(अन्नाराम सुदामा री कवितावां माथै शोध रो परचो)
धिन-धिन अे धोरां री धरती राजस्थानी मावड़ी
वीर धीर विद्वान बणाया खुवा खीचड़ो राबड़ी
हिंदी सिनेमा जगत रै जगचावै गीतकार स्व. भरत व्यास रो ओ दूहो मरूधर रै मानवी री खिमता रो बखाण करै। लगोलग पड़तै अकाळ बिच्चाळै जियाजूण री अबखायां सूं बांथेड़ा करतो, मरूधर रो मानवी आपरी मैणत अर खिमता सूं धर री सोभा बधावण रा अलेखूं कारज करîा है। कदास इणी कारण कानदान ‘कल्पित’ सिरखै लोककवियां, बां मिनखां नै आभै रा थाम्बा कैय’र बिड़दायो है जिकां रै पड़îां आभो ई हेठै आय पड़ै।
राजस्थानी साहित में इणी ढाळै रै अेक मानवी अन्नाराम सुदामा रो नांव आवै जिकां रै सिरजण रो जस सात समदरां पार जा पूग्यो है। आधुनिक राजस्थानी भासा अर साहित्य रै किणी पख री बात होवै तो सुदामा री चरचा बिना पूरी नीं हो सकै। सुदामाजी आपरी निरवाळी रळियावणी भासा, बुणगट अर कथ्य रै पाण राजस्थानी साहित्य में अळघो मुकाम बणायो। आपरी कैबत अर ओखाणां लियां बांरी घड़त सैं सूं न्यारी, संवेदना रा सुर इत्ता ऊंडा, कै सीधा पाठकां रै काळजै उतरै। कहाणी होवै चायै उपन्यास, कविता होवै का पछै निबंध, सुदामा रै रचाव में गंवई सादगी अर सरलता तो लाधै ई, धरती री सोरम अर मानवीय मूल्यां नै परोटती बांरी रचनावां री पठनीयता गजब है। सांची बात तो आ, कै सुदामा आपरै रचाव सूं राजस्थानी साहित्य रै भंडार नै जिकी सिमरधी अर ऊंचाई दी है, उणी हेमाणी नै अंवेरता थकां घणकरा पारखी बान्नै राजस्थानी रो प्रेमचंद मानै।
राजस्थानी रै इणी प्रेमचंद यानी अन्नाराम सुदामा री जलमषती रै मौकै म्हानै बांरै कवित्व पख पर बात राखणी है। आलोचक नंद भारद्वाज आपरी संकलन पोथी ‘सिरजण साख रा सौ बरस’ मांय सुदामा री कविता रै पेटै लिखै कै सुदामा री पिछाण अर चरचा भलांई कथाकार रै रूप में रैयी होवै पण कविता सूं बांरो मनचींतो लगाव सदांई गाढो रैयो। भारद्वाज री इण बात री साख तो सुदामा रो गद्य रचाव ई भरै जिणमें अेक काव्यात्मक लय अर कविता री ओळयां रा विन्यास पग-पग छेड़ै लाधै। ओ आदमी जद गद्य रचै तो पद्य रो लागै अर पद्य रचै तो उणमें कथा/कहाणी सिरखो आनंद आबो करै। बुणगट री आ शैली सुदामा नै आपरै समकालीन रचनाकारां सूं अळघो मुकाम दिरावै।
सुदामाजी रा चार कविता संग्रै ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’, ‘व्यथा कथा अर दूजी कवितावां’, ’ओळभो जड़ आंधै नै’ अर ’ऊंट रै मिस: कीं थारी म्हारी’ छप्योड़ा है। सै अेक सूं अेक बधता ! ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ तो आज भी साहित रसिक लोग घणै चाव सूं पढै अर सुणा बो’करै। ‘व्यथा कथा अर दूजी कवितावां’ अर ‘ओळभो जड़ आंधै नै’ संग्रै री कवितावां बांचां तो ठाह पड़ै कै इण कवि कन्नै अेक न्यारी वैष्विक दीठ है जिण रै पाण बो बारीक सी बात सूं सरू होय’र काव्य संवेदना नै आकासां लग लेय जावै। लिखारा तो पग-पग छेड़ै लाधै पण आ निरवाळी दीठ भोत कमती निगै आवै। आं री रचना ‘पगलिया समै री रेत पर, ‘पाती उग्रवादी री मा री’ अर ‘विस्व सुंदरी रै मिस’ वैष्विक कविता सूं कठैई कमती कोनी। अे कवितावां सुदामाजी नै विस्व स्तरीय कवियां री पांत में खड़îा करै।
