Search This Blog

Thursday 16 April 2020

अखबार के ज़माने में दसवीं का रिजल्ट !


पगडंडियों के दिन (5)

आज गुजरे जमाने में दसवीं का रिजल्ट और उसे अखबार में ढूंढने की कला पर बात करते हैं.

... आज भले ही दसवीं बोर्ड का एग्जाम आसान लगता हो लेकिन 80 के दशक में इसे पास करना विद्यार्थियों के लिए एक चुनौती हुआ करता था. आज स्कूल द्वारा दिए जाने वाले 20 प्रतिशत सेशनल मार्क्स की वजह से बच्चों के नंबर 80-90% के करीब पहुंच ही जाते हैं लेकिन उस समय 60% से पास होना ही स्कूल और दोस्तों में आपकी इज्जत बढ़ा देता था. पास होना आपकी योग्यता का प्रमाण था तो फर्स्ट डिवीजन आने का मतलब आप में कुछ खास काबिलियत थी.

आजकल तो परीक्षा परिणाम आने के चंद मिनट बाद ही आप अपना परिणाम इंटरनेट पर देख सकते हैं लेकिन उन दिनों परिणाम घोषणा के बाद भी लंबा इंतजार करना पड़ता था. अगले दिन का अखबार ही एकमात्र माध्यम था जिसमें परीक्षा परिणाम प्रकाशित होता था. इसमें अपना परिणाम ढूंढना भी महाभारत से कम नहीं होता था. चींटी से भी बारीक अक्षरों में रोल नंबर ढूंढने की यह कला मोहल्ले के दो-चार सीनियर विद्यार्थियों के पास ही हुआ करती थी.
उन दिनों संप्रेषण के साधन इतने विकसित नहीं थे. टेलीविजन के आगमन के बावजूद प्रादेशिक सूचनाओं के आदान-प्रदान का माध्यम रेडियो और अखबार ही हुआ करते थे. राजस्थान में तो श्री कर्पूरचंद कुलिश के संपादन में निकलने वाली राजस्थान पत्रिका का एकाधिकार सा था जो उन दिनों सिर्फ जयपुर से प्रकाशित हुआ करती थी. हालांकि राष्ट्रदूत और दैनिक नवज्योति जैसे समाचार पत्र भी छपा करते थे लेकिन उनकी उपलब्धता सीमित क्षेत्र में थी. पूरे प्रदेश में राजस्थान पत्रिका का एक ही संस्करण पढ़ने को मिलता था. जयपुर से 400 किलोमीटर दूर स्थित हनुमानगढ़ में यह अखबार आने का एकमात्र साधन श्रीगंगानगर एक्सप्रेस थी जो प्रातः 7:15 बजे हनुमानगढ़ पहुंचती थी. इसी ट्रेन में राजस्थान पत्रिका आती थी. हनुमानगढ़ में पत्रिका के एजेंट जगन्नाथ जी जोशी थे और बस स्टैंड के अखबार विक्रेताओं को वही बंडल दिया करते थे. उन दिनों अखबार भी सबके घर कहां आया करते थे. सरकारी दफ्तरों के अलावा चंद गिनती के लोग अखबार मंगवाया करते थे. ऐसे में दसवीं के रिजल्ट वाले दिन अखबार की बहुत मारामारी होती थी एजेंट भी उस दिन बड़ी संख्या में अखबार मंगवाया करते थे.

