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Saturday 31 December 2022

कब्जों की बिसात पर विकास की महागाथा


(अतिक्रमणों के बहाने...)


....इधर बड़े दिनों से शहर में 'अतिक्रमण हटाओ अभियान' का शोर है। दरअसल, राजनीति में इस तरह के अभियान गाहे-बगाहे चलते ही रहते हैं। चूंकि लोकतंत्र प्रहरियों के कान कच्चे होते है, लिहाजा अपनी करतूतों से कुछ प्यादे गिर पड़ते हैं तो उनका स्थान लेने नये सिर उठ भी खड़े होते हैं। स्थानीय राजनीति की बिसात पर अतिक्रमण का यह पूरा खेल नये-पुराने प्यादों की इसी उठापटक का नतीजा है, जो हमेशा की तरह अनिर्णित रहने वाला है।
कहावत है-ठंठेरां री मिनकी नै खुड़कै सूं कांई डर ! गुजरते हुए साल की तरह इस 'खुड़के' को देखना भी एक शगल भर है।

सूरतगढ़ में अतिक्रमण का खेल कोई नया नहीं है। शहर के बाहरी वार्डों में पैराफेरी की लगभग 4600 बीघा जमीन, जो 90 के दशक में राजस्व विभाग द्वारा नगरपालिका को सौंपी गई थी, का अधिकांश भाग कब्जों की भेंट चढ़ चुका है। इन कब्जाधारियों में जाने कितने पंच-सरपंच, प्रधान, डायरेक्टर, पार्षद, पटवारी, पत्रकार, कर्मचारी, राजपत्रित अधिकारी, पुलिस के कारिंदे और अन्य जनप्रतिनिधि शामिल रहे हैं। बहती गंगा में हाथ धोने के बहाने इन अतिकर्मियों ने अरबों रुपए की यह सरकारी संपदा चंद सालों में ही खुर्द-बुर्द कर दी। आज ये सब महामहिम अपने रसूख के चलते दूध के धुले साबित हो चुके हैं।

अब जो शेष बची हुई भूमि है, वह अत्यंत कीमती है। उसे हड़पने की साजिश ही इस बवाल की मूल जड़ है। गिद्ध दृष्टि लगाए भू-माफिया गिरोह इस फिराक में रहते हैं कि गरीबों की आड़ में वे भूमि का बड़ा हिस्सा डकार जाएं तो वहीं कुछ नौसिखिये लोग थोड़ा-बहुत खर्च कर 'भागते भूत की लंगोटी पाना' चाहते हैं। मगर जब कभी दांव उल्टा पड़े तो उन्हें नुकसान होना भी स्वाभाविक है। पर 'बाई का फूल बाई नै..' जैसी कहावतें गढ़ने वाले ये लोग खिसियानी बिल्ली की तरह दांत निकालने लगते हैं।

इस पूरे खेल में नगरपालिका खुद एक 'डिफेंडर' की भूमिका में रहती है। शक्ति याद दिलाने पर हनुमान की तरह वह कभी-कभी 'सेंटर फॉरवर्ड' खेलने तो लगती है, लेकिन बड़ी जल्दी फॉउल करवा बैठती है। सत्ता पक्ष का प्रतिनिधि इस खेल में रेफरी बन उसे लाल/पीला कार्ड दिखाकर मनमाफिक ढंग से यूज़ करता है। थोड़ी-बहुत तोड़फोड़ के बाद 'वही घोड़े वही मैदान' वाली स्थिति हो जाती है। 'चूरमा' किसे नहीं भाता !

शहर में चल रहे अतिक्रमण और तोड़फोड़ के मामले का तथ्यात्मक विश्लेषण करते हैं तो इस पूरे बवाल में बहुत से सवाल उठते हैं। सरकारी सम्पत्ति को हड़पने का प्रयास करना गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है, लेकिन क्या मजाल पालिका द्वारा किसी दोषी अतिकर्मी, उसके सहयोगी, संलिप्त पार्षद या कर्मचारी के खिलाफ कोई नामजद मुकदमा दर्ज करवाया गया हो। अपराध को बढ़ावा देने की यह कार्यशैली अपने आप में शर्मनाक है। यदि वाकई पालिका प्रशासन और हमारे जनप्रतिनिधि इस समस्या को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें इन सवालों के जवाब तलाशने चाहिए -

जवाब मांगते सवाल


1. जब शहर में अतिक्रमण हो रहे थे उस वक्त पालिका का अतिक्रमण निरोधी दस्ता क्या कर रहा था ?
2. इस दस्ते द्वारा कब-कब और कितने मामले चेयरमैन और अधिशासी अधिकारी के प्रसंज्ञान में लाए गए ?
3. कितने मामलों में पालिका के उच्चाधिकारियों द्वारा आंख और मुंह बंद रखे गए ?
4. जब वार्ड में अतिक्रमण हो रहे थे,. तब वहां के पार्षद की भूमिका क्या थी ?
5. वार्ड प्रहरी के रूप में उस पार्षद ने अतिक्रमण को रोकने के क्या प्रयास किए ? यदि वह खुद संलिप्त था तो पालिका ने उसके खिलाफ क्या कार्रवाई की ?
6. पालिका के चेयरमैन और अधिशासी अधिकारी जानबूझकर आंखें मूंदे क्यों बैठे थे ?
7. सक्षम होने के बावजूद उपखंड अधिकारी और अतिरिक्त जिला कलेक्टर ऐसे मामलों में कड़ी कार्यवाही करने से गुरेज क्यों करते रहे ?
8. बात-बात पर चिल्लाने वाले विपक्ष को ये अतिक्रमण दिखाई क्यों नहीं दिए ? क्या विपक्षी पार्षद भी मिलीभगत के चलते इस खेल में शामिल थे ?
9. अवैध ढंग से कब्जा किए गए अनेक भूखंडों के पट्टे भी जारी हुए हैं, आखिर किन कर्मचारियों और अधिकारियों की मिलीभगत से यह पट्टे जारी किए गए ?


ऐसे अनेक सवाल हैं जिनका उत्तर कोई नहीं देना चाहता। अतिक्रमण तोड़ने पर वाहवाही बटोरने वाली नगरपालिका की कार्यशैली एक मजाक सी लगती है जिसमें वह अपनी संपत्ति पर हुए अवैध कब्जे और कब्जाधारी की पहचान तो कर लेती है लेकिन सिवाय मलबा जप्त करने के, उस अपराध में लिप्त लोगों के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करती। यह पकड़े गए चोर को छोड़ने जैसी बात है। सोचने योग्य बात है कि नगर पालिका के 'लैंड बैंक' को लूटने वाले अपराधियों को शह देना भी सहभागिता का एक अपराध है। सनद रहे, राज्य की संपत्ति को इस ढंग से खुर्द-बुर्द करवाने पर आपराधिक न्यास भंग का गंभीर मामला बनता है। यदि कहीं कोई जनहित याचिका लग गई तो दोषियों के गले में आते देर नहीं लगेगी।

गुजरते साल 2022 के अंतिम दिन इस रपट के बहाने यही कामना की जा सकती है कि नव वर्ष हमारे जनप्रतिनिधियों को सद्बुद्धि दे !

- डॉ.हरिमोहन सारस्वत 

1 comment:

  1. बेहतरीन यथार्थ बयां करता आलेख ।

    ReplyDelete

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