डॉ. पुरूषोत्तम आसोपा सुदामाजी नै धरती री आस्था रो रचनाकार मानै। बां रै रचाव में नीं तो धोरां रो अणूतो सिणगार दिखै नीं किणी कामण गोरड़ी री बांकी छवियां, नीं तो प्रेमकथा रा सबड़का, नीं जोधारां रा कळा करतब। बस सो कीं धरती रै ओळै-दोळै घूमै। आसोपा अेक और ठावी बात बतावै, सुदामा फगत कड़वै जथारथ रा ई चितेरा लिखारा कोनी, बांरै मांय आदर्स री भावना ई कूट-कूट नै भरियोड़ी है। इण दीठ सूं बांरी चेतना जूनी पीढ़ी रा मूल्यां नै घणो मान देवै।
इण शोधपानै में सुदामाजी रा पैला दो कविता संग्रै ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ अर ‘व्यथा कथा अर दूजी कवितावां’ री निरख-परख होई है। किणी रचना री परख रो महताऊ पख ओ होवै कै आपां नै सोध परख करतां थकां उण रै रचाव रो कालखंड अवस चेतो राखणो चाइजै, इण सूं भी बेस्सी बात आ कै कूंतारै में उण लारलै बगत तांई पूगण री दीठ अर खिमता ई होवणी घणी जरूरी, जणाई बो किणी सिरजण रै निरख-परख में न्याव कर सकै। सुदामाजी खुद कैयो है कै समीक्षा साधना चावै अर गैरो अध्ययन।
पैली पोथी ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’
बात आगै बधावां, 1968 में सुदामाजी रो पैलो कविता संग्रै ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ सामीं आवै जिण पर राजस्थान साहित्य अकादमी संगम रो सनमान मिल्यो। ओ बगत आधुनिक राजस्थानी साहित रो बाळपण कैयो जा सकै जिणरा पगलिया समकालीन साहित्य जगत में आपरा मंडाण देखणै री हूंस पाळ राखी ही। बीं घड़ी, समचै देस में गिणती रा राजस्थानी लिखारा हा तो बांचणिया नै तो दियो लेय’र सोधणो पड़तो। पण सुदामाजी री पोथी ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ नै पाठकां घणो मान दियो। देस-परदेस बैठ्या मायड़ भासा रा हेताळू संग्रै री सिरैनांव कविता नै सुण अर सुणाबो करता। कदास जणाई 1982 में इण पोथी रो दूजो संस्करण छपण में आयो।
इण कविता पोथी री भूमिका ई बांचण जोग है। अठै कैवणो चाइजै कै सुदामा रै रचाव रो अेक पख बांरी मौकै-बेमौकै लिख्योड़ी भूमिकावां भी है जिण माथै अेक पूरो सोधपानांे त्यार हो सकै। इण पोथी री भूमिका री पैली लैण देखो-
पोथी पोळाई नंई, जिकै सूं पैलां ई नांव राख लियो, ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’। घर बसणै सूं पैली ई गीगलै रो नांव गुटियो राजा ! इसी गळती तो कोई सेखचिल्ली ई नीं करतो होसी।
इण भूमिका में कवि पोथी री रचाव प्रक्रिया अर छपणै में आई अबखायां भोत साफगोई सूं पाठकां रै सामीं राखै जिण सूं बांचणियां में अेक उत्सुकता जागै। संग्रै में कुल छः कवितावां है, सै आपरी निरवाळी छिब लियां।
पैली कविता ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ में कवि रो भाव है, कै मिनख नै अेक लालसा पनपावण सारू कित्ती आस्थावां री बळि देवणी पड़ै। इण कविता री नायिका गळी री अेक पांवली कुतड़ी है जिण रो नांव है ‘टिंवली’। आ ‘टिंवली’ ना कोई अल्सेसियन, ना पिटबुल, फगत गळी-बास में फिरती डोळबायरी कुतड़ी, जिकी सुदामा रै परस सूं किरपारामजी खिड़िया रै राजियै दांई ई साहित में अमर होगी। टिंवली रै मिस कवि कैवैै, कै जद आदमी-लुगाई री माणस पिरोळ में, तृष्णा री कुत्ती ब्यावै तो लोभ-लिप्सा, बैर-विरोध अर कामना रा कुकरिया जलमै। बा कुत्तड़ी फेर, धरती खातर ईं स्थूल कुत्ती सूं घणी भयावह होवै।
