरअसल, भगतसिंह के विचारों से परम्परागत राजनीति की चूलें हिल सकती हैं और क्रांति का ज्वार उमड़ सकता है. इसी भय के कारण देश की सरकारें उनके नाम से कतराती हैं. हां, आप पार्टी ने जरूर एक नई शुरूआत की है.

मुझे मलाल यह है कि ब्रिटिश शासन की गुलामी करने वाले अनेक नौसिखियों को राजनीतिक विचारक बता कर न सिर्फ उनका महिमामंडन किया गया है बल्कि राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रमों में भी उन्हें बरसों से पढ़ाया जा रहा है. विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले प्रमुख भारतीय राजनीतिक विचारकों में मनु, कौटिल्य और शुक्र को छोड़ दें तो इन विचारकों में अधिकांशत: कांग्रेसी नेताओं के नाम शामिल हैं. इनमें भी सिर्फ तिलक को छोड़कर शेष सभी पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित थे या यूं कहा जा सकता है कि सभी 'इंग्लैंड रिटर्न' थे. जब से भाजपा सत्तासीन हुई है जनसंघ के कुछ नेताओं को भी राजनीतिक विचारक का दर्जा दिया गया है और उन्हें भी पाठ्यक्रमों में जोड़ दिया गया है.

सरकारें भले ही इन सबको पढ़ाएं लेकिन देश में भगतसिंह को राजनीतिक विचारक के रूप में न पढ़ाया जाना देश का दुर्भाग्य है. क्या क्रांति के डर से हम क्रांति-बीज बोना छोड़ दें ? 

नहीं, इसीलिए मैंने आज इक्कीस कॉलेज में राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों को राजनीतिक विचारक के रूप में भगत सिंह को पढ़ाया है. इंकलाब जिंदाबाद !

-डॉ. हरिमोहन सारस्वत  'रूंख'

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