(राजकीय चिकित्सालय और राजकाज में बाधा का मुकदमा)
13 सितंबर । आज की घटना और मुद्दे की जानकारी उन सब लोगों के लिए जरूरी है, जो अपने शहर से प्यार करते हैं, यहां फैली अव्यवस्थाओं के खिलाफ आवाज उठाते हैं। उन्हें जान लेना चाहिए कि यदि वे मुंह खोलेंगे तो उनके खिलाफ राज कार्य में बाधा के मुकदमें दर्ज होंगे। लेकिन सवाल यह है कि क्या मुकदमा दर्ज करने से चिकित्सालय की व्यवस्थाएं सुधर जाएगी ? क्या मुकदमे के भय से लोग संघर्ष करना छोड़ देंगे ?
घटना के तथ्य जानिए
आज सुबह करीब 10 बजे राजकीय चिकित्सालय, सूरतगढ़ में डॉ. लोकेश अनुपाणी से मां की दवाई लिखवाने के लिए पहुंचा था तो सोचा, चिकित्सालय की व्यवस्थाओं का जायजा भी लिया जाए। दरअसल 2-3 दिन पहले दैनिक भास्कर में इसी चिकित्सालय के दवा वितरण की अनियमितताओं को लेकर एक बड़ा समाचार प्रकाशित किया गया था, पत्रकार होने के नाते उसकी पड़ताल करनी चाहिए।
इस चिकित्सालय भवन के पिछले हिस्से में सीनियर सिटीजन के लिए दवा वितरण के दो काउंटर बने हुए है। वहां लगभग 40-50 बुजुर्ग पुरुष और महिलाएं हाथ में पर्चियां लेकर खड़े थे। उन मरीजों से पूछताछ की तो पता चला कि दोनों काउंटर की खिड़कियां सुबह से ही बंद हैं। दूर दराज के गांव से आए हुए बड़े बुजुर्ग परेशान हो रहे हैं, लिहाजा चिकित्सालय के प्रभारी डॉ. नीरज सुखीजा को फोन किया। डॉक्टर साहब ने जवाब दिया कि आज स्टेट हॉलीडे है, कर्मचारी छुट्टी पर हैं। बड़ा अचरज हुआ, कम से कम इन बेचारे बुजुर्गों को बता तो दिया जाता या कोई सूचना लगा दी जाती की आज यहां दवाई नहीं मिलेगी। इस पर डॉक्टर साहब से चेंबर में जाकर मुलाकात की तो उन्होंने स्पष्ट जवाब दिया, आप फालतू की पत्रकारिता कर रहे हो, खिड़कियां खुली है, दवाई मिल रही है, मरीज से कह दो दूसरे काउंटर से दवाई ले लें। वहां उपस्थित नर्सिंग स्टाफ सुरेंद्र पारीक ने उल्टे शालीनता से का कहा, 'भाई साहब, अभी कोई व्यवस्था करवाते हैं।' कोई बात नहीं, समस्या का समाधान हो तो अपने कहां दिक्कत है। इस विषय पर प्रभारी चिकित्सा की छोटी सी बाइट लेकर बाहर आ गया।
लाइन में लगे बुजुर्गों को मैंने जाकर बताया कि आज स्टाफ छुट्टी पर है आप दूसरे काउंटर से दवाई ले लें। बुजुर्गों का टोला दूसरे काउंटर पर गया तो वहां स्पष्ट मना कर दिया गया कि आपको यहां से दवाई नहीं मिलेगी। इस पर वे मरीज प्रभारी के चेंबर में पहुंच गए और दवा देने की मांग करने लगे। प्रभारी चिकित्सक व्यवस्था को सुधारने की बजाय उल्टे मुझे धमकाने लगे कि आप इनको ''प्रोवोक'' (उकसाकर) करके लेकर आए हो, और वहां से उठ कर चले गए। बेचारे मरीज अपना सा मुंह लेकर बाहर निकल आए। श्री भगवान, अनिल ठाकरानी सहित वहां उपस्थित लोग डॉक्टर के इस व्यवहार से बड़े खफा हुए। हम सब परिसर में लगे नीम के पेड़ की छाया में खड़े होकर बात करने लगे।
थोड़ी देर में डॉ. दीपेश सोनी और और नर्सिंगकर्मी सुरेंद्र पारीक मेरे पास आए, बोले भाई साहब, असुविधा तो हुई है लेकिन कोई बात ही नहीं है, अपने समाधान के लिए प्रभारी के चेंबर में चलकर बात करते हैं। बातचीत से समाधान निकाले, उससे बेहतर कोई रास्ता नहीं ! यही मेरी सोच है लिहाजा उनके साथ चेंबर में पहुंचे। डॉक्टर साहब ने तब तक वहां पुलिस को बुला लिया था। दो-तीन अन्य चिकित्सक भी रहे होंगे। मैंने और अन्य लोगों ने प्रभारी चिकित्सक को चिकित्सालय में व्यवस्थाएं सुधारने के लिए कहा था क्योंकि बुजुर्ग लोग घंटों से परेशान थे। प्रभारी का कहना था कि डॉ. विजय भादू के समय आप में से कोई पत्रकार नहीं आता था, हमें परेशान करते हो। डॉ. रिद्धकरण नामक चिकित्सक ने तो सलाह देने डाली, कि आपको इंदिरा सर्किल या एसडीम ऑफिस जाकर पत्रकारिता करनी चाहिए लेकिन आप यहां आकर हमें परेशान करते हैं। खैर थोड़ी देर बाद इस बहस बाजी का अंत यह हुआ था कि डॉक्टर साहब चिकित्सालय की व्यवस्था सुधारेंगे और प्रेस उनका सहयोग करेगी। चिकित्सकों की तरफ से आग्रह किया गया कि इस घटनाक्रम को खबरों का तूल न दिया जाए, जिसे मान भी लिया गया।
आगे की कहानी इतनी सी है कि डॉक्टर नीरज सुखीजा अपने तीन-चार चिकित्सकों के साथ पुलिस स्टेशन पहुंचे और मेरे खिलाफ राज कार्य में बाधा का मुकदमा दर्ज करवा दिया है। मजे की बात यह है कि उमेश मुद्गल जिसे शायद डॉ. नीरज सुखीजा जानते ही नहीं उसका नाम भी लिखवा दिया गया है जबकि वह तो वहां किसी निजी काम से हुआ था।
मुझे इस झूठे मुकदमे से कोई परेशानी नहीं है। प्रभारी चिकित्सक द्वारा किए गए दुर्व्यवहार को लेकर मुकदमे से पहले ही एक परिवाद हमारे द्वारा पुलिस को सोंप दिया गया था, उस पर भी पुलिस कार्यवाही करेगी, ऐसा मेरा मानना है।
लेकिन इतना तय है कि साधारण दबी कुचली जनता के हितों के लिए मैं ताउम्र संघर्ष करता रहूंगा। मुझे पूरा भरोसा है, इस संघर्ष में सूरतगढ़ क्षेत्र से प्रेस के समर्पित साथियों के साथ विवेकवान और जागरूक लोग मेरे साथ खड़े होंगे।
- डॉ. हरिमोहन सारस्वत
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