हास्य अर व्यंग्य रो पुट लियोड़ी आ कविता पाठकां नै गिदगिदावता थकां आगै बधै। बुणगट तो देखो-
तीखा कान, पांख सी पतळी/लम्बो झबरो पूंछ/ नांव हो टिंवली/दीखत री करड़ी कोझी/ पेट चिप्योड़ो, राफां ढीली/धक्का खाती, बास में फिरती बांझ मरै ही, पांवली न्यारी/पण किरपा करी किरतार/भाग री बात/टिंवली री बेळा आई.....
अर पूछ बधी तो इसी बधी/टोळी दिवानां री लारै फिरती/मजनूं केई घायल होया/कइयां री टांग टूटगी/फ्रि लव में किसा पंडत बैठै/कुण लेवै फेरा/ किसी जान अर किसा जान रा डेरा/आप-आप री करणी पार उतरणी/टिंवली बण योरोप री लेडी/बिन फेरां पार करी बैतरणी...।
थोड़ै दिनां में टिंवली ब्यावै अर उण रो पगफेरो गळी बास में सुभ गिणीजण लागै। बास री लुगायां स्वारथवष उण नै गुलगला अर सीरो जिमावणो सरू कर देवै अर टिंवली हो जावै घुराण। आवतै-जावतै री पिंडी पकड़ती टिंवली जद सब नै परसाद देवण लागै तो कवि आखतो होय’र अेक दिन उण नै दूर रोही में छुड़वा देवै।
बरसां पछै कवि री चेतना में टिंवली भळै जागै अर इण कविता रो उत्तरार्ध रचीजै। इण अंस में कवि मिनखपणै री तिस्णा रै पेटै अेक गंभीर चिंतन अर सवाल खड़îो करै। जद कोई धनी आपरै पेट सूं आगै नीं देखै, जद कोई सत्ताधारी कुर्सी री चमक में आपरी निजर गमा बैठै, जद कोई साधु संत, विद्वान विचारक विद्या अर अर विवेक नै बिसरा’र टुकड़ां पर पूंछ हिलावण लाग ज्यावै तो समझ लेवणो चाइजै कै बां सगळां री तृष्णा में कोई सूगली कुत्ती प्रसार पावण लाग रैयी है। धरती रै मंगळ सारू बा रूकणी चाइजै। बानगी देखो-
सत्ता री कुत्ती/धाप सकी ना धापी। विस्वासघात री कुत्ती/पद टुकडां पर पूंछ हिलाती/कुत्ती धोखै री/फूट रै कीचड़ में ले डूबी।
कुत्ती रै मिस तृष्णा रै प्रसार रा सांगोपांग चितराम है इण कविता में।
संगै्र री दूजी कविता ‘आकांक्षा’ में सुदामाजी गंवई अर सहरी जियाजूण रो सांतरो विष्लेषण करîो है। महानगरीय जीवन शैली में जूझतो आदमी कियां कसीजै, मुसीजै अर घाणी रै बळद दांई भूंबो करै, इण बाबत सांतरा चितराम है। बानगी देखो,-
सड़कां लागै है साप दियोड़ी/आंधी अर अपराधण/गौतम नारी सी /किचरयोड़ी काळी नागण सी/मरी पड़ी...। सरम रा कपड़ा खोल किनारै/केई मळ-मळ न्हावै/पण रात अंधारै/अणमैली काया/ कर-कर मैली पाछो काट लगावै...। भेड़ां करै सिलाम/ जणा अचम्भो आवै।
कविता में सत्ता नै नगरप्रेत री उपमा देय सुदामाजी कैवै,-अब कहो-कहो थे/नगरप्रेत री छियां नीचै/ कियां आवड़ै अर कियां बसीजै ? इण सत्ता रै परिवर्तन सूं ई बै घणी उम्मीद नीं राखै। कविता में बै कैवै, संज्ञा बदळै पण/विसेसण सागी पोतीजै/हीणै स्वारथ रो तेल घाल/कूटनीत री बळै कड़ाही/ जीवतै नै तळै मोकळा/मरया देवै वाहीवाही/आ नीती है नगरप्रेत री।
सुदामा री बुणगट में व्यंग्य री धार ई सरावण जोग है। माइक पर चीखतै नेतावां रा रोळा सुण कवि मन उचकै-
माथो दूखै जद सोचूं, ईंरा होठ सीड़ दूं/पण जनतंत्र री मणिहारी में इसी सस्ती सुई मिलै कठै ?