रेडियो के सायंकालीन प्रादेशिक समाचारों में जब बोर्ड का परीक्षा परिणाम जारी होने की घोषणा होती चारों ओर खलबली सी मच जाती. सही मायने में दसवीं के विद्यार्थियों के लिए वह सरपंची के चुनाव जैसी कत्ल की रात होती. 'सुबह क्या होगा' इसी उधेड़बुन में विद्यार्थी पूरी रात सो नहीं पाते. यहां तक कि पढ़ाकू विद्यार्थियों की हालत भी दुबली होती. इसका सीधा सा कारण यह था कि एक अज्ञात भय सबके मन में बैठा हुआ रहता था कि बोर्ड की परीक्षा पास करना आसान नहीं होता. फिर घर-परिवार और अड़ोस-पड़ोस में इस बात के जीवंत प्रमाण रहते थे जो दसवीं कक्षा में चार-चार साल से डटे हुए थे. हमारे पड़ोस में भी बिंदर भाईसाहब, प्रवीण भैय्या, डॉली दीदी, रानी दीदी, झिंदर दीदी आदि ऐसे ही अनुभवी चेहरे थे जो हर घड़ी डराते थे.

खुद मेरे परिवार में तीन बड़े भाई ( ताऊ जी के लड़के) दसवीं में दो-दो साल का अनुभव ले चुके थे और ननिहाल में तो सभी खेती-खड़ थे जिनमें 10वीं तो दूर, आठवीं तक भी कोई नहीं पहुंच पाया था. मेरी बड़ी दीदी भी पहली बार इस परीक्षा में फेल हो गई थी. ऐसे में यह तथ्य कि हमारे खानदान में पहली बार में कोई दसवीं पास कर ही नहीं पाया तो तुम कौन से तुर्रम खां हो, ने भी डरा रखा था. कुछ ऐसी ही स्थिति मेरे सहपाठी दोस्त राधेश्याम के संयुक्त परिवार की थी जहां सभी मेहनत-मजदूरी करने वाले बड़े भाई थे. दसवीं की परीक्षा हम दोनों के लिए जी का जंजाल थी कि अब क्या होगा. परीक्षा के दिनों में शाम के वक्त हम दोनों भाई मूड फ्रेश करने के लिए फुटबॉल खेलने बड़े स्कूल जाया करते थे. तब देखने वाले कहते थे कि इनका तो रिजल्ट आया ही हुआ है.

खैर, जिस दिन परीक्षा परिणाम घोषित हुआ था मैं अपने ननिहाल आया हुआ था. मुझे पता भी नहीं चला था. दो-तीन दिन बाद जब मैं वापस लौट रहा था तो पीलीबंगा बस स्टैंड पर बस रुकी. अचानक मेरी निगाह बुक स्टॉल पर गई. मैं उतर कर स्टॉल पर गया और वहां दसवीं के रिजल्ट के बारे में पूछा. दुकानदार ने तीन दिन पुराना पेपर मेरे आगे रख दिया. मैंने डरे हुए मन और कांपते हाथों से अपने रोल नंबर 5,04,691 को परीक्षा परिणाम में टटोलना शुरू किया. पूरे 3 पृष्ठों पर छपे इस परिणाम में प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी और उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों का क्रम था. उसके बाद पूरक यानी सप्लीमेंट्री वालों का विवरण था. मन में उहापोह थी कि कौन सी श्रेणी में परिणाम ढूंढा जाए. इसी उधेड़बुन में मन ने कहा 'यार, तुम द्वितीय श्रेणी मे पास होने के लायक तो हो ही'. बस तुरंत उसी श्रेणी को टटोलना शुरू किया. पर ये क्या, मेरे सहपाठी आनंद प्रकाश तिवाड़ी, संजय गुप्ता, कुलविंदर, दिनेश आदि के रोल नंबर तो दिखे परंतु मेरा नहीं दिखा. बड़ी तेजी के साथ तृतीय श्रेणी को भी छान मारा. बुझे हुए मन से उत्तीर्ण वर्ग वाला बड़ा सा पृष्ठ भी जल्दी-जल्दी देख डाला लेकिन निराशा हाथ लगी. द्वितीय श्रेणी को दोबारा देखना चाहता था लेकिन तभी बस ने होर्न दे दिया. मुझे उदास मन सेअखबार छोड़कर भागना पड़ा.

