(गतांक से आगे)
आगे हनुमान् और सीता के बीच बड़ा प्रिय और वात्सल्य से भरा संवाद होता है। फिर हनुमान् कहते हैं कि वे सीता को क्लेश पहुंचानेवाली राक्षसियों को मार डालना चाहते पर सीता उनको कहती हैं कि ये तो अपने स्वामी रावण की आज्ञा के वशीभूत होकर मुझे क्लेश देती थीं, अतः इनका कोई दोष नहीं है। अतः इनको मारना उचित नहीं होगा। मेरे लिए दैव का विधान ही ऐसा था।
फिर वे कहती हैं - मैं अपने भक्तवत्सल स्वामी (राम) के दर्शन करना चाहती हूं।
साब्रवीद् द्रष्टुमिच्छामि भर्तारं भक्तवत्सलम्।।
(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग -113, श्लोक - 49)
हनुमान् बोले कि जैसे शची इन्द्र को देखती है, वैसे ही आप आज चन्द्रमा के समान मुखवाले रामचन्द्र को देखेंगी, जिनके मित्र विद्यमान हैं और शत्रु मारे जा चुके हैं। और वे रामचन्द्र के पास लौट आये।
उन्होंने राम को बताया कि सीता जी मुझे आत्मीय जन मानती हैं और आंसू भरे नेत्र वाली सीता ने मुझे कहा कि मैं अपने स्वामी के दर्शन करना चाहती हैं। हनुमान् के ऐसा कहने से रामचन्द्र ध्यानस्थ हो गये। उनकी आंखें डबडबा आयीं। वे लम्बी सांस खींचकर भूमि की ओर देखते हुए मेघरंग के विभीषण को बोले।
एवमुक्तो हनुमता रामो धर्मवृतां वर: ।
आगच्छत् सहसा ध्यानमीषद्बाष्पपरिप्लुत: ।।
स दीर्घमभिनि:श्वस्य जगतीमवलोकयन्।
उवाच मेघसंकाशं विभीषणमुपस्थितम्।।
(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग - 114, श्लोक 5-6)
राम ने कहा कि तुम सीता को सिर से स्नान कराकर दिव्य अंगराग और दिव्य आभूषणों से विभूषित कर शीघ्र मेरे पास ले आओ।
यहां एक बार पुनः स्पष्ट होता है कि राम सीता के वचन से करुणार्द्र होकर सीता के प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त करते हैं।
इसपर विभीषण शीघ्रता से सीता के पास गये और उनको राम का संदेश सुनाया। उनके ऐसा कहने पर सीता ने विभीषण को कहा कि मैं बिना स्नान किये ही पतिदेव के दर्शन करना चाहती हूं।
एवमुक्ता तु वैदेही प्रत्युवाच विभीषणम्।
अस्नात्वा द्रष्टुमिच्छामि भर्तारं राक्षसेश्वर।।
(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग -114, श्लोक -11)
विभीषण कहते हैं कि राम की ही आज्ञा है कि सीता नहा - धोकर दिव्य अङ्गराग और दिव्य आभूषणों से युक्त होकर आएं और आपको ऐसा करना चाहिए।
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच विभीषण: ।
यथाऽऽह रामो भर्ता ते तत् तथा कर्तुमर्हसि।।
(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग- 114, श्लोक -12)
तब सीता ने "बहुत अच्छा" कहा। सिर से स्नान किया और बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण पहनकर वे चलने के लिए तैयार हुईं।
यहां एक प्रश्न उठता है कि राम को सीता पर संदेह होता तो वे सीता को स्नान करके और वस्त्राभूषण से सजकर आने के लिए क्यों कहते । वे तो किसी रूप में सीता पर आरोप लगा सकते थे। यह कामना करना कि मेरी पत्नी स्वच्छ और सुन्दर लगे, विभीषण के माध्यम से इसका आग्रह प्रकट होना, यह अपने आप ही यह बताता है कि राम सीता पर संदेह नहीं करते थे, अपितु उनसे उसी प्रकार प्रेम करते थे, जैसे अन्य साधारण पुरुष करते हैं, जो अपनी पत्नी को स्वच्छ और वस्त्राभूषण से सज्जित देखकर प्रसन्न होते हैं।
यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि वे पहले सीता को कह चुके हैं कि लङ्का का ऐश्वर्य अब विभीषण के अधीन है, इसे तुम अपना घर समझो। इसलिए वे बिना किसी हिचक के कहते हैं कि सीता नहा-धोकर और वस्त्राभूषण से सज्जित होकर आएं।
सीता जब राम को मिलने चलीं तो उनके लिए एक पालकी मंगायी गयी। उसको निशाचर घेरे हुए थे। सीता उस पालकी में बैठकर राम को मिलने चलीं। विभीषण ने रामचन्द्र को कहा कि सीता आ गयी हैं। सीता राक्षसगृह में निवास करके आयी हैं, इससे राम को एक साथ ही रोष, हर्ष और दैन्य प्राप्त हुआ।
तामागतामुपश्रुत्य रक्षोगृहचिरोषिताम् ।
रोषं हर्षं च दैन्यं च राघव: प्राप शत्रुहा।।
(वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड, सर्ग -114, श्लोक -17)
फिर क्या हुआ, इसे आगे देखेंगे।
(क्रमशः)
- प्रो रजनीरमण झा
मो नं 9414193564