कवि री बेबस मनगत तो देखो, छेवट जावतै कियां गरळावै। म्हूं गांम गरभ रो डेडरियो/ महानगर रै महासागर में तिसा मरूं....।
‘भाग री बात’ कविता में सुदामाजी देसी संस्कृति रै अपदूसण री बात घणै निरवाळै ढंग सूं उठाई है। कवि सरकारू स्कूल में मास्टर है जिको सदांई धोती कुड़ता पैरै पण भायला उण नै पैंट पैरण सारू उकसाबो करै। छेवट अेक दिन बो मास्टर पैंट सिड़वा लेवै अर पछै उण री जिकी फजीती होवै, मत पूछो। बास-गळी रा कुतिया ई उण नै नीं ओळखै, पिंडी पाड़’र परसादी दे न्हाखै। अठै पैंट पष्चिमी संस्कृति री प्रतीक है जिण सामीं आज देस री युवा पीढ़ी आंधी होय’र भाज रैयी है। ‘स्टेंडर्ड री ममता’ नांव री कविता में ई कवि री पीड़ सागी है। आज रै टाबरां नै बडेरां रो स्टेंडर्ड लो लागै पण बै आपरा डोळ नीं देखै। दूध-दही रै पूगतै घर में पोडर रो दूध अर रंगीजेड़ी राफां सूं स्टेंडर्ड बणावती नवी पीढी नै देख कविमन घणो अचम्भो करै।
कुल मिलाय’र कैय सकां कै ‘पिरोळ में कुत्ती ब्याई’ कविता संग्रै हास-परिहास बिच्चाळै बिडरूप होवती सनातनी संस्कृति अर संस्कारां पेटै पाठकां में नवी चेतना जगावै।
दूजी पोथी ‘व्यथा कथा अर दूजी कवितावां’
सुदामाजी रो दूजो कविता संग्रै ‘व्यथा कथा अर दूजी कवितावां’ है जिको 1981 में धरती प्रकासन, बीकानेर सूं छप्यो। इण पोथी में कवि री दीठ घणी ऊंडी अर पकाव लियां है। पोथी में कुल आठ कवितावां हैै। अे कवितावां बांचां तो ठाह लागै कै अे ‘व्यथा कथा’ क्यूं कहिजी है। हर कविता में अेक लयात्मक कहाणी है, कहाण्यां में समाजू पीड़ नै देखती कवि री अंर्तव्यथा है, चिरणामृत सो करूण रस है जिण रा छांटा पाठकीय चेतना पर पड़ै, अर बा ई घड़ी स्यात कीं जागृत होवै। सुदामाजी खुद भूमिका में लिखै कै अे कवितावां सौखिया नीं लिखिजी, जदकद ही कवि री पोखरी में सामाजिक पीड़ रो कोई अणचायो भाठो आ पड़îो अर चेतना रो पाणी मथिज्यो, का अव्यवस्था रै अंधेरै में जवाब मांगती कोई उदास लौ सामीं आ खड़ी होई, जद कलम आप मतैई उभी होगी। सुदामाजी आं कवितावां बाबत लिखै कै नां आं में कोई ऊंचो दरसण, ना कोई आकासी उड़ान अर ना अटपटै अरथां सारू कोई दुरूह सबदावली। अे कवितावां आपरो रोवणो ई को रोवै नीं, पाठक अर सुणनियां सूं ई कीं पूछै, कै उण री भूमिका धरती री पीड़ कम करणै में है का बींनै बधावण में। जे कम करणै में है तो बींरो अैसान नहीं, दायित्व है। अर जे बधावण में है तो बो पीड़क अर सोसक है इण धरती रो। खाली आप सारू पकावै, बो साव ढोंगी है, बो कदेई सामाजिक नीं बण सकै, चावै कोई कित्तो ई बड़ो बिस्पत होवै का कुबेर !