बस में बैठकर मुझे रोना आने लगा. ऐसा लगा सारी सवारियां मुझे ही घूर रही हैं. मुझे वे सारी बातें याद आने लगी जो दसवीं की परीक्षा के बारे में कही गई थी. मसलन, हमारे खानदान में ही किसी ने पहली बार में दसवीं पास नहीं की तो तेरे कौनसे सुर्खाब के पर लगे हैं, गणित का पेपर भी थोड़ा सा ठीक नहीं हुआ था, और विज्ञान ! शायद ये दोनों ही मुझे लेकर बैठ गए, आदि ख्याल बड़ी तेजी से चलचित्र की तरह दिमाग में आ जा रहे थे. पीलीबंगा से हनुमानगढ़ का वह 25 किलोमीटर का सफर जीवन की अविस्मरणीय घटनाओं में से एक था जब दिल दिमाग पूरी तरह से परास्त हो गए थे. अब गली मोहल्ले में क्या मुंह दिखाऊंगा, यही डर मन को खाए जा रहा था. बिंदर भैया और डॉली दीदी के दिलासा देते चेहरे भी जेहन में आए जिनके पास इस परीक्षा में फेल होने का का पुराना अनुभव था.

हनुमानगढ़ रोडवेज बस डिपो पर जब बस से उतरा तो कदम लड़खड़ा रहे थे. अपना छोटा सा बैग लिए पैदल ही चल पड़ा. हमारा घर बस डिपो के ठीक पीछे था. घर का दरवाजा खटखटाते समय भी एक बार डर लगा कि कहीं पापा जी घर पर न हों. दरवाजा दीदी ने खोला और मुझे देखते ही बोली 'टोनिया, तू पास होग्यो.' मैं हक्का-बक्का रह गया. सामने कमरे के दरवाजे में पापा जी खड़े थे मैंने आगे बढ़ कर उनके पैर छुए तो उन्होंने मुझे गले लगाया और बताया कि मेरी फर्स्ट डिवीजन आई है. रसोई में मां भी बड़ी खुश नजर आ रही थी. पापा जी ने बताया कि राधेश्याम भी फर्स्ट डिवीजन से पास हुआ है. मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ. पापा जी ने परीक्षा परिणाम वाला अखबार मेरे सामने रख दिया जिसमें प्रथम श्रेणी वाले वर्ग में मेरा रोल नंबर था. कमाल देखिए, मुझ नालायक ने तो इस वर्ग में अपना रोल नंबर ढूंढने की हिम्मत ही नहीं जुटाई थी.
थोड़ी देर बाद राधेश्याम दौड़ा-दौड़ा घर आया और मुझे गले लगा कर बोला. 'यार, हम फर्स्ट आए हैं. मदनलाल गुरु जी ने बताया है कि बड़े स्कूल में इस बार कॉमर्स में पहली बार 4 फर्स्ट डिवीजन आई है जिनमें राजेश आचार्य और ओमप्रकाश भी शामिल हैं.'

उस दिन हम दोनों दोस्त जिंदगी में पहली बार बहुत खुश हुए थे. आखिर हम भी उन विद्यार्थियों की उस जमात में शामिल हो गए थे जिन्हें थोड़ी बहुत इज्जत की नजर से देखा जाता था.

वैसी खुशी के अवसर जिंदगी में बहुत कम मिलते हैं. इंसान उन्हें सुखद पलों को साथ लेकर जीवन पथ पर आगे बढ़ता है.



1 comment:

  1. Hi Bhai Ji,

    Bhai ji want to talk to you, Please share your number, I shared mine on Facebook chat.

    ReplyDelete

आलेख पर आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है. यदि आलेख पसंद आया हो तो शेयर अवश्य करें ताकि और बेहतर प्रयास किए जा सकेंं.

सावधान ! पुलिस के नाम पर ब्लैकमेल करने का नया गोरखधंधा

-   पुलिस अधिकारियों की डीपी लगे व्हाट्सएप नम्बरों से आती है कॉल - साइबर क्राइम मामलों पर पुलिस और गृह मंत्रालय की बेबसी 'हैलो' कौ...

Popular Posts