( विधानसभा चुनाव 2023, तथ्यों का विश्लेषण भाग-1)
कांग्रेस की टिकट भले ही हनुमान मील को मिले अथवा डूंगर राम गेदर को, इतना तय है कि कांग्रेस की राहें सूरतगढ़ में आसान नहीं है। सोचने वाली बात यह है कि आखिर कांग्रेस की राहों में इतने कांटे किसने बिछाए ? क्यों कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व लगातार सूरतगढ़ की अनदेखी करता रहा ? क्या इस विधानसभा सीट पर कांग्रेस की गिरती हुई साख का अंदाजा आला कमान को नहीं है ? उपलब्ध तथ्यों के प्रकाश में हम इन्हीं सवालों की क्रमवार पड़ताल करेंगे। आज इस चुनावी विश्लेषण की पहली कड़ी पढ़िए-
2018 में जब कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े हनुमान मील को 10235 मतों से हार का सामना करना पड़ा, उस वक्त हार का मार्जिन इतना अधिक भी नहीं था कि कांग्रेस बैक फुट पर चली जाती। इसकी पुष्टि कुछ दिन बाद हुए नगर पालिका चुनाव के नतीजे से की जा सकती है जिसमें कांग्रेस अपना बोर्ड बनाने में सफल रही। विधानसभा चुनाव में हार के बाद जो खीझ और निराशा कांग्रेस के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं में देखी जा रही थी, वह ओमप्रकाश कालवा के पालिकाध्यक्ष बनने के बाद काफी हद तक दूर हो चुकी थी। पार्टी का स्थानीय आलाकमान तो कालवा की तारीफ करता नहीं अघाता था लेकिन उस वक्त उन्हें अंदेशा ही नहीं था कि कांग्रेस की जड़ें खोदने की तैयारी शुरू हो चुकी है।
नगर पालिका में फैली भ्रष्ट व्यवस्था और कालवा के कारनामों पर मीडिया लगातार तथ्यपरक समाचार उजागर करती रही लेकिन कांग्रेस नेतृत्व के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। कोरोना संकट काल में तो इस कदर लूट मची मानो 'आपदा में अवसर' का खजाना सूरतगढ़ नगरपालिका को ही मिला हो। कांग्रेस के ब्लॉक अध्यक्ष परसराम भाटिया और पार्टी के कई पार्षद पालिकाध्यक्ष के क्रियाकलापों का पुरजोर विरोध करते रहे लेकिन उनकी अनदेखी की गई। नतीजा यह हुआ कि गंगाजल मील की छत्रछाया में बैठे ओमप्रकाश कालवा एक दिन कांग्रेस को छोड़ भाजपा की गोदी में जा बैठे और कांग्रेस के हाथ से नगरपालिका की सत्ता फिसल गई। उल्लेखनीय है कि दो चुनावी हार के बाद कांग्रेस में शामिल हुए डूंगर राम गेदर भी इस भ्रष्ट उठा-पटक के घटनाक्रम पर मूकदर्शक बने रहे। लिहाजा उनके आने से सूरतगढ़ में कांग्रेस मजबूत होने की बजाय और कमजोर होती चली गई।
पूरे राजस्थान में यह एक अप्रतिम उदाहरण था जब पालिकाध्यक्ष ने ही पाला बदल लिया हो। कांग्रेस का नेतृत्व कर रहा मील परिवार कालवा के इस आचरण से ठगा सा रह गया। उसके बाद परस्पर आरोप-प्रत्यारोपों का एक ऐसा दौर शुरू हुआ जिसमें कांग्रेस की फजीहत हुई। कालवा ने तो दो-दो प्रेस कांफ्रेंस कर मील परिवार की प्रतिष्ठा को तार-तार कर दिया।
पब्लिक यह सब खुली आंखों से देख रही थी। इसीलिए जन चर्चा यह है कि कांग्रेस नगरपालिका को ही नहीं संभाल पाई, तो पूरे विधानसभा क्षेत्र को किस प्रकार व्यवस्थित कर पाएगी ? लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व राज्य मंत्री का दर्जा पा चुके डूंगर राम गेदर भी पार्टी को मजबूत करने की बजाय अपना कद सुधारने में लग रहे। उन्हें शायद याद ही नहीं रहा कि पार्टी मजबूत होगी, तभी वे विधानसभा में पहुंच पाएंगे। इस सारे घटनाक्रम का असर यह हुआ कि पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल धीरे-धीरे टूटने लगा। अमित कड़वासरा और गगन विडिंग जैसे युवा चेहरे भी पृष्ठभूमि में चले गए।
सार यह है कि हनुमान हो या गेदर, सूरतगढ़ नगरपालिका में व्याप्त भ्रष्ट व्यवस्था से उठे जनाक्रोश का खामियाजा तो चुनाव में कांग्रेस को भुगतना ही पड़ेगा। सूरतगढ़ शहर में लगभग 55 हजार वोट हैं जो यहां के चुनाव परिणाम में हमेशा निर्णायक सिद्ध होते हैं। देखना यह है कि कांग्रेस वर्तमान चुनावी दौर में किस रणनीति से शहरी मतदाताओं को लुभा पाती है।
-डॉ.हरिमोहन सारस्वत
अध्यक्ष-प्रेस क्लब, सूरतगढ़
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