पोथी बांचा तो ठाह पड़ै कै ओ सगळो रचाव मानखै रै सुभाव नै निरखतो-परखतो आगै बधै, पोथी रै मूळ में अेक वैस्विक चिंतन है, आखी धरती री पीड़ सामीं लावण रो, विसमता री बधती खाई बूरणै रो, मिनख री अंतस चेतना नै जगावण रो। सुदामाजी री पिछाण अेक समर्पित गुरू री रैयी है, अर इण संगै्र री पैली कविता व्यथा कथा में ई बै टाबरां री भणाई नै लेय’र अेक गुरू री अंतस पीड़ पाठकां सामीं राखै। आ कविता देस री षिक्षा व्यवस्था में सरकारू अर प्राइवेट स्कूलां रा पोत उघाड़ता थकां आगै बधै। कविता में सरकारू मास्टरां रै व्यवहार अर आचरण रो ई सांगोपांग उल्लेख है। कविता में व्यंग्य अर घड़त री बानगी देखो-
.....मास्टर क्लास में बड़तां ई/मेज पर डंडो पटकै/फेर होवै घोषणा/खबरदार कोई बोलग्यो, तो टेर देस्यूं/कर टांगां ऊंची, माथो नीचो/आ रोज री गीदड़ भभकी/बूसी रोटी बासी कड्ढी.....
सामली भींत पर बैठा/ मोटा आखर मुळकै/‘मच्छर जहां-जहां, मलेरिया वहां-वहां/आता-जाता टाबर पढै/मास्टर पढै/ पण कथा रा बैंगण/बै आंख सूं पी कान सूं काढै....
टाबर/दिनभर इयां ई /बणतो कूकड़ो/कूटीजै, पींचीजै/सावळ सोचो ज्ञान कमाई पल्लै बींरी कित्तीक पड़ै...।
सुदामाजी इण धरती पर फिरता अलेखूं अनाथ अर अणबस टाबर, जिकां नै रोटी रा दो टुकड़ा ई पांती नीं, बां री चिंता ई करै। आं टाबरां री भणाई कियां होवै, ओ सवाल कविता रै मूळ में है।
लाख-लाख बाळक/अभाव रै गैण में/ अमूजता जद उदास दीसै/तो सर्वे सुखिनो भवंतु/पुत्रोहं पृथिव्याः/सै छीजै, ढकीजै, फूस नीचै/फेर राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा/आग मांगै/ बैठ बाळकां रै काळजै....।
इण संग्रै में अेक सबळी कविता है ‘पगलिया समै री रेत पर’। आ कविता फ्रंेज काफ्का रै अर्न्तभेदू रचाव रो अेक सबळो उदाहरण है। काफ्का मुजब रचाव इस्यो होवणो चाइजै जिको बांचणियै रै सिर में दोहत्थड़ पटीड़ दांई पड़ै अर बो केई ताळ उण पीड़ नै पंपोळबो करै। इस्या ई भाव अर संवेदना इण कविता में लाधै जिका आपरी बुणगट रै पाण पाठकां रै हियै में ऊंडी उतर जावै।
अेक अणबस मा अर उण रै दो नान्है टाबरियां री पीड़ सूं भरीजी आ कविता इत्ती मार्मिक है कै बांचणियै रो अंतस ई गळगळो नीं होवै, आंख्यां सूं पाणी झरîां ई सरै। अठै हिंदी रा चावा-ठावा कवि सुमित्रानंदन पंत चेतै आवै, जिकां कैयो है, कविता फगत विचार अर तथ्य सूं नीं बणै, बा तो अंतस री अनुभूति सूं निपजै। पंतजी लिखै-
वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान
निकलकर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान
सुदामा री आ कविता इण बात री साख भरै। दुखां री पोट भरी इण कविता में अेक विधवा मा री अणबसी, अर उण पर पड़ता करमां रा अंतहीन घमीड़ा री व्यथा कथा है। आथूणै राजस्थान रै अेक छोटै सै गांम रो दिरसाव लियां, इण कविता रो कथ भोत साधारण ढंग सूं उठै अर छेवट जावता पीड़ रो समदर बण पाठकां रै रूं-रूं सामीं धरती नै बिडरूप करती विसमता माथै सवाल खड़îा करै। कविता में कमठाणै जावती अेक बेबस मा है सुक्खी, जिण रै बारह बरसां री छोरी सुगणी अर पांच बरसां रो लाडेसर सिवलो है। आ मा जियां-तियां आपरी जियाजूण रो गाडो घींसै। अेक रात छोरी आपरी मा सूं जिद पकड़लै, कै काल निर्जला ग्यारस है अर कमठाणै री छुट्टी, इण सारू मा काल उण नै खोखा चुगण जावण दै। बैन रै लारै-लारै छोटकियो सिवलो ई खोखा ल्यावण री जिद करै। मा बेटी री बंतळ में सुदामाजी री ऊंडी दीठ सूं रचीजी बुणगट देखो-
मा/निर्जला है काल/ कमठाणो बंद है नीं/
हां बेटी/
तो दिनुगै बैगी/ला सूं खोखा/जा सूं रोही।
काल तो थारै पड़ी ही ईंट/ पग पर/हुगी आंगळयां भेळी/छूटगी तूरकी लोही री/
बरसै दिन में लाय/हुसी उबाणी/ दूखै पग/ खोड़ावै न्यारी......जा सी खोखा लावण नै !
जासूं म्हूं आप/ मा सागै सूतो/ बरस पांच रो सिवलो
नां बेटा/ जूतिया थारै ही कठै/ कंवळी पगथळयां/ नीचै भोभर/ ऊपर खीरा/ करसूं म्हूं थारा हीड़ा/ का लासूं पइसा पावलै रा ? चइजसी पेट नै तो आटो/ देसी कुण बता बो ?..
मा घणी बरजै पण बाळहठ आगै पींघळ’र छेवट हंकारो भर देवै। दोनूं टाबर कोड रै घोड़ै पर असवार, खोखां रा सुपनां लेवता नींद री गोद्यां जा बड़ै। सुक्खी टाबरां रो सिर पळूंसती आपरी जियाजूण रा पानां फरोळबो करै। काल कमठाणै पर जद सेठ ढिगली पर बजरी उछाळतै सिवलै रै थाप री मेली तो मा रै बाकी नीं रैयी। पण सुदामाजी री कारीगरी देखो, सुक्खी सामीं सेठ किस्योक ऊथळो देवै-
सुक्खी/छोरै नै डरायो हो थोड़ो/कूटूं/ म्हूं किस्यो अज्ञानी/ किसो गूंगो ? टाबर री नंई सुणनी/ सुण्यां बिगड़ै बो ! ओळभो आज बजरी रो/तो ढोळदै काल घड़ो बो घी रो/सोच तूं ही/होसी पछै मुस्किल कीं रै ?घाल्यां डर/ रैसी चेतो/ सुधरसी बो/ करसी कमाई / थारै /का म्हारै ?
इण सेठ सूं सुक्खी जद आपरी मजूरी मांगै तो देखो, बो कियां टरकावै-
कै आज तो बिस्पत/है सोगन देवण री/अर काल निरजला/राखै किरपा/मांगणै री सुक्खी/मोटो आदमी/ चाइजै पइसा सगळां नै/पण भांगै गुड़, सै गोथळी में.....
मार्क्स रै मुजब ईं सेठ जिस्या सोसक मुखौटा आखी दुनिया में लाधै जिका सुक्खी सिरखै कित्ता ई मजूरां रो हक दाब्यां बैठ्या है।
सुक्खी री अळोच में कविता आगै बधै। आगलै दिन बखावटै ई दोनूं टाबर उबाणै पगां खोखा रै लालच में गांम सूं डेढ़ कोस दूर तांई आ पूगै। बळती लाय अर खीरा उछाळती रेत में टाबर खोखा घणाई भेळा करै, राजी होवै। पण छेवट घरै पूगण सूं पैली उणी रोही में तिस्साया हो जावै अर कदे खींप, कदे बूई री छियां लेवता, पाणी-पाणी करता प्राण छोड़ देवैै। कवि खोखा चुगता टाबरां री अणचायी मौत रै मिस बिधना री विसमता रो सांगोपांग दिरसाव मांडै। सिवलै अर सुगणी नै सोधती बांरी मा जद रोही में पूगै अर आपरै बचियां री ल्हासां देखै तो कीं बाकी नीं रैवै। कविता रा रंग देखो-
सिवला, उघाड़ आंख्यां/ मा हूं थारी/पण सिव/ पी विसमता रो विस/छोड दी धरती/ली समाधी लम्बी/खापण नीचै/लास ऊपर/छोड सब/ हुग्यो सिव विसधर....।
बाको फाड़ती मा कूकी किसी थोड़ी। आई ना सासू/ना धणी/कठै सिवलो/कठै सुगणी ? पण जूझणो धर्म है। उदास-उदास लागगी बा भळै काम में....। कविता आगै बधै तो सुक्खी नै गांव में सुणनो पड़ै कै दोनूं टाबर निर्जला ग्यारस नै पाणी-पाणी करता मरîा है, अवस ई भूत होसी, भटकसी रोही में। टैम बेटैम आवता-जावता ई डरसी। अेक मा रै कानां जद अे बातां पड़ै तो सोचो, उण रै जीवण में सार कठै ! पण कवि सुदामा सुक्खी नै आपरै टाबरां तांई पूगण रो अेक मारग देवै, जठै कविता भळै उठ खड़ी होवै। ज्यूं हरिवंषराय बच्चन ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर/ नेह का आह्वान फिर-फिर’ री सीख दिरावै, उणी तर्ज पर सुक्खी गांव रै अगूणै पासै अेक बूढी खेजड़ी हेठै पाणी री पौ लगावै, तगारी सूं घसीज्यै आपरै सिर माथै रोज सात-आठ घड़ा ढो’र ल्यावै/रमता टाबर, अेवड़ रा गुवाळिया अर आवता जावता सगळा उण पौ रो पाणी इमरत मिस पीवै अर जीवै। इणी जियाजूण नै ढोवती, पाणी पावती सुक्खी रो सूवटो, अेक दिन उडारी ले लेवै। सुक्खी रा पगलिया समै री रेत पर मंडै, समाजू विसमता पर सवाल खड़îा करै...।
बात नै सावळ जचा’र कैणी सगळां रै बस में कोनी। आं मायनां में सुदामाजी रो कवित्व अेक पूरो इंस्टीटयूषन लखावै। हर कवि चितराम ई तो मांडै, सबद चितराम जिकां रो आभो कदे-कदे इत्तो विस्तार लेय लेवै कै बा कविता वैष्विक हो जावै। ज्यूं धर्मवीर भारती ‘गुनाहों का देवता’ उपन्यास रै उत्तरार्ध में पाठकां नै चंदर अर सुधा रै मिस पग-पग छेड़ै रूणा’र छोड़ै, उण सूं ई बेसी, सुदामाजी तो ईं कविता री पैली लैण सूं ई बांचणियै रै अंतस तांई जा पूगै, उण री आंख्यां में बरसणो सरू कर देवै।
इणी संगै्र में मिनख रै लोभ अर लालच री वृत्ति नै लेय’र लिखिजी कविता ‘आंधी लालसा’ में सुदामाजी बांबी बैठ्यै मिणधर बासक नाग अर गोह री बंतळ सूं कविता सरू करै। मणि रूखाळतो बासक गोह नै कैवै-
मणि धन नै/हूं किसो खावूं/चाटूं का डील चोपड़ूं /गैली, गिटलूं जे/ घणा नीं/ दो चार नग ही/तो बता मन्नै/लागै ताळ कित्ती/ पूगतां आगलै घर...।
आपरी पीड़ बतावतै मिणधर नै लागै, बो लारलै जलम में धणियाणी ही/ किणी काळै धन री/का जोरू किणी महाघूसखोर आंधै नेता अफसर री-
कारण/बणावै आंधी लालसा ई /आदमी नै सांप काळो/अर विस्व नै बांबी अंधेरी।
संग्रै वृत्ति है आदमी री, पण संग्रै सूं विसमता जलमै, दूजै रो हक मारीजै/लोभ अर लालच बधै जिण सूं धरती रो रूप बिगड़ै। इण विसमता नै मेटण रो समाधान ई कविता रै छेवट में लाधै जिण सूं आ अेक जनवादी रचाव कही जा सकै।
‘दुविधा रै दळदळ में’ कविता गांम अर सैर री जिनगाणी रा दूबळा पख सामीं राखै। छत्तीस बरसां पछै कवि जद आपरै गांम पूगै तो बिगसाव रै नांव माथै उण नै सागी अबखायां अर ब्याध्यां लाधै तो उण में कीं बाकी नीं रैवै। उण रो मन पाछो पड़ै, दुविधा रै दळदळ में बो डूबै, अर तर-तर ऊंडो बैठै।
‘मानचित्र री ममता’ कविता अखंड विस्व री बात करै। आज घड़ी जठै कठैई अलगाव अर न्यारा होवण रा सुर उठ रैया है बठै आ कविता उभी होय’र सवाल करै। इण कविता में स्कूल रा टाबर आपसी लड़ाई में कार्डबोर्ड में फिट होयोड़ै मानचित्र सूं टुकड़ा काढ’र लेवै। रीसां बळता बोलै, ओ डब्बी में राखो सगळो/रचस्यां म्हे अेक-अेक टुकड़ै सूं/नवो न्यारो मानचित्र/थारै सूं घणो फूटरो, घणो भलेरो...।
गुरू नै जद इण बात रो ठाह लागै तो सुर गूंजै, ‘घूमो पाछा/जे रूस-रूस’र/अेक-अेक टुकड़ो/इण चित्र सूं टुर पड़सी तो खांडै मानचित्र में लारै बंचसी जूंवा/दीखसी खालेड़ घणेरी/ओ मानचित्र सगळां री पूंजी/सगळां रो साथी।
मानखै री चेतना जगावण रा सुर तो देखो-
होसी जे ओ मानचित्र खंडित/तो मोटी चिंता/धरती पर साबत कुण बचसी ? इण धरती पर नीं चाइजै कांचळी बदळू अणगिण मौसमी कसटीडा/बस जरूरत है/आजादचित्र री पूर्णता सूं प्रेरित/भाईचारै रै नवै छितिज पर /कोई अणदागी गुरू आभा।
सार रूप सूं कैयो जा सकै कै सुदामाजी रा अे दोनूं कविता संगै्र राजस्थानी साहित्य री सांची हेमाणी है। इण रचाव में आखै जगत री चिंता करतै कवि रो अेक वैष्विक चिंतन है, पद्य में गद्य री रंगत है, रंगत में मिनख रै मिस मिनखपणै नै बचावण री अमोलक सीख है। इस्यो रचाव समै री खंख सूं कदेई बोदो नीं पड़ै, बो तो तर-तर निखरतो जावै। सुदामाजी रै कवित्व पख नै उजागर करती आं सबळी कवितावां नै जन-जन तांई पूगावणो भी अेक लेखकीय दायित्व है।
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